पत्रकारिता में समय के साथ इसके कलेवर और चरित्र में बहुत हद तक परिवर्तन हुआ है, यह बहस का विषय हो सकता है कि पत्रकारिता का जो वर्तमान स्वरूप है क्या वह स्वस्थ पत्रकारिता है? भूमंडलीकरण में चिजें इतनी तेजी के साथ बदली कि कुछ समझने का मौका ही हाथ नहीं लगा सिवाय इसके की कभी न थमने वाली एक बहस कि शुरुआत हो गयीं . वैसे तो पत्रकारिता को लोकतंत्र का ’तथाकथित’ चौथा स्तम्भ कहा जाता है, गौर करने वाली बात है की यह कोई विधायी संस्था नही,पत्रकारिता ने अपने लिये कुछ स्वघोषित मानदंड तय किये, अपने ही द्वारा कुछ उद्देश्यो को गढा गया, शायद वह ’देश-काल’ की जरुरत थी जहां संस्थागत या पेशागत शर्तें अनिवार्य नही थी. सभी को ब्यष्टि लक्ष्यों कि चिन्ता थी. यह वह दौर था जब पत्रकार अपने लेखों मे सीधा-सीधा विरोध दर्ज नही करते थे, मसलन प्रतिको और बिम्बो के सहारे, हुकुमत के खिलाफ़ आवाज उठाते थे. चुँकी यह विषय इतना नया (भारत में) था की इसकी पहुंच समाज के एक खास तबके तक सिमित थी.
वैसे तो भारत में पत्रकारिता कि शुरूआत अंग्रेजों के संरक्षण में २९ जनवरी १७८० ई. को’हिकीज बंगाल गजट’ या ’कलकत्ता जनरल एडवर्टाइजर’ के रूप मे हुआ.बाद में ’इडिंयन गजट’ ’कलकत्ता जनरल’ और ’बंगाल गजट’ के रूप में अनेक पत्रो का प्रकाशन किया गया, ऐसे पत्र-पत्रिकाओं को अंग्रेजों का संरक्षण प्राप्त था. अधिकांश पत्रो का प्रकाशन ईसाई मिशनरियों के माध्यम से होता था,जिसका मूल उद्देश्य अंग्रेजी राज्य की महानता और देश कि गौरवशाली साझी तहजीब को नष्ट करना था,इन पत्रों की भाषा अंग्रेजी थी. तत्कालिन समाज के प्रमुख समाज सुधारक नेता’राजा राम मोहन राय’ को इन अखबारों का दृष्टिकोण खटकता था,उन्होनें अंग्रेजी सरकार से भारतीय पत्र निकालने की अनुनयशील मंशा जाहिर की जिसे अंग्रेजों ने खारिज कर दिया.’सर टामश मुनरो’ ने भारतीय अखबारों के प्रकाशन की स्वतंत्रता को,ब्रिटिश शासन के लिए खतरा माना था (भविष्य में ऐसा हुआ भी).अखबारों के प्रति अंग्रेजों का यह नजरिया सदैव बना रहा. भारत के स्वतंत्रता आदोंलन मे भारतीय भाषाओं के अखबारों की अहम भूमिका रही है,खासतौर से हिंदी और बांग्ला में निकलनें वालें पत्रों की.३० मइ १८२६ को कलकत्ता में ’युगल किशोर शुक्ल’ के सम्पादन में, जो अपने स्थापना के डेढ़ सालों मे ही बंद हो गया,एक ऐसी परम्परा को गढ़ने मे कामयाब हो चुका था, जिसनें भारत के आने वाले दिनों मे क्रान्ति को बढाने का काम किया.’१८६८ के कालखंड तक भारत मे हिंदीं के अनेक पत्र, जैसे-बनारस अखबार,प्रजा हितैषी,ग्यानदीप,बुद्धिप्रकाश,कविबचन सुधा जैसे दसों पत्र प्रकाशित होने लगें.इन तमाम अखबारों की पृष्ठभूमि ज्यादातर साहित्यिक या धार्मिक रही और यें अखबार अधिकांश दो भाषाओं मे प्रकाशित किये गयें. पुर्णरूपेण हिंदीं का पहला अखबार ’१८८५’ में कालाकांकर के राजा के संरक्षकत्व में ’हिंदोस्थान’ था.
अंग्रेजों ने भारतीय अखबारों के विकास में हमेशा बाधा उत्पन्न करने का प्रयाश किया.१८५७ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम(जिसे कुछ इतिहास कार रियासतों का बिद्रोह कहते है) मे, हिंदी और उर्दु में प्रकाशित ’पयाम-ए-आजादी’ को अंग्रेजों की प्रेस बिरोधी क्रूर नीतियों का सामना करना पड़ा.इसकी क्रन्तिकारी बिचारधारा से आजिज आकर अंग्रेजों ने,उन ब्यक्तियों को जिनके पास से इस अखबार की प्रतियाँ प्राप्त होतीं उन्हे गिरप्तार कर कठोर से कठोर सजा दी जाती.
धीरे-धीरे समय बदलता गया,पुरानें अखबारों का बंद होना और नये अखबारों का चालु होना जारी रहा. कालातर मे यंग इंडिया, हरीजन, केसरी, १९२० मे बनारस से प्रकाशित ’आज’, युगांतर(बरीन्द्र कुमार घोष के संपादकत्व मे क्रन्तिकारियों का पत्र)जैसी कुछ प्रमुख पत्रों ने अपनी तिखी शैली से भारतीयों को राजनैतिक एवं सामाजिक रूप से उद्वेलित किया.इनमे से कई अखबार ’१९१०’ के कठोर ’प्रेस-एक्ट’ का शिकार होकर बंद हो गये. युवाओं मे स्वातंत्र्य चेंतना का प्राद्रुभाव इन्ही पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से हुआ.