खबरची। मीर तकी मीर का जन्म 1723 में आगरा में हुआ था। आप उर्दू और फारसी भाषा के बड़े शायर थे। आपका मूल नाम मोहम्मद तकी था। सीधी-सपाट जबान में शेर कहने वाले मीर एक ऐसे शायर थे, जिनका नाम आज भी बड़े अदब से लिया जाता है। मीर साहब की पांच गज़लें आपकी नज्र हैं, मुलाहिजा फरमाइए -
1.
अंदोह से हुई न रिहाई तमाम शब।
मुझ दिल-जले को नींद न आई तमाम शब।
चमक चली गई थी सितारों की सुब्ह तक,
की आस्माँ से दीदा-बराई तमाम शब।
जब मैंने शुरू क़िस्सा किया आँखें खोल दीं,
यक़ीनी थी मुझको चश्म-नुमाई तमाम शब।
वक़्त-ए-सियह ने देर में कल यावरी सी की,
थी दुश्मनों से इनकी लड़ाई तमाम शब।
2
जीते-जी कूचा-ए-दिलदार से जाया न गया
उसकी दीवार का सर से मेरे साया न गया
गुल में उसकी सी जो बू आई तो आया न गया
हमको बिन दोश-ए-सबा बाग से लाया न गया
दिल में रह दिल में कि मे मीर-ए-कज़ा से अब तक
ऐसा मतबूअ मकां कोई बनाया न गया
क्या तुनुक हौसला थे दीदा-ओ-दिल अपने, आह
एक दम राज़ मोहब्बत का छुपाया न गया
शहर-ए-दिल आह अजब जगह थी पर उसके गए
ऐसा उजड़ा कि किसी तरह बसाया ना गया
3.
अपने तड़पने की मैं तदबीर पहले कर लूँ
तब फ़िक्र मैं करूँगा ज़ख़्मों को भी रफू का।
यह ऐश के नहीं हैं या रंग और कुछ है
हर गुल है इस चमन में साग़र भरा लहू का।
बुलबुल ग़ज़ल सराई आगे हमारे मत कर
सब हमसे सीखते हैं, अंदाज़ गुफ़्तगू का।
4
अश्क आंखों में कब नहीं आता
लहू आता है जब नहीं आता।
होश जाता नहीं रहा लेकिन
जब वो आता है तब नहीं आता।
दिल से रुखसत हुई कोई ख्वाहिश
गिरिया कुछ बे-सबब नहीं आता।
इश्क का हौसला है शर्त वरना
बात का किस को ढब नहीं आता।
जी में क्या-क्या है अपने ऐ हमदम
हर सुखन ता बा-लब नहीं आता।
5
अब जो इक हसरत-ए-जवानी है
उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है।
ख़ाक थी मौजज़न जहाँ में, और
हम को धोखा ये था के पानी है।
गिरिया हर वक़्त का नहीं बेहेच
दिल में कोई ग़म-ए-निहानी है।
हम क़फ़स ज़ाद क़ैदी हैं वरना
ता चमन परफ़शानी है।
याँ हुए 'मीर' हम बराबर-ए-ख़ाक
वाँ वही नाज़-ओ-सर्गिरानी है।
रेख़्ता के तुम ही नहीं हो ग़ालिब
ReplyDeleteकहते हैं किसी ज़माने में
मीर तक़ी मीर हुआ करते थे।।
बहुत बढ़िया अनुज जी।।
शुक्रिया चड्ढा सर
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