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Tuesday 7 January 2014

नरेन्द्रभाई सच सिर्फ यह है कि सच, साबित नहीं किया जा सका है

- अनुज शुक्ला 2002 में गुजरात के राज्य प्रायोजित हिंसा के दौरान गुलबर्ग सोसाइटी के 69 मृतकों के परिजनों को त्रासदीपूर्ण 11 साल का लंबा समय न्याय के लिए गुजारना पड़ा। इस बीच पीड़ितों ने कई उतार-चढ़ाव का सामना भी किया बावजूद एसआईटी रिपोर्ट की बिना पर 2013 के आखिर में आए अहमदाबाद अदालत के एक फैसले से फिर उनके हिस्से सिर्फ सिसकन और आँसुओं के सैलाब के अलावा कुछ विशेष नहीं आया। देखा जाए तो इस फैसले ने पीड़ितों के 11 साल पुराने जख्म को फिर से हरा कर दिया। उधर, गुजरात की तत्कालीन महा पीड़ा के अहम केंद्र रहे राज्य के मुख्यमंत्री और आजकल सद्भावना दूत की तरह पेश आने वाले नरेन्द्रभाई मोदी द्वारा फैसले के बाद दी गई सफाई काबिले गौर है। फैसले को लेकर पहले ही यह कयास लगाया जा रहा था कि आने वाले दिनों में इसका राजनीतिक इस्तेमाल होगा। एक आकलन यह भी था कि अगर फैसला नरेन्द्रभाई मोदी के विपरीत जाता है तो इस बहाने उनकी कथित “धर्म रक्षक” छवि को राजनीतिक रूप से भुनाया जाएगा। दूसरी ओर फैसला पक्ष में आने पर तय था फासीवादी टीम नरेन्द्रभाई को सद्भावी पोस्टर ब्याव के रूप में प्रतिष्ठित करेगी। बहरहाल, इस क्रम में जाकिया जाफरी की याचिका को ख़ारिज कर राज्य के सांप्रदायिक दंगों में मोदी की भूमिका के मद्देनजर “मोदीनुकूल” फैसले के बाद नरेद्रमोदी ने “सत्यमेव जयते” का ट्वीट कर अपनी भावनाएं व्यक्त की। जैसा कि पूर्वानुमान था, प्रचार के मामले में नाजी गोएबल्स को पीछे छोड़ने वाले नरेन्द्रभाई ने अपने ब्लॉग पर एक भावोत्तेजक टिप्पणी के माध्यम से 11 वर्षों के दौरान पहली मर्तबा गुजरात के नरसंहारों पर सार्वजनिक रूप से कोई टिप्पणी व्यक्त की। नरेन्द्रभाई ने अपने ब्लॉग में कहा कि फैसलों से उनके ऊपर लगे आरोपों की सच्चाई सामने आ गई है। उनके मन को अब शांति मिली। हालांकि मौजूदा फैसले को लेकर कोई विपरीत टिप्पणी, अदालत की अवमानना का विषय हो सकती है बावजूद 2002 के गुजरात नरसंहार को लेकर नरेन्द्रभाई मोदी के मौजूदा सफाइनामे को सच नहीं माना जा सकता। तथ्यात्मक सच यह भी है कि किसी अदालत का फैसला हमेशा उपलब्ध साक्ष्यों, सबूतों और तमाम विधिक सीमाओं में आबद्ध रहता है। इसके विपरीत फैसले के बाद वर्तमान में नरेन्द्रभाई मोदी जिस रूप में गुजरात को लेकर सच सामने रख रहे हैं उसका रंग इतना गहरा नहीं है कि तत्कालीन गुजरात के काले अध्यायों का रंग फीका मान लिया जाए। अगर अदालत ने अपनी परिधि के मद्देनजर नरेन्द्रभाई मोदी को बरी किया तो इसका मतलब यह कतई नहीं कि गुजरात मामलों में उनके दामन पूरी तरह से साफ ही मान लिए जाएंगे। गुजरात की प्रशासनिक मशीनरी द्वारा पिछले 11 सालों में अल्पसंख्यकों को लेकर किए गए भेदभाव को नहीं भुलाया जा सकता। राज्य भर में हिंसा पीड़ितों के पुनर्वास और बुनियादी जरूरतों के सैकड़ों मामले प्रशासनिक घृणा के कारण अभी तक लंबित पड़े हैं। ये राज्य मशीनरी के अवैध घृणा का ही असर है कि आज भी राज्य की एक बड़ी अल्पसंख्यक आबादी डर के साये में जिंदगी गुजर करती है। हो भी क्यों न कुछ दिन पहले तक मोदी अपने हर दूसरे भाषण में पाकिस्तान की आलोचना के बहाने अपरोक्ष तरीके से मुसलमानों को धमकियाँ देकर डराते रहे हैं। हालांकि इसे हम भी दर्ज करते हैं कि प्रधानमंत्री बनने के बहाने गुजरात सद्भावना यात्रा के साथ मोदी के इस रुख में थोड़ा परिवर्तन जरूर हुआ है। लेकिन गुजरात के पूरे मामले का महा सच यह है कि 2002 के दौरान गुजरात में जो प्रायोजित नरसंहार हुए उसकी प्रमुख वजह में घृणित शोच पर टिकी एक मशीनरी के हत्यारे मंसूबे ही थे! अगर ऐसा नहीं था तो नरेन्द्रभाई मोदी की पार्टी के ही तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने आखिर उन्हें किस बात पर राज धर्म निभाने की नसीहत दी थी? आखिर क्यों तत्कालीन केंद्रीय सरकार का नेतृत्व करने वाली उन्हीं की पार्टी का एक धड़ा नरेन्द्रभाई मोदी की सरकार को जघन्यतम हिंसा के कारण बर्खास्त करने पर आमादा था। गौरतलब है कि जिस गुलबर्ग सोसाइटी के इतिहास में कभी सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए, यहाँ तक कि छ दिसंबर 92 के बाद उपजे देशव्यापी हिंसा से भी गुलबर्ग सोसाइटी पूरी तरह महफूज था; उस गुलबर्ग सोसाइटी में 2002 में किए गए सामूहिक कत्लेआम मोदी सरकार को कठघरे में रखने के लिए पर्याप्त हैं। गुजरात के त्रासदपूर्ण माहौल का गवाह रहा समय, राज्य की वीभत्स हिंसा को लेकर कैसे मोदी के मौजूदा सफाइनामे को सही मान ले? गुजरात हिंसा की दूसरी हकीकत यह भी है कि अधिकांश पीड़ितों को अभी तक वांछित मुआवजा तक नहीं मिला है। न सिर्फ गुलबर्ग सोसाइटी बल्कि गुजरात के कई दूसरे इलाक़े जो 2002 की सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में रहे, राज्य सरकार की भेदभाव नीति के कारण वांछित मुआवजे और दूसरी सरकारी सहूलियतों से वंचित हैं। साफ है कि अगर वाकई 2002 में मोदी सरकार की नियति साफ थी तो आखिर 11 वर्षों में राज्य मशीनरी का अमला क्यों नहीं पीड़ितों के पास पहुँचा? एक मिनट के लिए मान भी लिया जाए कि गुजरात में तमाम जानें जानें अप्रायोजित दुर्घटना का शिकार ही हो गईं थीं लेकिन उस पर सफाई देने के लिए नरेन्द्रभाई मोदी ने आखिर क्यों 11 वर्षों का लंबा समय लिया? दरअसल सरकार अगर ईमानदार होती तो ज्यादा से ज्यादा जानों को बचाया जा सकता था। लेकिन उस वक्त जान बूझकर ऐसा नहीं किया गया। जैसा कि इस मामले में पक्षकार सांसद एहसान जाफरी की बेवा जाकिया जाफरी ने अदालत के सामने साबित करने का प्रयास भी किया कि उनके पति ने कई बार प्रशासनिक अमले से गुलबर्ग सोसाइटी में पनाह लिए दर्जनों बेबस जानों को बचाने की गुहार लगाई थी। नरेन्द्रभाई 11 साल बाद आपका रूदन व्यर्थ है। सच यही है कि राज्य की सांप्रदायिक हिंसा में आपकी भूमिका को लेकर सिर्फ सच, साबित नहीं किया जा सका है। नरेन्द्रभाई वैसे भी सच के पाँव नहीं होते हैं, जो चलें और सामने आकर बता दें कि अमुख सच है बाकी सब फरेब।

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