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Thursday 25 December 2014

#UGLY के जरिए #ANURAG KASHYAP ने रचा शानदार सिनेमा

अनुज शुक्ला। अनुराग कश्यप निर्देशित ‘अगली’ महानगरी विस्तार में उपजी मध्यवर्गीय परिवारों की अपनी विडंबना है। यह एक ऐसा सच है जिसमें रिश्तों का बिखरना है उससे उपजे नए मूल्यों की देन - एक नए तरह का प्रतिशोध और आत्मउत्पीड़न है, बिल्कुल चुपचाप। इसका खामियाजा भुगतना पड़ा ‘कली’ नाम की एक बच्ची को। हमारे यहां नए बनते महानगर का यही सच है, विकास की आपाधापी में व्यस्त। पता नहीं महानगरों में ऐसे ही कितने परिवार और लोग बिखर रहे हैं। फिल्म की कहानी कुछ यूं है -एक स्ट्रगलर एक्टर राहुल कपूर अपनी बेटी को घुमाने के लिए उसे पूर्व पत्नी के घर से बाहर लेकर जाता है। इसबीच वह एक स्क्रिप्ट सुनने के लिए कार में ही अपनी बेटी कली को छोड़कर दोस्त चैतन्य के घर चला जाता है, और उसका इंतज़ार करने लगता है। जब उसका दोस्त वहां पहुंचता है तो वह राहुल कपूर को बताता है कि कार में कली है ही नहीं। कली, शालिनी और उसके पूर्व पति राहुल की बेटी है। शालिनी ने राहुल से तलाक ले लिया है और अब पुलिस चीफ शौमिक बोस की पत्नी है। शालिनी और शौमिक के रिश्तों में अजीब तरह की अनबन है। कली के गायब होने से शुरू हुई फिल्म में कली ढूढ़ते रहने के दौरान राहुल, शौमिक बोस, शालिनी, चैतन्य, जाधव, सिद्धांत से जुड़ी तमाम सिलसिलेवार घटनाएं हैं। महानगर के इन सब चरित्रों के अपने रंग हैं, जो एक-दूजे से दूर होकर भी गुत्थम-गुत्था हैं। फिल्म के बीच-बीच में फ्लैशबैक भी है, यह फिल्म में नजर आ रहे कई चरित्रों की जटिलता को समझाने में मदद करते हुए कहानी को ज्यादा विस्तारित करती हैं। यह पूरी तरह चुस्त फिल्म है, जो गंभीरता के बावजूद अंत तक दिलचस्पी बनाए रखती है। अंत में गायब कली मिलती जरूर है लेकिन यूं उसके मिलने का अब कोई अर्थ ही नहीं बचता। बचता है तो अजीब तरह का सन्नाटा और खामोशी ही जिसे इस फिल्म को देखते हुए ही समझा जा सकता है। दरअसल अगली की कहानी एक ऐसे समाज की कहानी है, जहां कई तरह की शिकवा-शिकायतें हैं, बेवफाई है, बदला है। एक-दूसरे के प्रति केयरनेस और वफादारी भी है, लेकिन यह अलग तरह का है, बिल्कुल अपारंपरिक। यही बात इसे अपने समय से थोड़ा आगे लेकर जाती है। हमारी फिल्म इंडस्ट्री का स्वरूप जिस तरह का है, उसमें सिनेमा के माध्यम से ‘अगली’ जैसी कहानी को कहने का साहस बहुत कम ही लोग करते हैं। जैसा पहले बताया गया कि इस फिल्म का बजट बहुत मामूली (जो करीब 4.5 करोड़ रुपए) है, उसने अनुराग को यह आजादी दी कि वे टिकट खिड़की की परवाह किए बिना अपने मन की हमारे नए महानगरी समाज की मौजूदा आपबीती कह सके। बहरहाल, पूरी फिल्म देखने के बाद आप खुद से यह सवाल कर सकते हैं कि सही मायने में कली का अपराधी कौन है? कली का बाप राहुल, या सौतेला बाप शौमिक बोस, उसकी मां शालिनी या फिर बैलून बेचता फेरीवाला या हमारा सिस्टम (पुलिस)। वैसे किसी एक को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता, अगर इसके लिए किसी एक को जिम्मेदार माना जाता है तो वह सही सच्चाई (शायद जिससे प्रेरित होकर अनुराग ने इसे रचा) को नकारना भी हो सकता है। कह सकते हैं कि यहां अपराधी नए मूल्यों से उपजी विडंबनाएं हैं। किसी समय की जटिलता को फिल्माना बहुत मुश्किल काम है। इस लिहाज से देखें तो अनुराग ने अगली के जरिए कमाल का काम कर दिया है। वासेपुर की बात करें तो अगली की तुलना में उसे फिल्माना ज्यादा आसान था। अगली में समाज की नई जटिलताएं है जिसे हू-ब-हू फिल्मा लिया है अनुराग ने। फिल्म में एक दो जगह सब बेहतरीन होने के बावजूद कुछ खटकता भी है। वह है कली के गायब हो जाने के बाद एफआईआर करवाने के दौरान का दृश्य। इसमें कोई शक नहीं कि यह दृश्य कमाल का है बावजूद इसका कुछ लंबा हो जाना बाद में थोड़ा नाटकीय जैसा दिखने लगता है। फिल्म के सभी कलाकारों का अभिनय बेहतरीन है। खासकर राहुल भट्ट और विनीत कुमार सिंह का। दोनों इस फिल्म में कमाल के अभिनय के लिए याद किया जाएंगे। हालांकि जीवंत अभिनय रोनित रॉय ने भी किया है, लेकिन उनका चरित्र कुछ यूं रच दिया गया मानो वह उनकी पहले की फिल्म ‘उड़ान’ का ही एक्सटेंशन हो। पता नहीं क्यों, लेकिन ऐसा लगता है कि उनके चरित्र में कुछ और रंग होने चाहिए थे। ऐसा होने पर फिल्म में और डेफ्थ होती। हो सकता है यह रोनित के चरित्र को समझने में मेरी अपनी नासमझी भी हो लेकिन बहुत ज्यादा शेड नहीं होने से फिल्म में उनका चरित्र थोड़ा कन्फ्यूजन पैदा करता है। वैसे बहुत गहराई तेजस्विनी कोल्हापुरे के रोल में भी नहीं है, लेकिन जितना है, बेहतर ही किया उन्होंने। बाकी अन्य कलाकारों ने भी पूरी शिद्दत से अपने हिस्से के चरित्र जो जिया है। इसकी लिए उनकी तारीफ़ की जानी चाहिए। कुल मिलाकर अगर फिल्म से एक दो चीजों को निकाल दिया जाए तो अगली एक जबर्दस्त फिल्म है, इसे सिर्फ अनुराग ही बना सकते हैं।

Tuesday 4 November 2014

फितरत बाजी नहीं तो बचपन क्या, कमाल की है यह फिल्म

अनुज शुक्ला. गट्टू जो है ये अपना, कई मामलों में 'साहेब' से भी आगे आला दर्जे का उस्ताद है. गट्टू की उम्र अभी बहुत नाजुक है और दुर्भाग्य से वह एक फ़िल्मी चरित्र है, नहीं तो उसमें नेतृत्व की जन्मजात महान संभावनाओं का हमारे लोकतंत्र में बेहतर इस्तेमाल हो जाता. दरअसल 'गट्टू'
साल 2012 में रिलीज हुई एक फिल्म है. पिछले दिनों मित्र अल्केश ने यह फिल्म दी. करीब अस्सी मिनट लम्बी इस फिल्म को राजन खोसा ने निर्देशित किया है. एक शानदार फिल्म रुड़की की कहानी है जिसका केन्द्रीय पात्र गट्टू नाम का पैर से विकलांग बच्चा है. इस नौ साल के बच्चे का किरदार मास्टर मोहम्मद समद ने निभाया है. गट्टू की उम्र तो बहुत छोटी है लेकिन अपना काम निकालने के लिए यह शरारती बच्चा बड़े-बड़े लोगों को भी उल्लू बनाने में सक्षम है. इस फिल्म को देखकर कह सकते हैं कि वाकई अगर फितरतबाजी नहीं है तो फिर बचपन का क्या मतलब. कबाड़ की दुकान पर काम करने वाले इस बच्चे को पतंगे उड़ाने का शौक है. वह पैसे चुराकर अपने इस शौक को पूरा करता है. हालांकि हर बार उसकी पतंग एक काली पतंग से कट जाती है. पूरे रुड़की के पतंगबाजों में इस काली पतंग का खौफ है. गट्टू तय करता है कि वही एक दिन इस काली पतंग को काटेगा. हालांकि उसे ऐसा करने के लिए उंचाई की जरूरत है और पर्याप्त उंचाई उसके मोहल्ले के करीब के सरकारी स्कूल की छत से ही मिल सकती है. उसके इरादे साफ़ है वह चोरी से एक ड्रेस जुगाड़ स्कूल में पहुंच जाता है. यहाँ उसे दो तीन मित्र भी मिलते हैं. कुछ दिन स्कूल आने-जाने में वह स्कूल को अच्छी तरह समझ लेता है. अब दिक्कत यह है कि वह स्कूल की छत से पतंग कैसे उड़ाए? क्योंकि छत से प्रिंसिपल का पोता गिरकर मर चुका था इसलिए उसे बंद कर दिया गया है. इस बीच स्कूल में जो गट्टू के मित्र बने हैं वे किताबों की चोरी के मामले को लेकर गट्टू को धमकानेलगते हैं. लेकिन संभावनाओं से ओत-प्रोत गट्टू उन बच्चों को यकीन दिलाता है कि स्कूल पर आतंकवादी हमले की साजिश हो रही है और वह एक जासूस है जो इसे नाकाम करने के लिए मिशन के तहत स्कूल आया हुआ है. आतंकवादियों के हमले को रोकने के लिए उसे अपने अधिकारियों को संकेत देना पड़ेगा, संकेत के लिए आसमान में पतंग उड़ाना पड़ेगा. ऐसा करने के लिए स्कूल की छत पर जाना पड़ेगा. गट्टू स्कूल की छत पहुंचता है, जाहिर सी बात है कमाल की प्रतिभा के धनी गट्टू अपने मंसूबे में कामयाब भी हो जाता है. अरे भाई काली पतंग कट जाती है. गट्टू की पोल भी खुलती है. गट्टू अपना काम कर निकल जाता है लेकिन उसके दोस्त पकड़े जाते हैं. दोस्तों को लेकर गट्टू को अपनी गलती का यकीन होता है और चीजों को ठीक करने स्कूल लौटता है. आमतौर पर जैसा फिल्मों में होता है वैसे ही प्रिंसिपल उससे प्रभावित होते हैं और गट्टू के स्कूल में दाखिले के साथ कहानी का सुखद अंत होता है. कई फिल्म समारोहों में सराही गई यह फिल्म का निर्माण चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी ने किया है. अगर इस फिल्म को नहीं देखा है तो एक बार जरूर देखना चाहिए. बहरहाल, फिल्म देखने के बाद अब मैं यही सोच रहा हूँ कि गट्टू अगर असल चरित्र होता तो...

Tuesday 7 January 2014

नरेन्द्रभाई सच सिर्फ यह है कि सच, साबित नहीं किया जा सका है

- अनुज शुक्ला 2002 में गुजरात के राज्य प्रायोजित हिंसा के दौरान गुलबर्ग सोसाइटी के 69 मृतकों के परिजनों को त्रासदीपूर्ण 11 साल का लंबा समय न्याय के लिए गुजारना पड़ा। इस बीच पीड़ितों ने कई उतार-चढ़ाव का सामना भी किया बावजूद एसआईटी रिपोर्ट की बिना पर 2013 के आखिर में आए अहमदाबाद अदालत के एक फैसले से फिर उनके हिस्से सिर्फ सिसकन और आँसुओं के सैलाब के अलावा कुछ विशेष नहीं आया। देखा जाए तो इस फैसले ने पीड़ितों के 11 साल पुराने जख्म को फिर से हरा कर दिया। उधर, गुजरात की तत्कालीन महा पीड़ा के अहम केंद्र रहे राज्य के मुख्यमंत्री और आजकल सद्भावना दूत की तरह पेश आने वाले नरेन्द्रभाई मोदी द्वारा फैसले के बाद दी गई सफाई काबिले गौर है। फैसले को लेकर पहले ही यह कयास लगाया जा रहा था कि आने वाले दिनों में इसका राजनीतिक इस्तेमाल होगा। एक आकलन यह भी था कि अगर फैसला नरेन्द्रभाई मोदी के विपरीत जाता है तो इस बहाने उनकी कथित “धर्म रक्षक” छवि को राजनीतिक रूप से भुनाया जाएगा। दूसरी ओर फैसला पक्ष में आने पर तय था फासीवादी टीम नरेन्द्रभाई को सद्भावी पोस्टर ब्याव के रूप में प्रतिष्ठित करेगी। बहरहाल, इस क्रम में जाकिया जाफरी की याचिका को ख़ारिज कर राज्य के सांप्रदायिक दंगों में मोदी की भूमिका के मद्देनजर “मोदीनुकूल” फैसले के बाद नरेद्रमोदी ने “सत्यमेव जयते” का ट्वीट कर अपनी भावनाएं व्यक्त की। जैसा कि पूर्वानुमान था, प्रचार के मामले में नाजी गोएबल्स को पीछे छोड़ने वाले नरेन्द्रभाई ने अपने ब्लॉग पर एक भावोत्तेजक टिप्पणी के माध्यम से 11 वर्षों के दौरान पहली मर्तबा गुजरात के नरसंहारों पर सार्वजनिक रूप से कोई टिप्पणी व्यक्त की। नरेन्द्रभाई ने अपने ब्लॉग में कहा कि फैसलों से उनके ऊपर लगे आरोपों की सच्चाई सामने आ गई है। उनके मन को अब शांति मिली। हालांकि मौजूदा फैसले को लेकर कोई विपरीत टिप्पणी, अदालत की अवमानना का विषय हो सकती है बावजूद 2002 के गुजरात नरसंहार को लेकर नरेन्द्रभाई मोदी के मौजूदा सफाइनामे को सच नहीं माना जा सकता। तथ्यात्मक सच यह भी है कि किसी अदालत का फैसला हमेशा उपलब्ध साक्ष्यों, सबूतों और तमाम विधिक सीमाओं में आबद्ध रहता है। इसके विपरीत फैसले के बाद वर्तमान में नरेन्द्रभाई मोदी जिस रूप में गुजरात को लेकर सच सामने रख रहे हैं उसका रंग इतना गहरा नहीं है कि तत्कालीन गुजरात के काले अध्यायों का रंग फीका मान लिया जाए। अगर अदालत ने अपनी परिधि के मद्देनजर नरेन्द्रभाई मोदी को बरी किया तो इसका मतलब यह कतई नहीं कि गुजरात मामलों में उनके दामन पूरी तरह से साफ ही मान लिए जाएंगे। गुजरात की प्रशासनिक मशीनरी द्वारा पिछले 11 सालों में अल्पसंख्यकों को लेकर किए गए भेदभाव को नहीं भुलाया जा सकता। राज्य भर में हिंसा पीड़ितों के पुनर्वास और बुनियादी जरूरतों के सैकड़ों मामले प्रशासनिक घृणा के कारण अभी तक लंबित पड़े हैं। ये राज्य मशीनरी के अवैध घृणा का ही असर है कि आज भी राज्य की एक बड़ी अल्पसंख्यक आबादी डर के साये में जिंदगी गुजर करती है। हो भी क्यों न कुछ दिन पहले तक मोदी अपने हर दूसरे भाषण में पाकिस्तान की आलोचना के बहाने अपरोक्ष तरीके से मुसलमानों को धमकियाँ देकर डराते रहे हैं। हालांकि इसे हम भी दर्ज करते हैं कि प्रधानमंत्री बनने के बहाने गुजरात सद्भावना यात्रा के साथ मोदी के इस रुख में थोड़ा परिवर्तन जरूर हुआ है। लेकिन गुजरात के पूरे मामले का महा सच यह है कि 2002 के दौरान गुजरात में जो प्रायोजित नरसंहार हुए उसकी प्रमुख वजह में घृणित शोच पर टिकी एक मशीनरी के हत्यारे मंसूबे ही थे! अगर ऐसा नहीं था तो नरेन्द्रभाई मोदी की पार्टी के ही तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने आखिर उन्हें किस बात पर राज धर्म निभाने की नसीहत दी थी? आखिर क्यों तत्कालीन केंद्रीय सरकार का नेतृत्व करने वाली उन्हीं की पार्टी का एक धड़ा नरेन्द्रभाई मोदी की सरकार को जघन्यतम हिंसा के कारण बर्खास्त करने पर आमादा था। गौरतलब है कि जिस गुलबर्ग सोसाइटी के इतिहास में कभी सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए, यहाँ तक कि छ दिसंबर 92 के बाद उपजे देशव्यापी हिंसा से भी गुलबर्ग सोसाइटी पूरी तरह महफूज था; उस गुलबर्ग सोसाइटी में 2002 में किए गए सामूहिक कत्लेआम मोदी सरकार को कठघरे में रखने के लिए पर्याप्त हैं। गुजरात के त्रासदपूर्ण माहौल का गवाह रहा समय, राज्य की वीभत्स हिंसा को लेकर कैसे मोदी के मौजूदा सफाइनामे को सही मान ले? गुजरात हिंसा की दूसरी हकीकत यह भी है कि अधिकांश पीड़ितों को अभी तक वांछित मुआवजा तक नहीं मिला है। न सिर्फ गुलबर्ग सोसाइटी बल्कि गुजरात के कई दूसरे इलाक़े जो 2002 की सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में रहे, राज्य सरकार की भेदभाव नीति के कारण वांछित मुआवजे और दूसरी सरकारी सहूलियतों से वंचित हैं। साफ है कि अगर वाकई 2002 में मोदी सरकार की नियति साफ थी तो आखिर 11 वर्षों में राज्य मशीनरी का अमला क्यों नहीं पीड़ितों के पास पहुँचा? एक मिनट के लिए मान भी लिया जाए कि गुजरात में तमाम जानें जानें अप्रायोजित दुर्घटना का शिकार ही हो गईं थीं लेकिन उस पर सफाई देने के लिए नरेन्द्रभाई मोदी ने आखिर क्यों 11 वर्षों का लंबा समय लिया? दरअसल सरकार अगर ईमानदार होती तो ज्यादा से ज्यादा जानों को बचाया जा सकता था। लेकिन उस वक्त जान बूझकर ऐसा नहीं किया गया। जैसा कि इस मामले में पक्षकार सांसद एहसान जाफरी की बेवा जाकिया जाफरी ने अदालत के सामने साबित करने का प्रयास भी किया कि उनके पति ने कई बार प्रशासनिक अमले से गुलबर्ग सोसाइटी में पनाह लिए दर्जनों बेबस जानों को बचाने की गुहार लगाई थी। नरेन्द्रभाई 11 साल बाद आपका रूदन व्यर्थ है। सच यही है कि राज्य की सांप्रदायिक हिंसा में आपकी भूमिका को लेकर सिर्फ सच, साबित नहीं किया जा सका है। नरेन्द्रभाई वैसे भी सच के पाँव नहीं होते हैं, जो चलें और सामने आकर बता दें कि अमुख सच है बाकी सब फरेब।

Friday 3 January 2014

छवि बदलने को परेशान मुलायम

- अनुज शुक्ला मुजफ्फरनगर में राहत कैंपों में रह रहे दंगा पीड़ितों को लेकर नेताजी मुलायम सिंह यादव ने जो बयान दिया है वैसा बयान वे आमतौर पर नहीं देते हैं। बता दें कि हाल ही में राहुल गांधी द्वारा मुजफ्फरनगर के राहत कैंपों का दौरा करने व पीड़ितों के तमाम सवाल उठाने के बाद फौरी प्रतिक्रिया में नेताजी ने दावा कर दिया कि राहत कैंपों में एक भी दंगा पीड़ित नहीं रह रहा है। उनका मानना है कि वहाँ रह रहे लोग भाजपा और कांग्रेस के कार्यकर्ता हैं जो बिना वजह मामले को जिंदा रखना चाहते हैं। नेताजी का मानना है कि उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार को बदनाम करने की साजिश के कारण ऐसा किया जा रहा है। राजनीति पर नजर रखे जानकारों के मुताबिक मुजफ्फरनगर सहित राज्य भर में एक पर एक हुए सांप्रदायिक हिंसाओं के चलते आलोचनाओं की जद में आई यूपी सरकार की भूमिका को लेकर राहुल गांधी के हालिया कदम के कारण सपा मुखिया का उक्त बयान, झुंझलाहट में दिया गया बयान है। लेकिन क्या वाकई यह झुंझलाहट में दिया गया बयान भर माना जाए या इसके दूसरे राजनीतिक मायने भी निकलते हैं। दरअसल उत्तर प्रदेश की जो नई सियासी तस्वीर सामने आ रही है उसमें नेताजी के मौजूदा बयान के दूसरे अभिप्राय भी निकलते हैं। इसे यूपी की नई राजनीति में लोकप्रिय हो रहे नर्म हिंदुत्व की सियासत के साथ जोड़कर भी देखा जा सकता हैं। मुसलमानों को लेकर नेताजी की जो छवि बनी है वे उसे बदलने की कोशिश कर रहे हैं। इस क्रम में पहले कारसेवकों पर गोली चलवाने के आदेश पर माफी माँग लेने के बाद की कड़ी में नेताजी के उक्त बयान को लिया जा सकता है। दरअसल, 2014 को लेकर नरेन्द्रभाई मोदी के अभियान से यूपी के सियासी हालात बहुत दिलचस्प हुए हैं। उधर, कभी-कभार उठने वाली तीसरे मोर्चे की चर्चाओं में अक्सर मुलायम सिंह यादव का नाम भी प्रधानमंत्री के रूप में सामने आ जाता है। यूपी में राजनीतिक टकराव की जो तस्वीर बन रही है उसमें 14 के मुकाबले के लिए नरेंद्रभाई मोदी और मुलायम सिंह में एक अपरोक्ष मुक़ाबला भी देखा जा रहा है। खास बात यह है कि दोनों के बीच राजनीतिक संघर्ष का केंद्र पिछड़े मत ही हैं। यह अनायाश नहीं है कि प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा की ओर से मोदी की उम्मीदवारी तय होने के बाद देशभर में हिंदुत्व के फायर ब्रांड नेता के तौर पर स्थापित उनकी छवि को अचानक बदलकर चाय बेचने वाला या पिछड़ी जाति के नेता के तौर पर स्थापित किया जा रहा है। इसमें कुछ अराजक बुद्धिजीवी भी शामिल हैं जो नर्मदा बांध पर सरदार पटेल की प्रतिमा निर्माण के उदाहरण के बहाने मोदी को पिछड़ा नेता घोषित करने पर तुले हुए हैं। मोदी के अभियान में सबसे बड़ा रोड़ा यूपी है। यूपी में ज्यादा से ज्यादा सीटें हथियाने के लिए भाजपा को अपने परंपरागत वोट बैंक को मजबूत करने के साथ ही पिछड़ों के मतों में सेंध लगाना होगा। बहरहाल यूपी में अमित शाह की तैनाती के बाद मोदी को लेकर सवर्णों के बाद पिछड़ी जाति में भी एक हलचल तो जरूर हुई है। हाल ही में नरेन्द्रभाई मोदी के कारण यूपी के दर्जनभर सपा नेताओं ने पार्टी के संसदीय चुनाव के टिकट लौटा दिए। यूपी के पिछड़ों में “मोदी मीनिया” की जुजूप्सा को नेताजी के परेशानी का सबब माना जा सकता है। उधर, पिछले कुछ महीनों के दौरान राज्य में हुए दंगों के कारण जिस तरीके मुसलमान सपा से बिदका है, उस स्थिति में मुसलमानों द्वारा सपा के विकल्प के रूप में कांग्रेस या फिर बहुजन समाज पार्टी की ओर जाने की संभावनाएँ ज्यादा बढ़ी हैं। अगर 2014 के चुनाव को लेकर यूपी में ऐसा होता है तो निश्चित ही मुलायम सिंह 14 के संघर्ष में सबसे कमजोर मोहरे साबित होने वाले हैं। जाहिर है कि पिछड़ों में नरेंद्र मोदी को लेकर उठे नर्म हिंदुत्व के रुझान के कारण नेताजी भी इसे ट्रंफ के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं, ताकि अपनी इस नई छवि के साथ नेताजी पिछड़ों को पार्टी के साथ जोड़े रख सकें। उल्लेखनीय है कि सपा सरकार उन तमाम मुद्दों को जो सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील हैं, उन्हें उठाने से बच रही है। हालांकि विधानसभा के चुनाव में सपा सरकार ने बाक़ायदा इन्हें अपने घोषणापत्र में शामिल करते हुए सरकार बनते ही वादे पूरे करने का आश्वासन दिया था। सपा सरकार की वादा खिलाफी को लेकर राज्य के अल्पसंख्यक काफी बिदके हुए हैं बावजूद नर्म हिंदुत्व की मजबूरी के चलते सपा इससे अनजान बने रहना चाहती है। 14 से पहले के चुनाव तक सपा नहीं चाहेगी कि संवेदनशील मुद्दों को लेकर उसे घेरा जाए। खासकर तब जबकि इस बार नरेन्द्रभाई मोदी के रूप में भाजपा पिछड़ी और हिंदुत्व की राजनीतिक चाल चल रही है।

Thursday 2 January 2014

शिवसेना ने क्यों सामना में की मोदी की खिचाई!

- अनुज शुक्ला हाल ही में मुंबई में नरेंद्रभाई मोदी की सभा के बाद अप्रत्याशित ढंग से शिवसेना ने भाजपा के मौजूदा सर्वोच्च नेता की चुटकी लेकर राज्य के सियासी पारे को गर्म कर दिया। दरअसल मोदी की सभा के कुछ ही दिन बाद शिवसेना ने अपने मुखपत्र में मोदी के भाषण को निशाना बनाते हुए सलाह दे डाली कि वे महाराष्ट्र के विकास की चिंता न करें बल्कि अपना पूरा ध्यान गुजरात के विकास पर केंद्रित करे। सामना, जिसे महाराष्ट्र में शिवसेना का मुखपत्र माना जाता है उसमें छपे संपादकीय की राजनीतिक गलियारों में काफी चर्चा है। इसे अपरोक्ष रूप से शिवसेना द्वारा मोदी के नेतृत्व की अस्वीकारता के तौर पर लिया जा रहा है। बहरहाल, मोदी को लेकर सेना का मौजूदा रुख नई बात नहीं है। बल्कि सेना अक्सर किसी न किसी बहाने खुलकर मोदी की आलोचना से नहीं चूकती। पूर्व में भी जब भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी की उम्मीदवारी की चर्चाएँ शुरू हो रही थीं उस वक्त भी शिवसेना ने खुलकर मोदी की उम्मीदवारी का विरोध किया था। जब भाजपा में मोदी बनाम आडवाणी को लेकर घमासान मचा था उस वक्त शिवसेना ने लालकृष्ण आडवाणी का खुला समर्थन करते हुए भाजपा को सलाह दी थी कि अगर नेतृत्व बदलना ही है तो मोदी की तुलना में सुषमा स्वराज की उम्मीदवारी ज्यादा बेहतर साबित होगी। हालांकि तब भाजपा ने इसे पार्टी की आंतरिक राजनीति का विषय बताते हुए सेना को ऐसे किसी सलाह से बचने की हिदायत दी थी बावजूद समय-समय पर मोदी को लेकर सेना का कोई न कोई बयान मोदी की उम्मीदवारी पर सवाल खड़ा कर देता है। इस क्रम में सामना में मोदी के भाषण को लेकर छापी गई संपादकीय असंतोष की नई कड़ी है। अब सवाल उठता है कि भाजपा के सबसे पुराने और विश्वसनीय सहयोगी द्वारा ही आखिर उसके सर्वोच्च नेता को लेकर इस तरीके के विरोधाभाषी बयान क्यों आ रहे हैं? क्या यह भाजपा-सेना के अलगाव के रास्ते का एक विस्तार है या फिर गठबंधन में सहयोगी द्वारा दबाव बनाने की राजनीति का एक रूप? दरअसल अभी इसे दोनों दलों के बीच अलगाव का विस्तार मानना उचित नहीं होगा साथ ही इसे मात्र दबाव बनाने की राजनीति भी नहीं माना जा सकता। बल्कि इसे नरेंद्र मोदी और उद्धव ठाकरे की आपसी अदावत के तौर पर लेना ज्यादा वस्तुनिष्ठ होगा। वैसे भी इसकी जड़ों में ठाकरे परिवार की आपसी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की बड़ी भूमिका समाहित है। अगर शिवसेना का साल भर का ट्रैक रिकॉर्ड देखें तो पिछले वर्ष बाल ठाकरे के निधन के बाद शिवसेना लगातार अवनति की ओर है। इस बीच सेना में विरोध की सुगबुगाहटें भी बढ़ी है। उधर, हाल ही में बाल ठाकरे की समाधि के मसले को लेकर जयदेव ठाकरे के रूप में परिवार के तीसरे दावेदार ने शिवसेना को आड़ेहाथ लेते हुए संगठन बना राजनीति में उतरने की चेतावनी दे डाली। अपने राजनीतिक इतिहास में शिवसेना सबसे बुरे दौर का सामना कर रही है। उस पर मोदी का राज ठाकरे के प्रति झुकाव शिवसेना के लिए राजनीतिक चिंता का विषय है। हकीकत में मोदी को लेकर शिवसेना के असंतोष की मुख्य वजह राज ठाकरे ही हैं। राज ठाकरे कुछ ही सालों में अपनी आक्रामक राजनीति के कारण महाराष्ट्र की राजनीति के नए क्षत्रप के रूप में उभरे हैं। 2009 के मुकाबले 2014 में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की राजनीतिक ताकत में काफी इजाफा हुआ है। एक तरीके से देखें तो मनसे ने उन तमाम मुद्दों को हथिया लिया है जो कभी शिवसेना की प्राणवायु रही हैं। उधर, 14 के चुनाव के मद्देनजर राज्य में वोटों को लेकर जो सियासी गणित है उसके मुताबिक बिना राज ठाकरे को साथ लिए भाजपा राज्य में अपने अभियान को अंजाम तक नहीं पहुँचा सकती। भले ही वर्तमान में शिवसेना और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आठवले गुट) उसके सहयोगी हों बावजूद मनसे को साथ लिए बगैर, राज्य में कांग्रेस-राकांपा के मजबूत गठबंधन को हराना टेढ़ी खीर ही है। मोदी की कोशिशों में मनसे को साथ लेने की प्रक्रिया शुरू बताई जा रही है। हालांकि यह शिवसेना और रिपाई (आ.) के अड़ंगे के कारण अभी तक संभव नहीं हो पाया है। मोदी से राज ठाकरे की काफी नजदीकियाँ हैं। इन नज़दीकियों के सहारे ही भाजपा का एक धड़ा शिवसेना का साथ छोड़कर मनसे के साथ चुनाव लड़ने की नसीहत भी दे रहा है। राजनीतिक दृष्टि से यह स्थिति शिवसेना के लिए बहुत नुकसानदेह साबित होगी। उद्धव जानते हैं कि मोदी का नेतृत्व राज्य में उनके कट्टर प्रतिद्वंद्वी राज ठाकरे के लिए हर हाल में फायदा देगी। मानने में हर्ज नहीं कि राज के साथ मोदी की नजदीकियां ही उद्धव की राजनीतिक पीड़ा की मुख्य वजह हैं, जो गाहे-बगाहे उजागर हो जाया करतीं हैं।