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Wednesday 25 September 2019

गिरते-उठते मनोज बाजपेई: खुश हूं कि शूल का ड्यूटी मैन अब फैमिली मैन है

अनुज शुक्ला/मुंबई। मनोज बाजपेईसे पहली मुलाकात सत्या के जरिए हुई। भीखू म्हात्रे। एक फैमिली मैन गैंगस्टर। बंदूक और बीवी को बेइंतहा प्यार करने वाला लगभग पागल इंसान। लेकिन भीखू के अंदर जो भलमनसाहत थी उसने लोगों को अपने से जोड़ लिया। मैं भी जुड़ गया और मनोज को बेइंतहा प्यार करने लगा। सत्या जब भी याद करता हूं तो मनोज, सौरभ शुक्ला, शेफाली शाह और मकरंद देशपांडे के आलावा दूसरे किरदार ज्यादा याद नहीं आते।

सत्या के लिए उर्मिला मातोंडकर भी याद नहीं आती। सत्या में जब भीखू की मौत हुई तो उसी तरह का दुख हुआ, जैसे शोले में जय (अमिताभ बच्चन) की मौत पर हुआ था। शोले का वो सीन दिल दिमाग पर कुछ ऐसे चढ़ा कि उतरता ही नहीं। पॉकेट में बुलेट ढूंढ़ना और एक ही बुलेट पाने पर जय उंगलियों में लेकर उसे  जिस तरह निहारता है, भुलाए ही नहीं भूलता। दम तोड़ता जय बदहवास भाग कर आई राधा को जिस तरह देखता है, उसे देखकर सख्त कलेजे भी बर्फ की माफिक पिघल जाए।

शोले किसी शादी में देख पाया था और कई दिन, महीनों तक इस सीन को यादकर दुखी रहा। आखिर जय को क्यों मार दिया? जय फिर जिंदा नहीं हो सकता क्या? ऐसा ही दुख आनन्द की मौत को लेकर भी कई दिन तक रहा। आनन्द के आखिरी कुछ सीन देखते हुए गला रह रह कर भर जाता। कई बार भरता, सांस खींचने में दिक्कत होती और आखिरकार मैं भरभरा पड़ा था। हर बच्चे बूढ़े नौजवान महिलाएं जो आनंद देख रही थीं उनका हाल भी वैसा ही था। हर देखने वाली आंखों के कोर में आंसू थे। हालांकि हर शख्स अपनी स्थिति छुपाता रहता कि उसकी ये हालत कोई देख तो नहीं रहा।

भीखू म्हात्रे की मौत भी कई दिन तक दिल को कचोटती रही। बार बार आखिरी सांसे गिन रहा, तड़पता, दम तोड़ता फैमिली मैन गैंगस्टर का चेहरा सामने आ जाता और बार बार प्यारी म्हात्रे ( शेफाली शाह ) का रोता चेहरा दिख जाता। दिल पता नहीं क्यों वो सीन सोचकर गम से जार जार हो जाता। मैं आज भी सोचता हूं - सपनों में मिलती है... पर हंसता खिलखिलाता "लड़बहेर" पगला सा भीखू मर कैसे सकता है?

मनोज सत्या से पहले द्रोहकाल और बैंडिट क्वीन में छोटी मोटी भूमिकाओं में दिख चुके थे। अच्छी याद बैंडिट क्वीन को लेकर ही है। सुना खूब था, लेकिन देखने को नहीं मिला। बच्चों को मनाही थी। तब हमारे गांव में फिल्मों के लिए सामूहिक चंदे पर जो वीडियो आता था, उसमें ऐसी फिल्मों को चलाने की मनाही थी। लेकिन सत्या के वक्त दसवीं की पढ़ाई के लिए मुझे इलाहाबाद भेज दिया गया था। यहां मेरे साथ जो सबसे अच्छी चीज हुई वो सिनेमा देखने की आजादी थी, मैं पॉकेट मनी बचाता। अवतार, लक्ष्मी या मानसरोवर जैसे सस्ते टॉकीज में फिल्म के आने का इंतजार करता। हफ्ते में तीन चार फिल्में देख ही लेता।

इससे पहले सिनेमा हॉल दीदी के यहां जाने पर रिश्तेदारों की सरपरस्ती में देख पाया था। और अपने यहां के कस्बे गुंजन वीडियो हॉल में चोरी छिपे कभी - कभार फिल्म देखने को मिलता। गांव कस्बों में तब बच्चों के बहुत गार्जियन होते, यह डर भी लगा रहता कि कोई देखकर घर में शिकायत न कर दे। अब हमारे गांव कस्बे बदल गए हैं। दुनिया भाड़ में जाए, अब कोई किसी की परवाह नहीं करता।

इलाहाबाद ने ऐसी आजादी दी कि हर फिल्म देखता। लगभग रोज देखता। कॉलेज पहुंचने तक पॉकेट मनी बढ़ गई और आदत ऐसी बनी कि संगीत, गौतम, दर्पण या पायल, झंकार में एक दिन में दो - दो तीन - तीन फिल्में देख लेता। कम्प्यूटर भी मिल गया और इस वजह से सिनेमा देखने की आदत बेहिसाब खराब हुई। पर बैंडिट क्वीन भी देख ही लिया। मुझे याद नहीं कि मैंने अपनी कोई परीक्षा रातभर बिना फिल्म देखे दी हो। सत्या के बाद मनोज बाजपेई, अमिताभ आमिर शाहरुख अजय और गोविंदा की लिस्ट में शुमार हो गए।

शूल के समर प्रताप सिंह ने मनोज बाजपेई का और बड़ा दीवाना बना दिया।

शूल के बाद आजतक आजतक ऐसा मनोज बाजपेई की कोई फिल्म देखने से रह गई हो। कौन, अश्क, दिल पे मत ले यार, रोड, जुबैदा, पिंजर फिल्मों को सिनेमा हॉल में जाकर देखा। इनमें कुछ बेहद खराब फिल्में भी थीं। मैंने सबको देखा, क्योंकि मुझे फिल्में देखनी थी, सो सबको देखा। उस दौरान यह भी पढ़ा कि मनोज इंडस्ट्री के दूसरे अमिताभ बच्चन हैं।

मैं मनोज बाजपेई की फिल्मों का इंतजार करता, लेकिन उनके आने का सिलसिला वैसा नहीं था जैसा गोविंदा शाहरुख खान सलमान और तमाम दूसरे सितारों की फिल्मों का था। एक समय तो मनोज की फिल्में आनी बंद ही हो गईं। और इसकी वजह राजनीति और गैंग्स ऑफ वासेपुर आने के बाद मनोज के कुछ इंटरव्यूज में सामने आई। पता चला कि मनोज को हल्के फुल्के रोल ऑफर हो रहे थे, एक जैसे रोल ऑफर हो रहे थे जिसकी वज़ह से उन्होंने कई फिल्में छोड़ दी। राजनीति से पहले तक हमने मनोज को बहुत मिस किया।

भला हो रामगोपाल वर्मा, अनुराग कश्यप और आज की टेक्नोलॉजी का, जिसकी वजह से अब तक फिल्मों को देखने दिखाने का तरीका बदल गया है। मनोज बाजपेई की फिल्मों का सिलसिला फिर निकल पड़ा है। इस वापसी और सिलसिले के लिए मनोज को महीनों की गुमनामी झेलनी पड़ी, बी ग्रेड फिल्में करनी पड़ी, अय्यारी और सत्यमेव जयते जैसे बहुत सारे समझौते भी करने पड़े। लेकिन इसी सिलसिले में अलीगढ़, गली गुलियां भी गर्व करने के लिए है।

अब मुझे या मेरे जैसों के लिए खुशी की बात यह है कि मनोज बाजपेई का काम हमारी अपनी पॉकेट में भी आ रहा है। अमेज़न प्राइम की वेब सीरीज द फैमिली मैन से मनोज का पदार्पण डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी हो गया है। स्वाभाविक है कि मैंने देख भी लिया। मैंने देखा कि शूल का ड्यूटीमैन कम फैमिली मैन समर प्रताप सिंह, श्रीकांत तिवारी के रूप में अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं हटा है। कभी समर और आज का श्रीकांत तिवारी आम ईमानदार भारतीय की तरह पारिवारिक सामंजस्य बिठाते हुए अपने कर्तव्यों से जूझ रहा है।

श्रीकांत तिवारी तुम प्यार करने लायक इंसान हो। मैं तुम्हें समझ सकता हूं। शायद तुम्हें प्यार करने की यह भी एक वजह है द फैमिली मैन।

लिखना और भी बहुत कुछ चाहता हूं। मोबाइल पर उंगलियां जवाब दे रही हैं। बाकी फिर कभी। लव यू श्रीकांत तिवारी, द फैमिली मैन।

अनुज शुक्ला

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