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Saturday 23 October 2010

जलता कश्मीर, बेफिक्र दिल्ली



हाल-फिलहाल कश्मीर में जो कुछ देखने को मिल रहा वह चौकाने वाला है। सरकार, विपक्ष और मीडिया सभी की भूमिकाओं पर सवालिया निशान लगा है। साल भर पहले सोफिया प्रकरण पर सरकारी भूमिका के बाद ऐसा लगने लगा था कि वहाँ कोई बड़ी घटना होने वाली है। कई विश्लेषकों ने राय जाहिर की थी ‘जिस तरीके से मामले को गोल मोल किया जा रहा है –भविष्य में स्थिति के बदतर होने में प्रभावी होगी’। आम कश्मीरियों का विश्वास दिल्ली पर से घटता गया और गुस्सा घाटी के पूरे अवाम पर हावी होता गया ।
किसी भी आंदोलन के पीछे कोई फौरी कारण कारगर हो सकता है पर उसकी पृष्ठभूमि में वे तमाम मुद्दे प्रमुख होते हैं जो जनता को सीधे अपील करते हैं। मौजूदा आंदोलन जिसे दिल्ली एक आन्दोलन स्वीकार करने की मनःस्थिति में नहीं दिखता के पीछे भी कई कारण प्रभावी रहे, जो वहाँ की वादियों में पिछले छ दशक से गूंज रही है। दिल्ली इसे अपना अटूट हिस्सा मानती आई है, पर क्या वाकई कश्मीर भारत का हिस्सा है? अगर है तो वहाँ 1958 का विशेष सशस्त्र बल अधिनियम क्यों? जो घाटी के अवाम को उसके लोकतान्त्रिक अधिकारों से दूर करती है, जिसकी आड़ में वहाँ मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ाई गयीं, जिसके कारण आम कश्मीरी आज पहचान के संकट से जूझ रहा है । इस अधिनियम की आड़ में कश्मीर में लगातार पैशाचिकता का अंधा कारोबार किया गया। हकीकत यह है कि आजादी के साठ साल बीत जाने के बावजूद एक कश्मीरी न तो भारतीय बन पाया और न ही कश्मीरी। वह पाकिस्तानी, आतंकी और मुजाहिद के रूप में प्रचार पाता रहा, जिसे दिल्ली की सियासत करने वाले दल और मीडिया प्रचारित करते रहें।
उस विश्वास का आधार कहाँ है जिसके बल पर नेहरू 1953 में ताल ठोककर कश्मीर में जनमत करवाने की चुनौती देते रहें थे। इन साठ सालों में वहाँ कौन सी हवा चली जिससे कश्मीर जलता ही गया और दिल्ली बेफिक्र रही। अबकी कश्मीर की सड़कों पर मूलभूत नागरिक अधिकार की मांग करने वाले कश्मीरियों के सवाल के जवाब मे बराबर प्रचारित किया जाता रहा कि यह भीड़ पाकिस्तान के इशारे पर नाच रही है, दिल्ली और स्थानीय प्रशासन अपनी खामी ढूढ़ने के बजाय इसे अलगाववादियों और विदेशी साजिश का हिस्सा मानता रहा। उन्हें इतना अंदाजा भी नहीं हुआ कि यह अवाम जो सड़क पर उतरी है इसके पीछे राजनीतिक दलों की सोच की अपेक्षा आम अवाम की दुश्वारियां ज्यादा काम कर रहीं हैं।
दिन सरकता रहा और लोग मरते रहें। दिल्ली उमर अब्दुल्ला के सहारे बेफिक्र बैठी रही। उमर जिन्हें कश्मीर पर ज्यादा विश्वास रहा और जो कश्मीरी राजनीति को अपनी पैतृक संपत्ति मान बैठे हैं। अगर उमर ने शुरूआत में ही, राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया होता तो शायद बात आगे नहीं बढ़ती। किंतु कश्मीर के राजनीति पर नियंत्रण को लेकर उन्होने वहाँ की अवाम, हुर्रियत और पीडीपी से ठोस और सीधी वार्ता की पहल नहीं की। इन्हें तवज्जो न देने के पीछे शायद उनका यह डर हो सकता है कि कहीं घात लगाकर बैठी महबूबा मुफ्ती इस अवसर का इस्तेमाल न कर लें। पूरे मामले में उमर का रवैया दिल्ली के साथ ऐसा बना रहा कि हुर्रियत या मुफ्ती की भूमिका नगण्य रहे ताकि दिल्ली पर उनका राजनीतिक दबदबा बना रहे। कमोबेश स्थानीय कांग्रेसी स्थिति भी यही रही जिसमें अन्य पक्षों की भूमिका को शून्य कर दिया जाय । कश्मीर में इन लोगों को इतनी भयावहता का अंदाजा नहीं था। जैसे-जैसे मामला बिगड़ता गया और दिल्ली का उमर से विश्वास जाता रहा अन्य विकल्पों में संभावना तलाश की गयी।
अब सर्वदलीय बैठक और डेलीगेशन के माध्यम से डैमेज कंट्रोल का प्रयास किया जा रहा है। कश्मीर की मौजूदा हिंसा के इस लंबे सत्र में 20 सितंबर को डेलीगेशन में मीरवाइज़ का यह बयान महत्त्वपूर्ण है कि ‘भारत सरकार एक तरफ हमसे बातचीत करना चाहती है, वही दूसरी ओर हमें घरों में नजरबंद किया गया है’ वाकई कैसे अंदाजा लगाया जाए कि यह विश्वासपूर्ण माहौल में ठोस बातचीत का आधार होगा। गेंद अब दिल्ली के पाले में है और उसे ही तय करना है कि कश्मीर में लोकतन्त्र कितना मजबूत होगा और एक आम कश्मीरी क्या वाकई भारतीय बन पाने में सफल होगा।
अनुज शुक्ला
Anuj4media@gmail.com
9372657805

Thursday 21 October 2010

चोर-चोर मौसेरे भाई वाली कहावत दोनों पार्टियों के लिए सटीक साबित हो रही है

रत्नेश कुमार मिश्र
बिहार में चुनावी सावन आ गया है। सभी राजनीतिक दल अपने-अपने वोटबैंक के साजिश में लगे हुए हैं। आत्मप्रशंसा, आरोप प्रत्यारोप और झठे तुष्टीकरण की एक लहर सी आ गई है।इस बीच अखबारों में खबर आई कि एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने नीतीश सरकार को आड़े हाथों लिया। जाहिर है कि बिहार में विधान सभा चुनाव को देखते हुए कांग्रेस अपने चुनावी एजेण्डे के निर्धारण में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहती। ऐसे में बिहार में केंद्र सरकार द्वारा दी गई धनराशि का हिसाब मांगना जायज है, इसके अलावा कांग्रेस के पास कोई चारा नहीं है। अब देखना यह है कि नीतीश सरकार कौन सी सियासी चाल चलती है। चोर-चोर मौसेरे भाई वाली कहावत दोनों पार्टियों के लिए सटीक साबित हो रही है। केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस और उसके घटक दल भी दूध के धुले हुए तो कदापि नहीं है। पहले आईपीएल फिर मनरेगा और अब राष्ट्रमण्डल जैसे भ्रष्टाचार के गहरे दलदल में फंसी यूपीए सरकार देश में विकास के अपने मनमाफिक कसीदे पढ़ रही है। धन की लूट खसोट में कौन अव्वल रहा इस नतीजे पर पहुंचना जरा मुश्किल है। विकास और प्रगति के नाम पर चुनावी अखाड़ों में ताल ठोंकने वाली राजनीतिक पार्टियों को यह बात कब समझ में आएगी कि इस मुहावरे में अब दम नहीं रहा। देश की जनता मंहगाई और बेरोजगारी की चपेट में है। गरीबी और भुखमरी की स्थितियाँ दिनों-दिन बढ़ती जा रही हैं। भ्रष्टाचार के पैमाने में लगातार वृद्धि हो रही है। 2005 में अपनी ईमानदार छवि के चलते सत्ता में आए नीतीश कुमार हजारों करोड़ गटक लिए और डकार तक नहीं ली। बिहार पांच साल पहले जहां खड़ा था वही अब भी है। हां यह जरूर हुआ कि सत्ता प्रतिष्ठान के कुछ चाटुकार पूंजीपतियों का विकास अवश्य हुआ। लिहाजा कांग्रेस और नीतीश सरकार दोनों एक ही धरातल पर खड़े हैं। अभी कुछ ही दिनों पहले जब सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिया कि सरकारी गोदामों में खुले आसमान के नीचे अनाज को सड़ने से अच्छा होगा कि उसे देश की भूखी, गरीब जनता में मुफ्त बांट दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश पर प्रतिक्रिया देते हुए कृषिमंत्री शरद पवार ने कहा कि इस पर अमल संभव नहीं है। जिस देश में दुनिया की अधिकतम भूख और कुपोषण की शिकार जनता निवास कर रही हो, वहाँ खाद्यान का सड़ जाना कितना बड़ा नैतिक अपराध है, शायद इसका एहसास कांग्रेस को नहीं है। वोटबैंक की गुणागणित में तल्लीन श्रीमती सोनिया गांधी और यूपीए सरकार अबतक मंहगाई का विकल्प सोचने में नाकामयाब रही है उनके विकास और प्रगति के राष्ट्रमण्डल में हजारों करोड़ो के वारे - न्यारे हो गए। ऐसे में देखना यह है कि नीतीश कुमार एक बार फिर अपनी कुर्सी बचाने में कामयाब होते है या नहीं। बिहार की जनता को यह तय करना होगा कि इन सियासी दलों की लोकलुभावनी घोषणाओं के बीच अगले पांच सालों के लिए अपना भविष्य किसके हाथ सौंपती है। बिहार भूंखा है उसे रोटी चाहिए, नौजवान बेरोजगार हैं उन्हें रोजगार चाहिए। रानेताओं द्वारा खाए, पचाए और अघाए माल के दस्तावेजों की जांच सख्ती से होना चाहिए, इसे चुनाव का मुद्दा या यू कहें कि जनता का मुद्दा नहीं बनाना चाहिए। सियासी डलों को जनता की वास्तविक जरूरतों पर राजनीति के बजाय वोटबैंक की साजिश ही दिखाई देती है। इधर केंद्र में प्रमुख विपक्षी की भूमिका निभाने वाली और बिहार में नीतीश के साथ मिल कर चुनाव लड़ने वाले भाजपा ने सीधे कांग्रेस पर निशाना साधा है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी इस बात की मांग को लेकर अडिग है कि राष्ट्रमण्डल खेलों में हुए करोड़ों रूपए के घोटाले की संसदीय समिति के द्वारा जांच होनी चाहिए। गडकरी का इशारा सीधे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तरफ है। पास किए गए रूपयों की विभिन्न मदों में खर्च की जांच ठीक ढंग से हुए बिना उन्होंने हस्ताक्षर कैसे किए । विदित है कि अभी कुछ ही दिनों पहले भाजपा के ही एक बड़े नेता और गुजरात के वर्तमान मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ नीतीश कुमार की तस्वीर को अखबारों में विज्ञापित करने पर नीतीश कुमार ने कड़ी आपत्ति जाहीर की थी। लेकिन साथ-साथ चुनाव लड़ने में कोई आपत्ति नहीं है। नीतीश कांग्रेस और भाजपा पैतरे बाजी के अतिरिक्त लालू और पासवान जैसे दिग्गज भी अपनी कोर-कसर नहीं छोड़ने वाले हैं। इन राजनीतिक चुहलबाजियों के बीच जनता का फैसला आना बाकी है।

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