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Wednesday 24 March 2010

प्रभाष जोशी जी होते तो क्या करते?


विवेक मिश्र
1-लाल घेरे में दसवी का छात्र सिरपुरम यादेयाह
२-बांयी तरफ घेरे में कैमरामैन जिसने मौत के मंजर को दृश्य में कैद किया
(ये फोटो छात्र के आत्मदाह के पहले की है आप चाहे तो २१ फरवरी के उस दर्दनाक फोटो को किसी भी समाचारपत्र में देख सकते है )

ज़रा रुकिए !
हम आपको दिखाते है की किस तरह
तेलंगाना राज्य को अलग करने के मुद्दे पर एक छात्र ने किया आत्मदाह
और फिर खेल ,ड्रामा .इंटरटेनमेंट ,कला की सारी विधाए हो जाती हैं शुरू
और जब खास ऐसी घटना घटी हो,
न्यूज़ रूम में हो या शाम को पेज सेट करने वाले कथित बुद्धिजीवी दिमाग हो , सब जगह एक अजीब सी हलचल शुरू हो जाती है ,
अपने कला के जौहर को दिखाते हुए ये दिखा देते है की ये
मानवता की जलती तस्वीर हो या दम तोड़ते ,छटपटाते हुए दृश्यों का खेल ये उसे बखूबी सजा सकते है , जिसे दर्शक और पाठक देखकर या तो आह! भरते है या और ध्यान से देखने लगते है और कार्यक्रम के बाद मिली टी आर पी और बढ़ी हुई सर्कुलेशन , न्यूज़ रूम और न्यूज़ पेपरों का मकसद पूरा कर देती है जो इनका वास्तविक लक्ष्य हो गया है
21 फरवरी 2010 को सभी प्रिंट मीडिया के फ्रंट पेज पर
उस्मानिया विश्वविद्यालय में स्कूल के छात्र ने खुद को आग लगाई (जनसत्ता की हेडिंग )
यह हेडिंग जो मैंने ऊपर लिखा है उसी तरह की हेडिंग तमाम समाचार पत्रों में भी थी
एक अबोध छात्र सिरपुरम यादेयाह ने हैदराबाद में तेलंगाना के समर्थन में खुद को आग लगा लिया और पुलिस खड़ी मुंह ताकती रही मीडिया वालो ने एक हाई स्कूल के एक छात्र को जलते हुए तस्वीरों और दृश्यों में कैद किया जिसको जनसत्ता जैसे समाचार पत्र में एक दर्दनाक फोटो के साथ जगह मिली जिसकी आधारशिला एक ऐसे {पत्रकार प्रभाष जोशी}ने रखी जो आज भी प्रेरणादायक है
सवाल यह है की प्रभाष जोशी जी होते तो क्या करते ?
यह एक इंटरव्यू का अंश जो प्रभाष जी ने मीडिया खबर में दिया था जो शायद यह स्पष्ट कर दे की प्रभाष जोशी जी होते तो क्या करते ?
पत्रकारिता पहले मिशन हुआ करती थी अब प्रोफेशन में बदल रही है इस पर आप क्या कहेंगे ?

प्रभाष जोशी जी - पत्रकारिता प्रोफेशन भी हो जाए तो कोई खराबी नहीं क्योंकि जिस जमाने में पत्रकारिता देश की आजादी के लिए काम करने में लगी थी उस समय चूंकि आजादी एक राष्ट्रीय मिशन था ,इसलिए उसका काम करने वाली पत्रकारिता भी राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक स्वंत्रता प्राप्त करने का मिशन बन गयी ,अब उसमे कम से कम राजनैतिक स्वंत्रता प्राप्त कर ली गयी है,
कुछ हद तक सामाजिक स्वतंत्रता भी प्राप्त कर ली गई है
लेकिन पूरी सामाजिक और आर्थिक आज़ादी नहीं मिल पायी है ,अब उसके लिए अगर आप ठीक से पूरी व्यवसयिकता के साथ काम करे तो पत्रकारिता का ही काम आप करेंगे ,लेकिन यह हुनर का काम सुचना का होगा ,लोकमत बनाने का होगा ,मनोरंजन का होगा
यदि मनोरंजन का होगा तो आप मीडिया का काम कर रहे है
"प्रोफेशनल जर्नलिजम पर जो सबसे बड़ा आरोप लगता है की इसमें मानवीय तत्वों का अभाव होता है जैसा की पिछले कुछ समय पहले एक नामी चैनल के पत्रकारों ने १५ august की पूर्व संध्या पर एक अदद न्यूज़ की चाह में एक व्यक्ति को न केवल जलकर आत्महत्या करने में सहायता की बल्कि उसे उकसाया भी ,
आदमी को जलाकर उसकी खबर बनाना कभी पत्रकारिता नहीं हो सकती, यह तो स्केंडल है ,यह माफिया का काम है
ऐसा हो तो आप कुछ भी कर दे जाकर मर्डर कर दे और कहे यह हमने पत्रकारिता के लिए किया है क्योंकि मुझे मर्डर की कहानी लिखनी थी "

यदि एक पत्रकार ने यह न भी किया हो फिर भी किसी जलते हुए आदमी को कोवर कर रहा हो तो उसे क्या करना चाहिए ?
प्रभाष जोशी जी -पहले उस आदमी को बचाना चाहिए

यह तो उसके प्रोफेशन में अवरोध है ?
प्रभाष जोशी जी -नहीं, वह उसको बचाकर ,उसने क्यों मरने की कोशिश की ,इसकी वजह पता लगाकर उसकी खबर मजे में लिख सकता है
लेखक स्वतन्त्र पत्रकार है संपर्क media.vivek@gmail.com

Friday 19 March 2010

केंद्र सरकार पोस्टमार्टम रिपोर्ट पर अपनी स्थिति स्पष्ट करे - पीयूसीएल

नई-पीढी से -
मानवाधिकार संगठन पीपल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज ने बाटला हाऊस मुठभेड़ कांड पर आई पोस्टमार्टम रिपोर्ट के हवाले से कथित मुठभेड़ कांड की न्यायिक जांच की मांग दोहराई। संगठन प्रभारी मसीहुद्दीन संजरी और तारिक शफीक ने संजरपुर में बैठक कर सूचना कार्यकर्ता अफरोज आलम को प्राप्त पोस्टमार्टम रिपोर्ट के हवाले से कहा कि बाटला हाउस में मारे गए मोहम्मद साजिद और आतिफ अमीन के शरीर पर गंभीर चोटों के निशान प्रमाणित करते हैं कि उन्हें गोली मारने से पहले उनको बर्बर तरीके से मारा पीटा गया था। यह रिपोर्ट पुलिस के उस दावे को खोखला साबित करती है कि पुलिस ने आत्मरक्षार्थ गोली चलाई थी।
पीयूसीएल के प्रदेश संगठन मंत्री शाहनवाज आलम और राजीव यादव ने केंद्र सरकार पर सवाल उठाते हुए कहा कि पुलिस द्वारा की गई हत्या की इतनी महत्वपूर्ण रिपोर्ट आखिर क्यों दबा कर रखी गई थी। अगर आजमगढ़ के लिए सोनिया और राहुल इतने चिंतित हैं तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट पर अपनी स्थिति स्पष्ट करें और इस मामले की न्यायिक जांच करवाएं।

Tuesday 16 March 2010

बाबरी विध्वंस, तथ्यों की लिपा-पोती : सीतला प्रसाद सिंह


प्रेस काउन्सिल आँफ़ इंडिया के सदस्य और सहकारी अखबार ’जनमोर्चा ’ के संपादक वरिष्ठ पत्रकार और समाजसेवी शीतला प्रसाद सिंह द्वारा 15 मार्च को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में दिए गए विशेष व्याख्यान के अंश पर आधारित
राम मंदिर आंदोलन और बाबरी विध्वंस के मामले को लेकर दुनियां के सामने अयोध्या के घटनाक्रम की प्रस्तुति, भ्रांतियों और तथ्यों की लिपा-पोती की गयी हैं. मीडिया के लिए बाबरी विध्वंस एक ब्रांडनुमा खबर थीं जिसका व्यापार सुविधानुसार मीडिया जगत ने किया. १९९२ में जब बाबरी का विध्वंस हुआ तो दिल्ली के हमारे मित्र विनोद दुआ का फ़ोन आया कि ; एक प्रकाशक जी चाहते हैं कि आप अयोध्या आंदोलन के अपने अनुभवों को एक किताब की शक्ल दे, यह किताब एक महीने में छपनी है. आपको क्या रायल्टी चाहिए यह आप तय कर सकते हैं. उसी समय प्रकासक महोदय का भी फ़ोन आया, उन्होने भी विनोद दुआ द्वारा पूर्व में कही बातों को दोहराया.
मुझे लगा कि लिखना तो कमाने का बढि़या माध्यम है. क्या इसका उपयोग करना उचित है ? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक जिस विश्वास के साथ अयोध्या मसले पर मुझसे बाते की, उन बातोम को खोल दिया जाए तो सब नंगे हो जाए, क्या ये उचित होगा ? अयोध्या के बारे में मैं भी इस आग्रह की श्रेणी में हूं कि वह तथ्य जो सही है, उन्हे पवित्र मानकर प्रस्तुत करना चाहिए. मुझे वह क्षण याद है जब प्रधानमंत्री नरसिंह राव के सचिव खानेकर का फ़ोन आया था कि वो बात करना चाहते है तो मैने इनकार कर दिया था. यह इसलिए था क्योंकि उनकी दिशा विध्वंस मसले पर संधिग्ध थी. राव साहब का निरंतर फ़ोन आ रहा था, वह फ़ोन १२.३० पर आया था जिसमें पुछा गया था कि अयोध्या में केद्रीय सेना पहुंची की नहीं. मैंने बताया नहीं वापस चली गयीं.
मैं बराबर वहां के ताजा हालात पर नजर रखे हुए था. खबर हुई कि कल्याण सिंह त्यागपत्र देने जा रहे हैं. मैने तब जितेन्द्र प्रसाद से बात की. उन्होने कहा कि कल्याण सिंह बहुत बदमाशी की हैं हम उन्हें बर्खास्त करेंगे. बर्खास्त करने का मतलब मै समझता था. इसकी प्रक्रिया में काफ़ी समय लगता है, तकरिबन ३.३० घंण्टे, इतना समय पर्याप्त था छः दिसंबर के लिए.
इस बार देश की नंबर दो पार्टी भाजपा के अध्यक्ष ने पार्टी लाईन से हट कर एक बयान दिया जो काफ़ी महत्त्वपूर्ण हैं. उन्होने कहा कि अयोध्या में मंस्जिद हम बनवाएंगे बस आप मंदिर में अड़ंगा न डाले. इस बयान पर हरिद्वार के संतों और जन्म भूमि न्यास के नेताओं ने कटु आलोचना की, सिद्धांत को सिरे से खारिज कर दिया. दरअसल नितिन गडकरी के इस बयान के कई कारण हैं और यह एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हैं. समय की मजबूरी क्या-क्या हो सकती हैं ? कुछ तथ्य हैं.दिसंबर में जब मंस्जिद टूटी तो तीन जनवरी १९९३ को भारत सरकार एक आर्डिनेंस लाती है जो अप्रैल में अधिनियम में परिवर्तित हो जाती है. अधिनियम में कहा गया है कि अयोध्या के सांप्रदायिक विवाद को हल करने के लिए, विवादित स्थल के आस-पास की १७७ एकड़ जमीन अधिग्रहित की जाएगी जिसका उद्देश्य वहां, मंदिर, मंस्जिद, पुस्तकालय, संग्रहालय और पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की स्थापना की जाएगी. अदालतों द्वारा हिंदुओं को जो विशेष अधिकार दिए गए थे, वह समाप्त कर दिए गए.चंकि यह स्वामित्त्व का मामला है. जब तक इसका निर्धारण नहीं हो जाता तब तक इसे हल नहीं किया जा सकता.
स्वामित्त्व संबंधी विवाद का मुख्य तत्त्व यह है कि सेन्ट्रल सुन्नी वक्फ़ बोर्ड ने, १९६१ में एक मुकदमा दर्ज किया था कि हम इसके स्वामी हैं . हिंदुओं के मामले में स्वामित्त्व का मामला कहीं नहीं है. १९८५ में निर्मोही अखाड़ा ने इस पर अदालत में मामला बनाया. मुकदमें का फ़ैसला दो से तीन महीने में संभाव्य है और स्थिति किसी साधु और संस्था पर निर्भर नहीं होगा.
प्रस्तुति- अनुज शुक्ला
लेखक इस ब्लाँग के माडरेटर है, उनसे anuj4media@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

Sunday 14 March 2010

सरकार बुद्धिजीवियों से डरती है

शाहनवाज आलम -
पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने एक आश्चर्यजनक निर्देश सुनाते हुए हैदराबाद के उसमानिया विश्वविद्यालय में तैनात सेना को हटाने से इंकार कर दिया। सर्वोच्च न्यायलय का राज्य सरकार की तरह ही मानना है कि विश्वविद्यालय मंे माओवादियों ने छात्रों के वेश में एडमिशन ले लिया है। इसलिए उनकी गतिविधियों पर नजर रखने के लिए वहां सेना की तैनाती जरुरी है। जबकि दूसरी ओर विश्वविद्यालय के कुलपति का साफ कहना है कि विश्वविद्यालय में कोइ माओवादी नहीं है। और ना ही वहां सेना की जरु़रत है। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्देश आश्चर्यजनक इसलिए है कि, अव्वल तो कानूनी तौर पर ‘माओवादी कौन है या माओवादी साहित्य क्या है’ इसकी कोइ व्याख्या नहीं है। इसलिए ऐसे किसी भी फैसले से पहले कानूनन यह जरुरी था कि माओवादी की व्याख्या होती। बिना इसके अगर कोर्ट ऐसे निर्देश देती है तो इसका मतलब यही है कि कोर्ट माओवादी की पुलिसिया व्याख्या को ही कानूनी जामा पहना रही है। दूसरे, कि अगर कथित माओवादी विचार वाले छात्रों ने वहां ऐडमिशन लिया भी है तो प्रवेश परीक्षा पास करके ही लिया होगा। ऐसे में अगर उनपर नजर रखने के नाम पर वहां सेना लगाइ जाती है तो ये उन छात्रों के मौलिक अधिकार की ‘किसी के साथ उसके विचार के कारण भेद भाव नहीं किया जा सकता’ का भी उल्लंघन है। इस तरह सर्वाेच्च न्यायालय के निर्देश पर संवैधानिक नजरिए से भी सवाल उठते हैं। कोर्ट के इस निर्देश को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमंत्री पी चिदम्बरम के इस बयान से जोड़कर ही समझना होगा जिसमें वे लगातार बुद्धिजीवियों से माओवाद का समर्थन करने से बाज आने की चेतावनी देते रहे हैं। दरअसल भारतीय राज्य और शासक वर्ग माओवाद के खिलाफ भले ही लॉ एण्ड ऑर्डर बहाल करने के नाम पर हमलावर हो लेकिन उसकी आड़ में तेजी से अपनी वैधता खोता जा रहा राज्य अपने अस्तित्व को वैध ठहराने का वैचारिक जंग लड रहा है। और इस लड़ाई में वो बुद्धिजीवी समाज को अपना सबसे बडा दुश्मन समझता है। इसीलिए वो बौद्धिक विचार विमर्शों के विश्वविद्यालय जैसे अड्डों को छावनी में तब्दील करने का लगातार बहाना ढूंढता रहता है। दरअसल, नक्सलवाद और माओवाद की आड़ में विश्वविद्यालयों की संप्रभुता पर हमला नया नहीं है। 60 और 70 के दशक में भी जब यह आंदोलन अपने उरूज पर था तब भी पश्चिम बंगाल के विश्वविद्यायालयों के हजारों छात्रों, शिक्षकों और बुद्धिजीवियों का दमन तत्कालीन सरकार ने इसी तर्क के आड़ में किया था कि ये लोग राज्य व्यवस्था को वैचारिक चुनैती दे रहे हैं। दरअसल हमारे शासक वर्ग का जनता पर शासन करने का नैतिक और वैचारिक आधार इतना कमजोर है कि वह हमेशा उसके दरक जाने के खतरे से डरा रहता है। खास तौर से उन हलकों से उठ रहे सवालों से जिसको वो खुद उठा कर सत्ता तक पहुंचा होता है। मसलन, कांग्रेस अगर अपना ‘हाथ गरीबों के साथ’ होने का भरोसा दे कर सत्ता में पहुंची है तो उसे सबसे ज्यादा डर भी गरीब तबके की तरफ से ही उठने वाले सवालों से लगना स्वाभाविक है। इसलिए वो ऐसे किसी भी आवाज को माओवादी बताकर दमन करने पर उतारु है। कांग्रेस इस तबके से उठ रहे सवालों से तो इतना डरी हुयी है कि बार बार मानवीय चेहरे के साथ विकास की बात दोहराने वाली सरकार ने इस डर से निजात के लिए अपने कथित मानवीय नकाब तक को उतार कर खूंखार जंगली जानवरों का चेहरा ओढ लिया है। ऑपरेशन ग्रे हाउंड;भूरा शिकारी कुत्ताद्ध ऑपरेशन कोबरा, स्कॉर्पियन ;बिच्छूद्ध ग्रीन हन्ट हाउंड ;हरा शिकारद्ध जैसे अभियानों के नामकरण से इसे समझा जा सकता है। ठीक इसी तरह भाजपा भी जो मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिक उन्माद पर सवार हो कर सत्ता में पहुंची थी, ने उन तमाम विचारों को जो उसकी संर्कीणता को चुनौती देती थीं, आतंकवादी और राष्ट्विरोधी घोषित कर दमन करने पर उतारु थी। जिसके तहत चुन-चुन कर उन बुद्धिजीवियों, कलाकारों और उनके संस्थानों पर हमले हुए। मनमोहन सिंह चिदम्बरम की तरह ही तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी ने भी इन बुद्धिजीवीयों से आतंकवादी और राष्ट्विरोधी तत्वों का विरोध कर अपनी राष्ट्भक्ति साबित करने का फरमान जारी कर दिया था। इसलिए अगर सरकारें बुद्धिजीवियों या उनके संस्थानों पर हमलावर होती हैं तो मामला सिर्फ अराजकता की रोकथाम का नहीं बल्कि अपनी वैधता पर उठ रहे सवालों के दमन का है। दरअसल कोइ भी सत्ता चाहे जैसी हो उसके बने रहने के लिए तर्क और विचार सबसे अहम होता है। इसलिए हम देखते हैं कि जहां बुद्धिजीवीयांे की एक जमात का दमन किया जा रहा है तो ठीक उसके साथ-साथ दूसरे तरह के बुद्धिजीवी सरकारी गोबर-माटी से पनपाए भी जा रहे हैं। अखबारोें के सम्पादकीय पन्नों से गम्भीर विश्लेषकों का दुर्लभ होते जाना और उनकी जगह कथित रक्षा विशेषज्ञों का कुकुरमुत्तों की तरह उग आना इसी का नजीर है या इसी तरह विश्वविद्यालयों में अराजकता के नाम पर छात्रसंघों की राजनीति को प्रतिबंधित करना और उसी के समानांतर कागें्रस के राजकुमार का विश्वविद्यालयों के परिसरों में व्याख्यान आयोजित करना। या पूर्ववर्ती भाजपा शासन में बीएचयू के भंग छात्रसंघ भवन में दस दिवसीय आसाराम बापू का रामकथा आयोजित कराना, अपनी-अपनी सत्ता को वैचारिक वैधता देने की ही कोशिशें हैं। बहरहाल, विचारों पर इस दमन का सबसे दुखद पहलू यह है कि ऐसे मुद्दों पर जहां पहले बुद्धिजीवीयों के साथ सत्ता विरोधी राजनीतिक दल और नेता भी खडे़ होते थे वहीं पिछले दो दशकों से पक्ष-विपक्ष में नीतिगत फर्क के लुप्त होते जाने के चलते राज दमन के सामने बुद्धिजीवी अकेले पड़ गए हैं। क्या यह किसी भी स्वस्थ और गतिशील लोकतन्त्र के लिए खतरनाक संकेत नहीं है कि पिछले दो दशकों से बुद्धिजीवीयों के अलावा किसी भी राजनैतिक दल या उसके नेता को अपने सत्ता विरोधी विचारों या वैकल्पिक नीतियों के चलते राज दमन नहीं झेलना पडा। और वह भी तब जब इसी दौरान दो लाख किसानों ने आत्महत्याएं की हों और सत्ता पक्ष के अर्थशास्त्रियों द्वारा ही यह बताया जा रहा हो कि 84 प्रतिशत लोग 20 रुपए रोजाना से भी कम पर जी रहें हैं। जबकि एक समय था जब जनविरोधी नीतियों और सरकारी दमन के खिलाफ बुद्धिजीवीयों और विपक्षी नेताओं से देश भर की जेलें पटी पड़ी रहती थीं। दरअसल पक्ष-विपक्ष में नीतीगत भेद मिटा कर राजनीतिक लोकतंत्र को अपना चाकर बनाना कॉर्पाेरेट पूंजीवाद का पहला लक्ष्य था। जिसमें दो दशक से भी कम समय में वह सफल हो गया। अब दूसरे चरण में उसकी जरुरत इस स्थिति को वैधता दिलाने की है। जिसके लिए उसका विचारों के लोकतंत्र पर हमलावर होना जरुरी है। अगर मनमोहन सिंह और पी चिदम्बरम बुद्धिजीवीयों को बार-बार बाज आने की चेतावनी देते हैं तो वो यूॅं ही नहीं है। वे सचमुच ऐसा कर के दिखाएंगे । क्योंकि उनकी जवाबदेही जनता के बजाए वॉलर्माट, वेदान्ता और मॉन्सैन्टो के प्रति है, और अब तो न्यायपालिका का तराजू भी तेजी से उनके पक्ष में झुकता जा रहा है।
शाहनवाज आलम स्वतंत्र पत्रकार ह

Friday 12 March 2010

अरूण कमल की काव्य भाषा और समांतरता

शशिभूषण सिंह-
काव्यभाषा को विशिष्टत्व प्रदान करने में जिन कारकों का महत्वपूर्ण योगदान होता है, समांतरता उन्हीं में से एक है। समांतरता शैलीविज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण संघटक है। जब दो या दो से अधिक छवियाँ , शब्द ,रूप , वाक्य और प्रोक्ति कविता में पुनरूक्त होते हैं, तब समांतरताएँ होती हैं। किंतु ध्यातव्य है कि सभी पुनरूक्तियाँ , समांतरताएँ नहीं बनती , बल्कि जब ये सार्थक और साभिप्राय होती हैं तभी ये समांतरता बनती हैं अर्थातजब पुनरूक्तियाँ सोद्देश्य और सनियम की जाती हैं, तभी उन पुनरूक्तियों को समांतरता में परिगणित किया जा सकता है।
समकालीन हिंदी काव्यभाषा की गरमाहट उसके जुझारूपन में दिखाई देती है। आम आदमी की पीड़ा, उसके संघर्ष, लोककथा, लोकगीत और साधारणजनों के मुहावरों और ठहाकों ने जितना धार समकालीन काव्यभाषा को दिया है, उतना ही समांतरता ने भी। निराला की कविता ‘जूही की कली’ में समांतरता की उपस्थिति द्रष्टव्य है-

“आई याद बिछुड़न से मिलन की वह बात ,
आई याद चांदनी से धुली हुई आधी रात
आई याद कांता की कंपित कमनीय गात”

उपर्युक्त पंक्तियों में ‘ आई याद ’ क्रियापद की साभिप्राय आवृति पाठक या श्रोता के मन पर विशेष प्रभाव छोड़ती है। निराला के लगभग आधी सदी बाद अरूण कमल की पंक्तियां हैं-

“अभी भी जिंदगी ढूंढती है धुरी
अभी भी जिंदगी ढूंढती है मुक्ति
कहाँ अवकाश कहाँ समाप्ति”
(मुक्ति कविता से)
उपर्युक्त पंक्तियों को पढ़कर सहज ही समझा जा सकता है कि कविता में जो बेचैनी दिखाई देती है ,‘अभी’ की आवृति उसे थोड़ा और सघन बना देती है। समांतरता का ऐसा चमत्कारी दिग्दर्शन अरूण कमल की कविताओं में आद्योपांत दिखाई देता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अरूण कमल की कविता का नाभि केन्द्र है- समांतरता। यहाँ समांतरता के दोनों रूपों (समतामूलक और विरोधी) का दर्शन होता है।
शब्द और रूप स्तर पर समांतरता प्रायः सभी समकालीन कवियो में देखी जा सकती है। किंतु वाक्य और प्रोक्ति स्तर की समांतरता का चमत्कार जो अरूण कमल की काव्यभाषा में है, वह अन्य समकालीन कवियों की काव्यभाषा में दुर्लभ है। वाक्य - स्तरीय समांतरता का एक उदाहरण उनकी ‘होटल’ कविता में दिखाई देती है -

ऐसी ही थाली,
ऐसी ही कटोरी,
ऐसा ही गिलास,
ऐसी ही रोटी,
ऐसा ही पानी
यहाँ वाक्य-संरचना की आवृति में समांतरता है। वाक्य का आवर्तित संरचनात्मक ढांचा द्रष्टव्य है-
सार्वनामिक विशेषण + बलात्मक अव्यय + संज्ञा
ऐसी ही थाली
ऐसी ही कटोरी
ऐसा ही गिलास
ऐसी ही रोटी
इसी प्रकार अरूण कमल की कविताओं में प्रोक्ति - स्तरीय समांतरता भी प्रचुर दिखाई देती है -

“बदबू से फटते जाते इस
टोले के अंदर
खुशबू रचते हाथ
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दुनिया की सारी गंदगी के बीच
दुनिया की सारी खुशबू
रचते रहते हाथ”
(‘खुशबू’ कविता से)

अरूण कमल की कविताओं में(समतामूलक) अर्थ-स्तरीय समांतरता अपेक्षाकृत कम दिखाई पड़ती है किंतु वे कम आकर्षक नहीं हैं -
“सही साइत पर बोला गया शब्द
सही वक्त पर कंधे पर रखा गया हाथ
सही समय पर किसी मोड़ पर इंतजार”
(‘राख’ कविता से)



यहाँ ‘साइत’ और ‘वक्त’ , ‘समय’ के ही दो पर्याय हैं। बड़ी ही कुशलता से कवि ने यहाँ शब्दों की जगह अर्थ की बारंबारता को अध्यारोपित किया है तथा लयात्मकता की क्षति से काव्यभाषा का बचाव भी।
किंतु समतामूलक समांतरता से कहीं ज्यादा आकर्षण (अरूण कमल के यहाँ) विरोधी समांतरता में दिखाई पड़ता है, बल्कि अरूण कमल तो विरोधी समांतरता के कवि ही माने जाते हैं- खासकर प्रोक्ति - स्तरीय विरोधी समांतरता के -


“कितने ही घरों के पुल टूटे
इस पुल को बनाते हुए”
(‘महात्मा गांधी सेतु और मजदूर’ कविता से)
“माताएँ मरे बच्चों को जन्म दे रही हैं
और हिजड़े चैराहों पर थपड़ी बजाते
सोहर गा रहे हैं”
(‘उल्टा जमाना’ कविता से)
विरोधी स्थितियों की भयावहता को चित्रित करने में अरूण कमल का जोड़ नहीं । शैली वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह चित्रण काव्यभाषा में विरोधी समांतरता से ही संभव है। तभी तो अनुप्रयुक्त भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का शैली -विज्ञान समांतरता को काव्य- भाषा के वैशिष्ट्य के उत्कर्षकों में गिनता है।
बात जहाँ तक व्यंजना में कहनी हो वहाँ अरूण कमल की कविता में प्रोक्ति - स्तरीय विरोधी समांतरता दिखाई देती है, किंतु जहाँ बात अविधा में कहनी हो वहाँ इनकी कविता प्रायः अर्थ-स्तरीय विरोधी समांतरता को बुनती हैं। जी.डब्ल्यू एलन इसे ही ^Antithetical Parallism’ कहते हैं। अरूण कमल की कविता में समांतरता का ये दृष्टांत प्रचुर मात्रा में विद्यमान है ”“-
“इस नए बसते इलाके में
जहाँ रोज बन रहें हैं नए-नए मकान
मैं अक्सर रास्ता भूल जाता हूँ
धोखा दे जाते हैं पुराने निशाने”
(‘नए इलाके में’ कविता से)
“दुनिया में इतना दुःख है इतना ज्वर
सुख के लिए चाहिए बस दो रोटी और एक घर
दिन इतना छोटा रातें इतनी लम्बी हिंसक पशुओं भरी”
(‘आत्मकथ्य’ कविता से)

स्पष्ट है कि समांतरता का अनुप्रयोग न केवल काव्यभाषा को सुशोभित करता है, बल्कि उसकी अपील को भी द्विगुणित कर देता है। काव्यभाषा के इस आधुनिक संप्रत्यय की मदद से काव्य-वस्तु का पुनरीक्षण किंचित अभिनव तरीके से किया जा सकता है
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) के साहित्य विभाग में शोधरत हैं।)

Thursday 11 March 2010

एक और सत्याग्रह, काले अंग्रजों के खिलाफ


राकेश कुमार


पहला सत्याग्रह गांधी जी देश की आज़ादी के लिए किये थे तो दूसरा सत्याग्रह गंगा की आज़ादी के लिए जल बिरादरी करने जा रही है। यह सत्याग्रह जल पुरुष राजेन्द्र सिंह के अगुवाई में 12 मार्च से हरिद्वार महाकुम्भ से शुरु हो रहा है। दूसरा सत्याग्रह सफल होगा या नहीं यह तो समय ही बतायेगा। चूंकि गांधी जी उपनिवेशी शासक (गोरे अंग्रेजांे) के खिलाफ किया था जिसमें पूरे देश की जनता शामिल थी। और जल बिरादरी को अपने ही सरकार (काले अंग्रेजो) के खिलाफ करना पड़ रहा है जिसमें महज़ कुछ ही लोग शामिल हैं। गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए संत-सरकार-एजीओ तीनों एक मंच पर एकजुट हो गये हैं। सरकार और पंचायत दोनों इसकी सफलता के लिए आम जनता की सषक्त सहभागिता को आवष्यक बताया। लेकिन आम जनता को इस मुहिम में शामिल करने तथा गंगा का नैसर्गिक स्वरुप बहाल करने को लेकर दोनों के बीच मतभेद रहा। फिलहाल गंगा-यमुना पंचायत ने दिल्ली में तीन दिन के गहन विचार-विमर्श के बाद सरकार को 11 सूत्री सुझाव पत्र सौंपा। सरकार पंचायत के सुझाओं को महत्व दे या न दे लेकिन पंचायत गंगा की आजा़दी का वीणा उठा लिया है। बांधो से जकड़ी जा रही गंगा की आज़ादी के लिए हजारों कार्यकर्ता 12 मार्च को हरिद्वार पहुंचकर, इस सत्याग्रह का आगाज़ करेंगे। तो वहीं जल बिरादरी के कार्यकर्ता देश भर की नदियों में मिलने वाले गंदे पानी के मार्ग को अवरोधित कर इस सत्याग्रह को देशव्यापी नदी सत्याग्रह का रुप देने का प्रयास करेंगे।पंचायत, गंगा की अविरलता में बांधो को अवरोध मानते हुए केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश के समक्ष जब उसके डीकमीशान की बात रखी तो मंत्री महोदय अपने को दूध सा साबित करने की मुहिम में जुट गये। मंत्री साहब के बयान ‘मैं तो प्रधानमंत्री जी को पहले से ही से बोल चुका हूं कि लोहरी नागपाला डैम से यदि लाखों-करोड़ो लोगों की आस्था पर आधात पहुंचता है तो हमें हजार करोड़ रू। के बारे में विशेष नहीं सोचना चाहिए और इस योजना को वापस ले लेना चाहिए। लेकिन वहीं पर जनाब यह भी कहते हैं कि आस्था निर्णय का आधार नहीं हो सकता। इसके साथ-साथ गंगा में मिनिमम फ्लो (काम चलाऊं पानी) कायम रखने की बात कही है। हालांकि पंचायत मिनिमम फ्लो की बात पर आपत्ति दर्ज की लेकिन उनकी विरोधाभाषी बातों में पंचायत के गंडमान्य बहते नज़र आये।मंत्री महोदय ने यह कबूल किया कि गंगा नदी को जिस तरह बांधो से सजाया गया है, उससे हमारी संस्कृति ‘टनल’ की संस्कृति हो गयी है। लोहारी नागपाला डैम के डीकमीषन के सवाल पर मंत्री जी सरकार की तरफ से वकालत करते हुए कहा कि लोहारी नागपाला परियोजना पर करीब एक हज़ार करोड़ रूपया खर्च हो गया है। इसलिए सरकार उस परियोजना को वापस नहीं ले सकती। उनकी बातों पर प्रष्न चिन्ह लगाते हुए दूसरे पक्ष के वकील (पंचाय के अध्यक्ष) स्वामी अविमुक्तेष्वरानन्द ने सरकार के इस दर्द पर मरहम लगाते हुए कहा कि पंचायत सरकार को हज़ारो करोड़ रूपया देने को तैयार है। लेकिन इससे पहले सरकार लिखित रूप से इस बात को सार्वजनिक करे कि गंगा नदी पर किसी प्रकार की परियोजना या डैम नहीं बनायेगी।नदियों को निर्मल बनाने के लिए सरकार द्वारा लगाये जाने वाले भारी-भरकम जल शोधन प्लांट पर पंचायत ने सरकार को आगाह करते हुए कहा कि गंगा मां की सफाई के लिए सरकार कटोरा लेकर विदेषों से भीख न मांगे। रिवर में सिवर मिलाना बंद कर दे, वह अपने आप निर्मल हो जायेगी। मंत्रालय के मुताबिक, ‘गंगा सफाई मिशन’ में लगभग 15 हज़ार करोड़ रूपये का खर्च होने का आंकलन किया गया है। जिसको पूरा करने के लिए सरकार तथाकथित मिषन 2020 निष्चित किया है। जयराम रमेश की उन बातों का पटाक्षेप करते हुए पंचात के अध्यक्ष नदियों की बर्बादी का ठीकरा सरकार के सिर फोड़ते हुए कहा कि हमारे देश की नदियां निर्मल और अविरल हैं लेकिन पहले सरकार उसे अवरोधित व गंदा करती है, फिर उसकी सफाई के नाम पर लम्बा बजट पास करती है... बावजूद नदियां दिन ब दिन मरती जा रही हैं।नदियों की अविरलता को वापस लाने को लेकर पंचायत भी स्पष्ट नहीं हो सकी। एक तरफ जहां इस अभियान की सफलता के लिए जनता की सहभागिता को आवष्यक मानती है तो वहीं दूसरी तरफ गंगा-यमुना से किसानों को पानी न दिये जाने की वकालत भी करती है। पंचायत के इस निर्णय पर न केवल पंचायत के कुछ लोगों ने असहमति जतायी बल्कि मंत्री साहब भी दो शब्दों में कि ‘जल का बटवारा राज्यों का विषय है इसमें केन्द्र सरकार कुछ नहीं कर सकती, कहकर चलते बने। ऐसे में पंचायत और सरकार द्वारा इस मुद्दे पर जन आंदोलन खड़ा करने का सपना भी शायद अधूरा रह जायेगा। यहां पर सवाल यह उठता है कि आखिर सरकार और पंचायत (एनजीओ) दोनों गंगा को निर्मल और अविरल बनाने के लिये धन-बल के साथ तैयार है लेकिन जब दोनो इसके रास्ते को लेकर इतने भ्रमित हैं कि तीन दिन के राष्ट्रीय विचार-विमर्श के बाद भी स्पष्ट रास्ते नहीं ढूढ़ सकी। यहां पर यह भी स्पष्ट कर दें कि गंगा पर उत्तरकाशी से लेकर बिहार तक एक से बढ़कर एक बांध बने हुए हैं। तो समझ सकते हैं कि गंगा की अविरलता वापस कैसे आयेगी। इस पर गम्भीरता से सोचना पडे़गा। यहां पर यह भी प्रश्न उठता है कि क्या सरकार इस बार भी भारी-भरकम बजट पास कर जनता की आस्था पर मरहम लगाकर लीपा-पोती की ताक मे तो नहीं है। क्या कांग्रेस सरकार भाजपा के एक और चुनावी एजेंडे को हाइजैक करने की फिराख्त में है।पन्चायत ने गंगा की धार्मिक और सांस्कृतिक महत्ता को रेखांकित करते हुए गंगा की अधिसूचना में ‘धार्मिक और आध्यात्मिक’ शब्द जोड़ने की बात सरकार के समक्ष रखी है। गंगा को पर्यावरणीय प्रवाह देने, प्रदूषण मुक्त करने, खनन वर्जित करने, रीवर और सीवर को अलग करने, ‘गंगा घाटी विकास प्राधिकरण’ के अध्यक्ष को मुख्य सेवक और अन्य सदस्यों को सेवक का नाम दिये जाने तथा गंगा के उद्गम से लेकर 135 किमी तक उसकी नैसर्गिक धारा प्रवाह में बदलाव न करने जैसे कहीं अहम सुझाव रखा है। जबकि सकरकार पहले ही लगभग 50 किमी की दूरी पर लोहारी नागपाला डैम करीब आधा तैयार हो चुका है, जिसे सरकार किसी भी हालत में निरस्त करने को तैयार नहीं है। यहां पर प्रश्न उठता है कि गंगोत्री से निकली गंगा की निर्मल धारा को गंगा सागर तक पहुंचाने का कथित सपना पंचायत और सरकार आखिर कैसे पूरा करेगी। इस पर गंम्भीरता से विचार करने की जरुरत है।यह बता देना मौजूं होगा कि गंगा-यमुना की अविरलता और निर्मलता के लिए 1985 में राजीव गांधी सरकार ने काम शुरु किया था। जिसमें करीब एक हज़ार करोड़ रूपया गंगा में फूलो की तरह अर्पित कर दिया गया लेकिन गंगा-यमुना दिन ब दिन प्रदूषित होती रही। आज आलम यह है कि यमुना (दिल्ली में) के किनारे जानवर व पक्षी पानी के लिए इधर-उधर भटकते हैं। यह बात अलग है उस सिवर रूपी यमुना में सुबह-शाम कबाड़ी जीविका के लिए गस्त लगाते हैं। लेकिन मंत्री साहब यह कहने से नहीं थकते कि यदि गंगा-यमुना एक्शन प्लान एक नहीं लाया गया होता तो आज इन नदियों की हालात क्या होती जिसे हम ब्यान नहीं कर सकते। जनाब इस असफलता का कारण सिरे से राज्य सरकारों और औद्योगिक क्षेत्रों के सिर मढ़कर अपने को तार-तार करने की कोशिश की। कांग्रेस सरकार अब एक बार फिर 15 हज़ार करोड़ रूपया खर्च करने का प्रोपोगेंडा तैयार करने में जी जान से लग गई है। जिसका भी परिणाम आने वाले समय में सामने होगा।


राकेश कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं और जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) से जुड़े हैं.संपर्क - rakeshvdrth@gmail.com

Monday 8 March 2010

स्त्री आवाज के सौ साल और वर्तमान स्थिति


अनुज-
राहुल गांधी की कृपा से कलावती लखपति बन चुकी है साथ ही महिला आंदोलन की तमाम महिला प्रवक्ताओं ने सूती साड़ी पर रीबाँक की सैण्डल पहनना शुरू कर दिया है. आज के महिला आंदोलन की दिशा पर सवाल किए जाने चाहिए जो आंदोलन के नाम पर अप्रासंगिक लगता है. स्त्री स्वतंत्रता पर एक नए सिरे से बहस की आवश्यकता है, स्त्री आंदोलन को लेकर एक भ्रम की स्थिति बरकरार है.. आज से सौ साल पहले मत के अधिकार को लेकर, सुरू हुआ आंदोलन का वर्तमान प्रतिसाद, स्त्री-उन्मुक्तता ही महिला आंदोलन के मुख्य घटक के रूप में उभरा है. सिनेमाई पर्दे पर नाचती गाती स्त्रीयां या महनगरों के आलिशान पबों मे सिगरेट के धुएं को उड़ाती स्त्रियों को स्त्री-संघर्ष के चेहरे के रूप में प्रचारित किया तो क्या यह उचित है? तमाम सेमिनारों की बहसों (स्त्री से जुड़े हुए) में अंततोगत्त्वा मुख्य मुद्दा, स्त्री की प्रसव-पीड़ा बन जाता है. कहीं भी ’महराजिन बुवा’ या कुल्मा देवी या फ़िर प्रग्या देवी की चर्चा नहीं की जाती है. परंपरा ग्रस्त दायरे में इनके द्वारा जो संघर्ष किया गया है और किया भी जा रहा है वह स्त्रीत्व की स्वावलंबी सत्ता के लिए आवश्यक है. निरक्षर महराजिन बुआ और उच्च शिक्षित प्रग्या देवी ने पितृ सत्ता वादी हिंदु व्यवस्था, को उसके गढ़ों( इलाहाबाद एवं बनारस) में चुनौती दी.
स्त्री-संगठनों को अपनी उर्जा को जंतर-मंतर पर जाया करने की बजाए, गांवों और कस्बों और छोटे शहरों की ओर रूख करना चाहिए जहां इसकी ज्यादा जरूरत है. इन्हे उन ग्रामीण महिला मजदूरों के हकों-हुकूक की भी बात करना चाहिए जिन्हे आज भी मजदूरी का भुगतान लैंगिक आधार पर किया जाता है.