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Friday 27 December 2013

अप्रत्याशित राजनीति के मायने

- अनुज शुक्ला भारतीय राजनीति के लिए शायद संकेत शुभ हैं! हालिया चुनाव के बाद तमाम पार्टियों में जागे शुद्धतावादी दृष्टिकोण को देखते हुए लगता है कि आने वाले दिनों में राजनीतिक दलों की सूरत में काफी तब्दीलियाँ हों। फिलहाल ऐसा सोचना अभी दूर की कौड़ी हो सकता है लेकिन जो सामने होता दिखाई दे रहा है वह यह कि दिल्ली में विधानसभा चुनाव के बाद छाए सियासी राजनीतिक बादल अगले कुछ दिनों में छंट ही जाने हैं। जनमत संग्रह के अनूठे इकलौते प्रयोग के बाद आम आदमी पार्टी दिल्ली में कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने को राजी हो ही गई है। इस परिवर्तन में पिछले पखवाड़े भर से दिल्ली को लेकर जिस तरीके की सियासी कशमकश देखी गई उसको लेकर कई सवाल मौजूं हुए हैं। सवाल यह कि अगर 2014 के आगामी लोकसभा चुनाव सामने नहीं होते तो क्या वाकई दिल्ली का राजनीतिक परिदृश्य ऐसा ही होता जैसा कि वर्तमान में दिखाई दे रहा है? क्या भाजपा अरविंद केजरीवाल को सरकार बनाने के लिए इतनी आसानी से वॉक ओवर दे देती? जिस केजरीवाल ने न सिर्फ दिल्ली बल्कि समूचे देश में कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार के नाम पर प्रतिकूल माहौल तैयार कर उसकी राजनीतिक जड़ें कमजोर कीं हों उसी केजरीवाल को कांग्रेस इतनी आसानी से समर्थन दे देती? सबसे अहम सवाल यह भी कि क्या केजरीवाल अपनी राजनीति को उस अंजाम तक पहुँचा पाएँगे, जिसका सब्जबाग आम आदमी के नाम पर उन्होंने दिल्ली की जनता को दिखाए हैं? देखा जाए तो वर्तमान में भ्रष्टाचार के खिलाफ शुचिता और आदर्शवाद की कथित लहर ही भारतीय राजनीति में आमतौर पर न घटित होने वाली राजनीतिक अनहोनियों के केंद्र में है। उस भारतीय राजनीति में जिसका इतिहास विभिन्न दलों की तरह-तरह के करिश्माई प्रयोगों के लिए मशहूर रहा हो। इन विधानसभा चुनाव के कुछ ही महीनों बाद देश की दो बड़ी पार्टियाँ भाजपा और कांग्रेस, जिनके बीच 14 का मुख्य मुक़ाबला है, वे तमाम मुद्दों पर एक दूसरे के खिलाफ आमने-सामने होंगी। ऐसे में दोनों पार्टियों के लिहाज से आम आदमी पार्टी के रूप में जो अनौपचारिक राजनीतिक पार्टी का प्रसव हुआ है उसकी प्रभावशीलता दोनों पार्टियों के लिए शुभ संकेत नहीं। भले ही संसाधन और पहुँच के लिहाज से आप देश भर में दिल्ली का करिश्मा दोहराने की स्थिति में नहीं है अलबत्ता आगामी चुनाव पर उसके प्रभाव को ख़ारिज तो नहीं ही किया जा सकता है। अगर 14 के चुनाव सामने नहीं रहते तो शायद भाजपा इतनी आसानी से दिल्ली में वॉक ओवर नहीं देती? भाजपा, जिसने जनादेश के कथित सम्मान के नाम पर दिल्ली में सरकार बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, उसने उत्तर प्रदेश में छह महीने के मुख्यमंत्रित्व कोटे का भस्मासुरी प्रयोगधर्मी गठबंधन बहुजन समाज पार्टी के साथ किया था। हालांकि बहन जी की वादा खिलाफी के कारण उस वक्त भाजपा ने कांग्रेस को तोड़कर मायावती को अपदस्थ करते हुए किसी प्रकार यूपी में सत्ता कायम करने में कामयाब हो गई थी। अब दिल्ली में सत्ता के बहुत करीब 32 सीटें (एक सीट सहयोगी अकाली दल की है) पाने के बावजूद भाजपा ने सरकार बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई । सवाल उठता है कि अगर 14 के चुनाव सामने नहीं होते तो क्या भाजपा वाकई दिल्ली में ऐसा होने देती? यूपी और झारखंड में पार्टी के अतीत का इतिहास तो कम से कम इस बात को मानने के लिए कतई तैयार नहीं। दरअसल 14 के आसन्न चुनाव के मद्देनजर न चाहते हुए भी भाजपा ने अपने बड़े अभियान के लिए आक्रामक विपक्ष की राजनीति करने का निर्णय लिया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आप द्वारा कथित रूप से खड़ी की गई शुचिता और आदर्श की राजनीतिक दीवार फाँदने के चक्कर में भाजपा इस तरीके की किसी कोशिश से फिलहाल बचना चाहती है। क्या यह सोचना गलत है कि दिल्ली में सरकार चलाने वाली आप से विपक्ष में बैठने वाली आप भाजपा के लिए ज्यादा नुकसानदेह साबित हो सकती है! अगर देखा जाए तो एक तरीके से भाजपा और कांग्रेस ने आप की ताकत को दिल्ली की सीमा में आबद्ध कर दिया है। दरअसल दोनों पार्टियों की रणनीति से यही जाहिर भी होता है। सरकार बनाने की घोषणा के साथ ही जिस तरीके भाजपा ने आप के ऊपर राजनीतिक हमले तेज कर दिए और इसकी प्रतिक्रिया में आप के रणनीतिकार सामने आ रहे हैं वह इस बात का सबूत भी माना जा सकता है। यह साफ है कि 14 के चुनाव तक आप के एजेंडे को लेकर भाजपा उसे दिल्ली में ही घेरकर रखने की रणनीति पर चल रही है। बहरहाल, मंत्रिपद को लेकर बिन्नी के रूप में आप में जिस तरीके से शंटिंग हुई है वह भाजपाई नेताओं के मुस्कराने का बेहतर सबब साबित हो सकता है। दूसरी ओर पाँच राज्यों में जनादेश के बाद कोमा में नजर आ रही कांग्रेस द्वारा आप को बिना शर्त समर्थन की पेशकश उसकी अपनी मजबूरियों की अंतर्कथा है। मौजूदा हालात में कांग्रेस की स्थितियों को लेकर राजनीतिक जानकारों का जो समेकित आकलन है कमोबेश उसका सार यही है कि फिलहाल कांग्रेस किसी भी सूरत में 2014 से पहले दोबारा दिल्ली में आत्मघाती चुनाव लड़ने के मूड में नहीं है। हालांकि दिल्ली में आप को समर्थन के सवाल पर पार्टी की अंदरूनी इकाई में विरोध के स्वर भी फूट पड़े हैं लेकिन राननीतिक लिहाज से कांग्रेस के पास इससे बेहतर कोई दूसरा उपचार उपलब्ध नहीं है। फिलवक्त राजनीति में जो दिख रहा है वह बहुत आभासी भी है। दरअसल भारत की राजनीति में भ्रष्टाचार के खिलाफ हमेशा से ही कारगर और आदर्श का विषय रही राजनीतिक शुचिता का भूत इस बार जिस तरीके ज्यादा ही मुखर हो गया है वह भविष्य की राजनीति को लेकर कई तरह के भ्रम भी पैदा कर रहा है। जिस तरीके भाजपा और कांग्रेस ने आप को शिकंजे में लिया है वह साबित करता है कि आने वाले दिन आप के लिए बहुत कठिन साबित होंगे। यह तय मानकर चलना चाहिए कि दिल्ली में बनने वाली आम आदमी पार्टी सरकार का भविष्य 2014 तक सुरक्षित है लेकिन राजनीतिक रूप से इस अल्प अवधि में आप द्वारा उसके एजेंडे के लिए किए गए कार्य ही उसका दूरगामी भविष्य तय करेंगे। इसके साथ ही आप के प्रशिक्षु नेताओं और आप के काडर की निजी महत्त्वाकांक्षाओं की तुष्टि भी आप के भविष्य का गुणात्मक फैसला करेगी। अन्यथा आप भी असम गण परिषद की तरह इतिहास का एक हिस्सा भर बनकर रह जाएगी। वैसे भी जन लोकप्रियता के मामले में भारत में विपक्ष की राजनीति की अपेक्षा सत्ता की राजनीति हमेशा ही आत्मघाती साबित हुई है।

Friday 20 December 2013

इन टू द वाइल्ड; अनंत संभावनाओं की यात्रा

- अनुज शुक्ला जीवन का मतलब सिर्फ इसे जीते रहना ही नहीं है. जीवन का मतलब सिर्फ यह नहीं कि एक नौकरी, एक परिवार और एक शहर में नाम, पैसे और शोहरत के चक्कर में अपने हिस्से के बेशकीमती दिन अपव्यय कर दिए जाए. जीवन का मतलब उसकी अनंत यात्रा को भोगना भी है. काश मैं ‘इन टू द वाइल्ड’(2007) कुछ साल पहले देख पाता. संभव है जिन्दगी जीने का दूसरा नजरिया मिलता. बहरहाल कल रात आधी-अधूरी ‘द कम्पेन’ को पूरी करने के बाद वर्जीनिया के एक अनंत यात्री Christopher McCandless से मुलाकात हुई. ये सेंटियागो (अलकेमिस्ट) के बाद दूसरे आदमी मिले जीवन की अनंत यात्रा में विश्वास रखते हैं. क्रिस्टोफर की यात्रा सिर्फ रोमांचकारी होने के साथ ही बहुत दार्शनिक भी है. 23 साल के क्रिस्टोफर एक शानदार स्कॉलर थे. पढ़ाई पूरी करने के बाद अपनी बचत के 24 हजार डॉलर को चैरिटी में दान कर दिया. क्रिस्टोफर क्रिस्टोफर अपने पालकों- मित्रों को बिना बताए निकल पड़ता है अलास्का की अनंत यात्रा पर. इस दौरान कई पड़ाव पर क्रिस्टोफर आवारा जीवन के दार्शनिक आनंद से रूबरू होता है. अनंत यात्रा को निकले क्रिस्टोफर को रोकने कई भावनाएं भी उमड़ती है. लेकिन अलास्का पहुंचने की धुन में वह वहां थमने की बजाए वापिस लौटने का वादा कर आगे चलता जाता है. क्रिस्टोफर ने जीवन के आनंद को जीने में जो संघर्ष किया उसका दर्शन बहुत महान है. न्यूनतम साधनों के साथ रेगिस्तान, नदियों पठारों को पार करते हुए क्रोस्टोफर, अलास्का की बर्फिली वादियों में पहुंच जाता है. एक नदी पार करने पर उसे जंगल में कबाड़ वैन दिखाई पड़ती है. क्रिस्टोफर इसी वैन में अपने जीवन के क्षणों को गुजारने लगता है. वह शिकार करता है, किताबें पढ़ता है और डायरी में अपने अनुभवों को नोट करता है. कुछ दिनों बाद गर्म मौसम के आगमन के साथ जब बर्फ पिघलने लगती है तो क्रिस्टोफर वादे के मुताबिक लौटने का फैसला करता है. वह अपने छोडेÞ गए निशान के सहारे नदी के किनारे तक पहुंचता है, तो नदी के उफान को देखकर असहज हो जाता है. बर्फ की पिघलन के कारण नदी का बेग इतना तेज हो गया कि उसे अब पार करना काफी मुश्किल था. क्रिस्टोफर फिर वापिस उसी कबाड़ वैन में वापिस लौट आता है, जहां उसने अपने कई हफ्ते नितांत अकेले गुजारे थे. इस बीच क्रिस्टोफर का जीवन संघर्ष बहुत कठिन हो जाता है. अब जंगल में जीने के लिए शिकार भी नहीं मिलता. बहुत भूखा क्रिस्टोफर अज्ञानतावश किसी जहरीली जंगली वनस्पति की जड़ को खा लेता है. वह बीमार होता है और मर जाता है. एक दार्शनिक यात्री का अद्भुत अंत बहुत मार्मिक है. क्रिस्टोफर की यात्रा कथा के साथ ही उसके जीवन से जुड़ी अन्य कहानियां पाशर््व में चलती रहती हैं. इन टू द वाइल्ड में वे जीवन का बेहतरीन कोलाज बनाती हैं. क्रिस्टोफर, निमित्त अनंत यात्री सेंटियागो से महान है. वह जीवन की अनंत संभावनाओं का यात्री है. जिन्होंने न देखी हो उन्हें इन टू द वाइल्ड को एक बार जरूर देखनी चाहिए.

Saturday 31 August 2013

रोकी भी जा सकती थी दाभोलकर की हत्या

-अनुज शुक्ला
मंगलवार, 20 अगस्त को पुणे, महाराष्ट्र में दाभोलकर की हत्या चेतना झकझोरने वाली घटना है। इस दुस्साहसिक घटना ने वर्षों से दकियानूसी परंपरा के खिलाफ मुहिम चलाने वाले और उसे कानूनी जामा पहनाने के लिए संघर्षरत डॉ. नरेंद्र दाभोलकर को हमसे छीन लिया। यह हत्या सुरक्षा की दृष्टि से मुंबई के साथ काफी महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाले पुणे में हुई। राज्य के मुख्यमंत्री ने इसे राजनीतिक हत्या की भी संज्ञा दी। बहरहाल राज्य की सबसे संवेदनशील और सतर्क जगह में हुई यह जघन्य हत्या, हत्या के उपरांत सरकार की कई सकारात्मक कोशिशों के बावजूद उसके नकारेपन को छुपा नहीं पा रही है। एक बार फिर राज्य की प्रगतिशील चेतना सकते में है। इसलिए नहीं कि समाज के सार्वभौमिक हित के लिए संघर्षरत एक कार्यकर्ता को जान गंवानी पड़ी बल्कि इसलिए भी कि महाराष्ट्र की कांग्रेस-राकांपा सरकार, जाने-अनजाने लगातार प्रतिक्रियावादी ताकतों को ऐसी दुस्साहसिक घटनाओं को करने की छूट प्रदान कर रही है। दाभोलकर के बारे में जान लेना जरूरी है कि उन्होंने अपने जीवन के चार दशक देशभर में एक अनूठे आंदोलन को खड़ा करने, उसे वैचारिक और विधिक स्वरूप प्रदान करने में खर्च कर दिया। उन्होंने यह सब एक खिलाड़ी और चमकदार चिकित्सकीय करियर की कीमत पर किया। वे एक चिकित्सक के साथ ही अंतर्राराष्ट्रीय स्तर के मल्ल भी थे। अभी तक महाराष्ट्र के बाहर बहुत कम लोगों को मालूम था कि देश में अन्ध श्रद्धा निर्मूलन समिति के रूप में ऐसा कोई संगठन है जो धर्म के नाम पर आडंबर, भूतप्रेत की व्याधा दूर करने के बहाने अमानवीय यंत्रणा से मुक्त कराने, फर्जी चमत्कारों से बाबागीरी का गोरखधंधा करने वालों, अतिन्द्रीय शक्तियों का फर्जी कमाल दिखाकर गरीब, भोली-भाली जनता को मूर्ख बनाने वालों की समानांतर व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की चुनौती दी। उन्होंने एक वैज्ञानिक समाज की रचना के लिए 1982 में पूरी तरह से इस अभियान में खुद को खपा दिया। चार दशकों से जादू-टोना से जनता को गुमराह करने से बचाने के क्रम में “साधना” नामक पत्रिका का संपादन किया। इसके लिए 1989 में अंधा श्रद्धा निर्मूलन समिति के रूप में एक संगठन की स्थापना भी की। चार दशकों तक चले अभियान में कई मर्तबा प्रतिक्रियावादियों के निशाने पर रहे। अंनिस के सहारे पूरे राज्य के स्कूल, गली-कूचों तक पहुँचकर विभिन्न प्रयोगों के माध्यम से चमत्कारों की पोल खोली। इसके लिए 11 पुस्तकें भी लिखी। यहाँ यह बात साफ कर देना चाहिए कि दाभोलकर ने कभी भी श्रद्धा और आस्था का विरोध नहीं किया। 2011 में जब यह बिल महाराष्ट्र विधानसभा के शीत सत्र में रखा जाना प्रस्तावित था उस वक्त उन्होंने इन पंक्तियों से लेखक से बातचीत में कहा था कि “वे किसी धर्म या आस्था का विरोध नहीं करते बल्कि उनके निशाने धर्म या आस्था के नाम पर खड़ा की जाने वाली अवैज्ञानिकता और कुप्रथाएँ हैं। जिस अभियान के लिए वे संकल्पित थे; उस अभियान का एक चरण महाराष्ट्र के राज्यपाल के. शंकर नारायण के अध्यादेश पर हस्ताक्षर के साथ लगभग पूरा होने की कगार पर है। पता नहीं क्यों इस स्थिति में दाभोलकर की हत्या को लेकर सवाल उठता है कि अगर राज्य सरकार जादू-टोना विधेयक को लेकर पहले ऐसी मुस्तैदी दिखाती तो शायद इस घटना को रोका जा सकता था। उल्लेखनीय है कि जो सरकार पिछले 10 साल से बिल पारित होने के बावजूद कोई न कोई बहाना बनाकर अध्यादेश बनाने से बचती रही, वही सरकार दाभोलकर की हत्या के बाद उपजे जनाक्रोश की तुष्टि के लिए अचानक अंधश्रद्धा कानून पर अध्यादेश पास करवाने को संकल्पित हो गई। सरकार यह पहले भी कर सकती थी लेकिन ऐसा किया नहीं गया। विधानसभा में बेहद मामूली संख्याबलों वाले दो दलों भाजपा और शिवसेना ने ही इस बिल का विरोध किया। विधानसभा के बाहर भी बिल का विरोध केवल उन्हीं संगठनों ने किया जिनकी राज्य के समाजों में कभी कोई हैसियत नहीं रही। जादू-टोना विरोधी विधेयक पर पहले हीला-हवाली करती रही सरकार अचानक दाभोलकर की हत्या के बाद अध्यादेश बनाने राजी हो गई। यानि दाभोलकर की हत्या के बाद उठे जन-असंतोष की तुष्टि के लिए सरकार यह अवसर गँवाना नहीं चाहती। ऐसा सोचना स्वाभाविक है क्योंकि काला जादू टोना विरोधी बिल का प्रस्ताव 1995 में महाराष्ट्र विधान परिषद में पारित कर दिया गया था। 1997 में 27 के मुकाबले 7 मतों से मंजूर हो जाने के बावजूद बिल पर अध्यादेश नहीं बन पाया। इसके बाद एक बार फिर 2005, 2006 और 2011 में अध्यादेश बनाने इस प्रस्ताव को बहस के लिए रखा तो गया लेकिन मंत्रिमंडलीय मंजूरी नहीं दी गई। हर बार कभी “सनातन संस्था” तो कभी वारकरियों द्वारा विरोध और मामूली आक्षेपों के दबाव में इसे टाला जाता रहा। यह बिल पूरे देशभर में अनूठा था। पिछले सत्रह सालों से महाराष्ट्र विधानसभा का हर सत्र शुरू होने से पूर्व तक इस बिल को लेकर सरगर्मी बनी रहती है लेकिन जैसे ही सत्र समाप्त हुआ यह हमेशा ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता रहा। दिलचस्प है कि इसी कांग्रेस सरकार ने 2003 में “जादू-टोना” के खिलाफ कानून लाने वाली देश की पहली सरकार होने का दावा सरकारी उपलब्धियों वाले विज्ञापनों में किया था। क्या यह सोचना गलत होगा कि दाभोलकर की हत्या के पीछे प्रतिक्रियावादी शक्तियों का जितना हाथ रहा, उसमें राज्य की कांग्रेस-राकांपा सरकार की हीला-हवाली भी कम जिम्मेदार नहीं।

Monday 26 August 2013

मुसलमानों के सवालों का राजनीतिक एजेंडा तैयार कर रहा है रिहाई मंच का आंदोलन

अनुज शुक्ला लखनऊ विधानसभा धरना स्थल पर ख़ालिद मुजाहिद की कथित हत्या प्रकरण के बहाने “रिहाई मंच” के अनियतकालीन धरने में इंडियन नेशनल लीग के बुजुर्गवार मो. सुलेमान जब तकरीर देते हैं उस वक्त उनके चेहरे की तल्खियाँ और आंखों की चमक, आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश की अलग सियासत की झलक साफ दिखाती हैं। कहने में आश्चर्य नहीं कि मो. सुलेमान की तरह पक्ष/विपक्ष के कई लोग इस आंदोलन की ताप को महसूस कर रहे हैं। निश्चित ही इस आंदोलन से ख़ासे नाराज मियां मुलायम सिंह यादव भी असहज होते होंगे, तभी तो समय-समय पर वे सफाई देने और उलझाऊ उपचार लेकर सामने आते रहते हैं। यह धरना स्थल यूपी की राजधानी लखनऊ के दारुलशफ़ा में है। दारुलशफा का मतलब होता है “ऐसी जगह जहाँ समूची दुनिया को राहत मिलती हो”। ये बात दीगर है कि यहाँ की हलचलें ठीक इसके उलट हैं। “ये उत्तर प्रदेश की वो जगह मालूम होती है जहाँ पूरी दुनिया न सही लेकिन कम से कम यूपी के लोग तो कतई राहत महसूस करते नहीं दिखते हैं”। यहां विधायक निवास से होते हुए जब विधान सभा धरना स्थल की ओर आगे बढ़ते हैं तो सड़क के किनारे स्थित विधायक निवास की बेसमेंट में कतारबद्ध धोबियों की दुकानें दिखती हैं हालांकि यहां अवशेष के रूप में टंगी पुरानी तख्तियों से मालूम होता है कि इनका निर्माण, माननीय विधायकों के वाहन खड़े करने के लिए किया गया था, ये बात दूसरी है कि इन गैराजों को वैध/अवैध तरीकों से यहाँ, खादी के कारोबार को चमकाने वाले धोबियों में आवंटित (!) कर दिया गया है जबकि विधायकों के वाहन अनियमित तरीके से यूपी की विराट सड़क संस्कृति से मेल खाती हुई मुख्य/लिंक मार्गों पर खड़ी मिल जाती हैं। इस भूगोल को पार कर बस कुछ आगे बढ़ने पर लिंक सड़क के दोनों किनारों पर हाथ में तख्तियाँ लिए हर जाति, धर्म, लिंग, रंग और व्यवसाय के हुजूम में हमारा इतिहास दिखता है। इनके चेहरों पर टँगे रोष और मायूसी देख मालूम पड़ता है कि “शायद यह पूरी दुनिया की वो जगह है, जहाँ किसी को राहत नहीं है”। सभ्य राजधानी के इसी टुकड़े पर गत 90 दिनों से ऊपर रिहाई मंच का धरना चल रहा है। वह धरना फिलहाल जिसके ख़त्म होने की साफ-साफ वजह अभी मालूम नहीं हो पाई है। सबसे अहम बात कि हाल-फिलहाल यह धरना उसके आयोजकों की दिनचर्या का सबसे जरूरी हिस्सा बन चुका है। यकीनन ये ऐतिहासिक धरना है, सिर्फ इसलिए नहीं कि ’14 साल की उम्र का एक अपढ़ और गंवार सा दिखाने वाला मो. फैज अब माइक पकड़कर राजनाथ सिंह और मायावती से अच्छी तकरीर देने लगा है बल्कि यह धरना इस रूप में ऐतिहासिक हो गया कि वर्तमान में यूपी के तीसरे मोर्चे की सियासत का प्रगतिशील-वैचारिक-सैद्धांतिकी का ध्रुव बनता जा रहा है। इस आंदोलन को यूपी में मुस्लिम सियासत के भीतर की सुनामी के तौर पर भी लिया जा सकता है। ऐसा पहली बार हो रहा है कि मुसलमानों की राजनीति के अहम पड़ाव पर हमेशा महत्त्वपूर्ण रहने वाले मौलाना/उलेमा हाशिए पर धकेल दिए गए हैं। गत जुलाई 17 को ख़ालिद मुजाहिद की मौत के कारण उठा विरोध का यह गुबार नई प्रगतिशील चेतना से लैस मुस्लिम सियासत का एक विशेष अध्याय रचने जा रहा है। दो दर्जन से अधिक संगठनों के रिहाई मंच के संयोजक एड. मो. शुएब कहते हैं कि “अब मुसलमानों को कोई उलेमा सिर्फ अपनी दाढ़ी-टोपी से उल्लू नहीं बना सकता। देर से ही सही कम से कम आतंकवाद के नाम पर उत्पीड़न के बहाने आम मुसलमान अपने लोकतान्त्रिक अधिकारों को लेकर सजग हो रहा है”, शुएब दावे से कहते हैं कि “यूपी के मुसलमानों का रास्ता, अब सत्ता लोलुप दलाल पार्टियों के उलेमाओं की बजाय आतंक के नाम पर कैद निर्दोषों की लड़ाई लड़ने वाली मंच और उसकी राजनीतिक एजेंडा तय करेगी”। रिहाई मंच के इस सैद्धांतिक धरने ने मुलायम की दिल्ली कूच की रफ्तार पर ख़ासा असर डाल दिया है। मंच का एजेंडा, वर्तमान में संभावित तीसरे मोर्चे के केंद्र और मुलायम के बीच एक बड़ा रोड़ा भी साबित हो सकती है। जो भी तीसरे मोर्चे के संभावित घटक या 2014 चुनाव में असरकारी हो सकते हैं उनमें से अधिकांश एक-एक कर अनियतकालीन धरने में शरीक हो रहे हैं और सपा की नीतियों पर प्रहार भी कर रहे हैं। इस फेहरिस्त में इंडियन जस्टिस पार्टी जैसे दलों से लेकर भाकपा (माले) और माकपा जैसी महत्त्वपूर्ण राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं। कई चिंतकों, बुद्धिजीवियों और रंगकर्मियों का बहुत दिनों से यह अड्डा तो बना ही हुआ है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ऐसी कौन सी बात है जो कई पूर्वाग्रहों से परे जाकर इस आंदोलन की ओर सबको आकर्षित कर रही है? यहां धरने में शामिल हुए माकपा महासचिव प्रकाश करात अपने भाषण में कहते हैं “यह सरकार बहुत ढीठ हैं। छह महीने पहले हम निर्दोष छूटे मुसलामानों के पुनर्वसन और मुआवजे को लेकर मुख्यमंत्री से मिले थे, इस मुद्दे पर राष्ट्रपति से भी मुलाक़ात की लेकिन निर्दोषों के सवाल पर दिल्ली और लखनऊ की सरकारों का रवैया एक जैसा है। वे ईमानदार नहीं हैं”। ख़ालिद प्रकरण के बाद रिहाई मंच के प्रगतिशील-वैचारिक राजनीति का एजेंडा कई चीजों को साफ करता है। मुस्लिम सियासत करने वाली कथित सेकुलर पार्टियों के चेहरे बेनकाब होने के बाद अब यूपी में मुसलमानों का रुख बदला-बदला सा है। निश्चित ही ख़ालिद प्रकरण के बाद रिहाई मंच के एजेंडा को काफी राजनीतिक बल मिला है। प्रदेश भर में मुसलमानों के सवाल को लेकर जो नई तस्वीर उभर रही है उसमें यह दिलचस्प है कि मुसलमानों की नाराजगी का निशाना बनी सपा सरकार को बचाने कोई सपाई मुस्लिम ओहदेदार अबतक खुलकर सामने आया हो! मजबूरी में मुलायम सिंह मुसलमानों को बहलाने के लिए अबू आसिम जैसे नेताओं को दूसरे प्रदेशों से आयात करते हैं, मुआवजे की झड़ियां लगाते हैं और आयातित चेहरों के जरिए मुसलमानों से जुड़ी “डेमेज कंट्रोल” की सियासत को हवा देकर मंच के आंदोलन की कमर तोड़ने का प्रयास करते हैं। वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया कहते हैं कि “पूंजी पर टिकी बुर्जुआ समाजवादी राजनीति का यही मूल चरित्र है। राजनीतिक रूप से जब किसी मुद्दे पर जन-उभार होता है तो आक्रोश को दबाने के लिए सत्ता इन शातिराना टूलों का राजनीतिक इस्तेमाल करती है। भागलपुर दंगों के बाद राजनीतिक जन-उभार को इसी तरह दिशाभ्रमित किया गया। मुआवजा, राहत पैकेज और मत्स्य न्यायी एजेंडा को आगे रखकर कमोबेश गोधरा के बाद गुजरात में भी इसी तरीके व्यापक जन-उभार की राजनीतिक सोच को कुचला गया”। चमड़िया कहते हैं “इस बार ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा है, पीड़ितों ने मुआवजा लेने से साफ मना कर दिया है। अब सवाल उठता है कि आखिर ख़ालिद मुजाहिद या निर्दोष मुसलामानों के उत्पीड़न के सवाल के बहाने रिहाई मंच चाहती क्या है? इस पर मंच के प्रवक्ताओं; राजीव यादव और शाहनवाज़ आलम साफ करते हैं कि “हम कोई सिविल सोसाइटी नहीं हैं और अब चीजें सिर्फ ख़ालिद मुजाहिद या निर्दोष मुसलामानों की रिहाई भर से नहीं जुड़ी हैं बल्कि मंच अब मुसलमानों के व्यापक सवालों पर राजनीतिक एजेंडा तैयार कर रहा है। हम न सिर्फ मुस्लिम सियासत बल्कि यहां की राजनीति की सोशल इंजीनियरिंग की धारा मोड़ रहे हैं।“ भाकपा (माले) महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य के शब्दों में “निश्चित ही आने वाली पीढ़ियाँ हमेशा इस आंदोलन से प्रेरणा लेंगी, भारतीय लोकतंत्र की जड़ों की मजबूती के लिए इस आंदोलन का फैलाव बहुत जरूरी है। आखिर क्यों लोकतंत्र में छद्म धर्मनिरपेक्षता का कारोबार करने वालों को बर्दास्त किया जाए? दीपांकर और मंच के प्रवक्ता शायद सही हैं, यह बात राजनीतिक रूप से अप्रशिक्षित और अपढ़, 15 वर्षीय मो. फैज की तकरीर को सुनकर पता चलता है। यह आम मुसलमानों की आने वाली पीढ़ी का वह प्रतिनिधि है जो बाबरी, गोधरा को भूला तो नहीं है लेकिन उससे बहुत आगे की बात करता है। इस अपढ़ नाबालिग किशोर को मोटे तौर पर सच्चर कमेटी और रंगनाथ कमेटी की सिफारिशें कुरान की आयतों की तरह याद हैं और इसे यह भी याद है कि यूपी में चुनाव पूर्व सपा ने मुसलमानों से क्या वादे किए थे? सबसे अहम बात कि फैज अगर जिंदा रहा तो अगले यूपी विधानसभा चुनाव में एक निर्णायक मतदाता के रूप में हिस्सा भी लेगा।