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Friday 13 March 2015

गालिब : हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन ...

मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ 'ग़ालिब' का जन्म 27 दिसंबर 1796 – 15 फरवरी 1869 को हुआ था। आपकी तारीफ में बस इतना कि आपने उर्दू और फ़ारसी को एक नई पहचान दी। इस बात का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि आपके नाम और शायरी से उर्दू जबान का बच्चा-बच्चा वाकिफ है। गालिब ऐसे शायर भी हैं जिन्हें भारत और पाकिस्तान, दोनों मुल्कों के लोग बराबर तवज्जो देते है। गालिब की शायरी के मिजाज को ऐसे भी समझ सकते हैं कि कई साल पहले कहे उनके शेर आज भी मौजूं मालूम पड़ते हैं। आज हम आपको इस महान शायर का एक पूरा कलाम और चंद मशहूर शेर पढ़ा रहे हैं, मुलाहिजा फरमाइएगा -


तस्कीं को हम न रोएं जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले
हुरां-ए-ख़ुल्द में तेरी सूरत मगर मिले।

अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल
मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यों तेरा घर मिले।

साक़ी गरी की शर्म करो आज वर्ना हम
हर शब पिया ही करते हैं मेय जिस क़दर मिले।

तुम को भी हम दिखाए के मजनूँ ने क्या किया
फ़ुर्सत कशाकश-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ से गर मिले।

लाज़िम नहीं के ख़िज्र की हम पैरवी करें
माना के एक बुज़ुर्ग हमें हम सफ़र मिले।

आए साकनान-ए-कुचा-ए-दिलदार देखना
तुम को कहीं जो ग़लिब-ए-आशुफ़्ता सर मिले।

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उनको देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक,
वह समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल को खुश रखने को 'गालिब' ये ख्यालअच्छा है।

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इशरते-सोहबते-खूबां ही गनीमत समझो,
न हुई 'गालिब' अगर उम्रे-तबीई न सही।

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उजाला तो हुआ कुछ देर को सहने-गुलिस्ताँ में,
बला से फूँक डाला बिजलियों ने आशियाँ मेरा।

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उम्र फानी है तो फिर मौत से क्या डरना,
इक न इक रोज यह हंगामा हुआ रखा है।

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एक हंगामे पै मौकूफ है घर की रौनक,
नौहा-ए-गम ही सही, नग्मा-ए-शादी न सही।

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कर्ज की पीते थे मय, लेकिन समझते थे कि हाँ,
रंग लायेगी हमारी फाकामस्ती एक दिन।

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