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Wednesday 30 December 2009

सनकी ’सेना’ और चौपट मीडिया

अनिल चमड़िया -
मुंबई में हमला हुआ कुछ ने कुछ बोल तो कुछ ने कुछ नहीं. आईबीएन-लोकमत चैनल के मुंबई दफ़्तर पर शिवसैनिकों के हमले के विरोध का स्वर दबा नजर आया. शिवसैनिकों द्वारा कुछ वर्ष पूर्व मीडिया पर हमलों के विरोध को याद करें तो उसकी तुलना में इस बार का विरोध महज औपचारिक विरोध के रूप मे सामने आया. मुझे याद है कि १९९० के शुरूआती दिनों में हमने दिल्ली में सासंदों के रहने की जगह पर, शिवसैनिक संसदीय दल के नेता के घर का घेराव किया था. इस बार के फ़ीके विरोध के कारणों की तलाश हमें करनी चाहिए. पहली बार तो यह देखा गया कि मुंबई में टी.वी. चैनल पर हमले के बाद दूसरे दिन के समाचार-पत्रों में शिवसैनिक प्रमुख बाला साहब ठाकरे की तस्वीर छपी थी और उसके साथ उनका राम मंदिर बनाने का संकल्प प्रकाशित किया गया था. इस संकल्प को बहुत प्रमुखता से छापा गया था. संभव है कि यह संकल्प बहुत सारे समाचारपत्रों में नहीं छ्पा हो लेकिन ये तो तय है कि बहुत सारे समाचार पत्रों में इस हमले का विरोध प्रमुखता से सामने नहीं आया. क्या हम यह माने कि मीडिया में एक ऐसी प्रतिस्पर्धा शीर्ष पर है जिसके सामने लोकतांत्रिक चेतना और संवेधानिक सिद्धांतों पर हमलों पर जुड़े सवाल भी गौड़ हो गए हैं? क्या ये माना जाने लगा है कि इस तरह के हमलों से किसी संस्थान का ऐसा विग्यापन हो जाता है जो अंततः उसके खुद के व्यावसायिक घाटे और प्रतिस्पर्धा, संस्थान के व्यावसायिक फ़ायदे के रूप में परिवर्तित हो जाता है? क्या ये माना जाए कि मीडिया में साम्प्रदायिकता के सवाल पर एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींच चुकी है? सभी संस्थानों ने ये स्पष्ट कर दिया है कि वे साम्प्रदायिक शक्तियों के साथ हर स्तर पर हैं अथवा नहीं है? मुंबई के हमलों के बाद जिन संस्थानों के उत्पादों (माध्यमों) में हमले की तीखी या हल्की भर्त्सना के बजाए शिवसैनिकों को महिमामंडित किया गया . तो क्या मीडिया का इस कदर साम्प्रदायीकरण स्थापित हो चुका है कि लोक-लाज की भी परवाह नहीं है.?
दरअसल मुंबई के हमले ने कई ऐसे सवाल खड़े किए हैं जो मीडिया और लोकतंत्र के रिस्ते भविष्य में कैसे होंगे, इससे यह तय होता दिखाई दे रहा है. सवाल उनसे भी किया जा सकता है जो हमले के शिकार हुए हैं. आखिर क्या कारण है कि शिवसैनिकों के हमले का तो विरोध करना वे जरूरी समझते हैं लेकिन शिवसैनिकों जैसी उदंड्ड राजनीतिक शक्तियों को बेवजह महत्त्व देने से बाज नहीं आते रहे हैं. कई बार देखा गया है कि शिवसैनिकों की कुछ भी सामग्री को उसके मुखपत्र से लेकर प्रकाशित या प्रसारित की जाती रही है. यदि शिवसैनिक की जगह पर कोई ऐसी रजनीतिक शक्ति हो जो कि देश के गरीब-गुरबों की पक्षधर हो और वह तथ्यात्मक स्तर पर दुरूस्ती के साथ बड़े महत्त्वपूर्ण सवाल खड़ा करती है तो उसकी सामग्री को उसी व्याकुलता से छापने की जहमत दिखाई देती है? स्पष्ट जवाब है कि विल्कुल नहीं. बल्कि ये कहा जाता है कि इस तरह के खबरों की कोई जगह नहीं है. शिवसैनिकों का मुंबई और उसके आस-पास के इलाकों में जनाधार रहा है. क्या उस जनाधार में अपनी मार्केटिंग के लिए इस तरह की सामग्री प्रकाशित-प्रसारित करने की बेचैनी रहती है? शायद इसका भी जवाब नहीं में दिया जा सकता है. यदि शिवसैनिकों का प्रभाव सीमित क्षेत्र में है तो उसे राष्ट्रीय महत्त्व के रूप में क्यों स्थान दिया जाता रहा है? क्या मुंबई की वजह से? इसका भी स्पष्ट जवाब नहीं दिया जा सकता है. उसके हिंदुत्त्व की मार्केटिंग पूरे देश में की जा सकती है, इसीलिए उसे ये महत्त्व दिया जाता रहा है. लेकिन मार्केटिंग तो अपने राजनीतिक पूर्वाग्रहों को वैधता प्रदान करने का एक बहाना है. लोकतंत्र में मार्केटिंग के लिए क्या कुछ भी किया जा सकता है ? शिवसैनिक फ़ांसीवादी राजनैतिक विचारधारा के संघठन के दस्ते के सदस्य हैं. उनके राजनीतिक विचारधारा के विस्तार की गुंजाइश तैयार करना फ़ासीवाद के पक्ष में ही खड़ा होना होता है और फ़िर उसके विस्तार के साथ लोकतंत्र का अंत मान लेना चाहिए . ऐसा संभव नहीं है कि फ़ासीवादी विचारधारा के विस्तार के बाद मीडिया खुद को लोकतंत्र के चौथे खंभे के रूप में खड़ा रहने की आवाज लगा सकता है. साम्प्रदायिकता का विस्तार मीडिया और जिस लोकतंत्र के सहारे वह खड़ा है, उसके अंत की घोषड़ा के करीब पहुंचने का अप्रत्यक्ष उपक्रम है. मुंबई के हमले पर जितना शोर मचाना चाहिए था वह नहीं मचा तो ये इससे बड़े हमले की पृष्ठभूमि में शामिल होने की स्वीकृति देने जैसा है. मीडिया और तमाम लोकतंत्र प्रेमियों को कम से कम ये समझौता करना चाहिए कि इस तरह के हमले किसी पर हो उसका सब मिल-जुलकर विरोध करेंगे. ऐसी शक्तियों के विस्तार की गुंजाइश को यथासंभव कम किया जाएगा. मीडिया का हिंदुत्त्ववादी या इस्लामिक कट्टरपंथी होना लोकतंत्र और संविधान के बने रहने की बुनियादी शर्त पर हमला होता है.
(लेखक चर्चित पत्रकार एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के जनसंचार विभाग में प्रोफ़ेसर हैं)

Wednesday 16 December 2009

ख्वाब

ख़वाब मरते नहीं
ख़्वाब दिल है न आंखें न सांसें कि जो
रेज़ा-रे़जा हुए तो बिखर जाएंगे
जिस्म की मौत से भी ये मर जाएंगे
ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब तो रोशनी है नवा है हवा है
जो काले पहाड़ों से रूकते नहीं
जुल्म के दोज़ख़ों से भी फ़ुकते नहीं
रोशनी और नवा और हवा के अलम
मक़तलों में पहुंचकर भी झुकते नहीं
ख़्वाब हो हर्फ़ है
ख़्वाब तो नूर है
ख़्वाब सुकरात है
ख़्वाब मंसूर है
............
अहमद फराज , साभार इतिहास बोध से

Thursday 1 October 2009

भारत में रेडियों का इतिहास : जब छोटे-छोटे ट्रांसमीटर्स से प्रस्तुत किए जाते थे कार्यक्रम


खबरची. सूचनाओं का माध्यम समय के सापेक्ष बदलता रहा,वैज्ञानिक विकास ने संचार क्षेत्र को नयी उचांइया प्रदान कर दी. वैसे भारत में रेडियों सेवा ’जून १९२३’ में निजी क्लबों के माध्यम से ’बंबई’ से शुरू हुई. यह कोइ रेडियों स्टेशन नही था, जो निजी क्लबों के माध्यम से लोगों के सामने आया और इतिहास मे ’बॉम्बे रेडियों क्लब’ के नाम से मशहूर हुआ.इसकी तर्ज पर देश के बड़े महानगरों, नवंबर १९२३ मे कलकत्ता और मई १९२४ में मद्रास में निजी रेडियो क्लबों की स्थापना हुई. ये रेडियों के छोटे क्लब थे, जिसकी पहुँच तत्कालीन समाज के सभ्रांत लोगों तक सीमित थी.

छोटे-छोटे ट्रांसमीटर्स से प्रस्तुत किए जाते थे कार्यक्रम 
विश्लेषक इसे भारत में रेडियों का काल नहीं स्वीकार करते हैं. इन स्टेशनो में छोटे-छोटे ट्रांसमीटर्स के जरिए मनोरंजन के प्रोग्राम प्रस्तुत किए जाते थे जिनमे संगीत के कार्यक्रम प्रमुख थे.भारत में संगठित रेडियों की शुरुआत २३जुलाई १९२७’ को ’इण्डियन ब्राडकास्टिंग सर्विस’ के तहत बी.बी.सी. को ध्यान में रखकर शुरू किया गया. इस सेवा का उद्घाटन बंबई मे वायसराय ’लार्ड इरविन’ ने किया जो देश का पहला रेडियो स्टेशन था. आई.बी.एस. कंपनी ने २६ अगस्त १९२७ में कलकत्ता और ७ सितंबर १९२७ को मद्रास से रेडियो स्टेशनों के नए केंद्रों का विस्तार किया. तब रेडियों स्टेशनों के आय का मुख्य स्रोत उपभोक्ताओं द्वारा अर्जित लाइसेंस शुल्क होता था, इन्हे किसी भी प्रकार का अनुदान नही प्राप्त था.

जब वैश्विक मंदी में बंद होने पड़े थे रेडियो स्टेशन 
३० के दशक मे व्याप्त व्यापक वैश्विक मंदी के कारण ३० मार्च १९३० में इन स्टेशनों को बंद होना पड़ा. रेडियो के बंद हो जाने पर जनता में आक्रोश था जनता की भारी माँग को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने इसे अधिग्रहित कर, ’१ अप्रैल १९३०’ में ’इण्डियन स्टेट ब्राडकास्टिंग सर्विश’ के नाम से इसे फ़िर शुरू किया. सरकार ने बी.बी.सी. की तर्ज पर मार्च १९३५ में ’डिपार्टमेंण्ट आफ़ कंट्रोलिंग आफ़ ब्राडकास्टिंग’ की स्थापना की जिसका उद्देश्य प्रसारण का विकास एवं इसका सरकारी कार्यों मे बेहतर प्रयोग था. बी.बी.सी. में कार्यरत ’लियोनेल फ़िल्डर’ को ’३०अगस्त १९३५ को इसका कंट्रोंलर बनाया गया. इन्हें रेडियो का पितामह भी कहा जाता है,इनकी किताब ’नेचुरल वेंट’ भारतीय संदर्भ में रेडियों विषय पर लिखी गई पहली किताब हैं.

’१जनवरी१९३६’ रेडियों के इतिहास के लिए एक बडी़ घटना थी इसी दिन ’इण्डियन ब्राडकास्टिंग सर्विस’ ने रेडियो के दिल्ली स्टेशन कि स्थापना की गई. रेडियों पर समाचारों का पहला प्रसारण ’१९ जनवरी १९३६’ को हुआ और इसी दिन रेडियों कार्यक्रमों पर अधारित उर्दू में ’आवाज’ और हिंदी में ’सारंग’ पत्रिकाओं का प्रकाशन सरकार द्वारा किया गया.

इस तरह मिला ऑल इंडिया रेडियो का नाम 
वायसराय ’लाँर्ड लिनलिथगो’ को एक कार्यक्रम में बातचीत के दौर में ८जून १९३६ को रेडियो का व्यापक नाम ’आल इण्डिया रेडियो’ सूझा जो आज भी उसी नाम से जाना जाता है. १ अगस्त १९३७ में ’सेंट्रल न्यूज आर्गनाइजेशन’ की स्थापना हुई. रेडियो का विकास तीव्र गति से जारी रहा, अंग्रेजी नियंत्रण में होने के कारण स्वातंत्र्य आंदोलन मे इसकी कोई भुमिका नही थी लेकिन सुचना की तीव्र संप्रेषणियता से यह लोकप्रियता प्राप्त कर चुका था. रेडियो के कलेवर मे तेजी से बदलाव हो रहा था.

इस तरह शुरू हुआ पहला न्यूज बुलेटिन 
१ अक्टूबर १९३७ को विदेशों में भारत का पहला न्यूज बुलेटिन प्रसारित हुआ.संसार विश्व युद्ध की विभीषिका झेल रहा था अग्रेजी सेना के लिए बडी़ संख्या मे दक्षिण एशिया के लोग लड़ रहे थे, युद्ध संबंधी खबरों के लिए इसका प्रसारण आवश्यक हो गया था.पहला न्यूज बुलेटिन अफ़गानिस्तान की ’पश्तों’भाषा मे प्रसारित किया गया. न्यूज की दो डिविजंश सामने आई, प्रथम ’नेशनल सर्विस डिविजन’ एवं द्वितिय ’इक्सटर्नल सर्विस डिविजन’. एक स्टेशन से संगठित कार्यक्रम दूसरे स्टेशन पर प्रसारित( रिले सर्विस) करने की शुरुआत १८जनवरी १९३६ को हुई. नवंबर १९३७ में ’डिपार्टमेण्ट आफ़ कम्युनिकेशन’ कि स्थापना हुई. जो रेडियो के कार्यक्रमों को नियंत्रित करती थी. बाद में २४अगस्त १९४१ को इसे ’इन्फ़ाँर्मिंग एण्ड ब्राडकास्टिंग’ विभाग के अंदर समायोजित किया गया.

आजादी के समय भारत में थे ६ रेडियो स्टेशन 
’१२नवंबर’ को रेडियो के ’पब्लिक सर्विस डे’ के रूप में मनाया जाता है, १२नवंबर १९४७ को गांधी जी ने रेडियो पर पहली और आखिरी बार संबोधन किया था . अगस्त १९४७ में आजादी के वक्त भारत मे कुल ६ रेडियों स्टेशन थें, इन ६ स्टेशनों मे चारों महानगरों के अलावा त्रिचुरापल्ली और लखनऊ रेडियो स्टेशन थे. बटवारे मे पकिस्तान को लाहौर,ढाका और पेशावर के रेडियों स्टेशन प्राप्त हुए थे. मैसूर और बडौ़दा रियासतों के अपने निजी स्टेशन थे जिसे आजादी के बाद में पटेल जी ने अधिग्रहित कर लिया था. उत्तर प्रदेश के नैनी(इलाहाबाद) में ईसाइ मिसनिरिज ने भी १९३५ में अपना निजी रेडियों स्टेशन स्थापित किया था.

Wednesday 2 September 2009

भारत:१८वीं सदी की पत्रकारिता

पत्रकारिता में समय के साथ इसके कलेवर और चरित्र में बहुत हद तक परिवर्तन हुआ है, यह बहस का विषय हो सकता है कि पत्रकारिता का जो वर्तमान स्वरूप है क्या वह स्वस्थ पत्रकारिता है? भूमंडलीकरण में चिजें इतनी तेजी के साथ बदली कि कुछ समझने का मौका ही हाथ नहीं लगा सिवाय इसके की कभी न थमने वाली एक बहस कि शुरुआत हो गयीं . वैसे तो पत्रकारिता को लोकतंत्र का ’तथाकथित’ चौथा स्तम्भ कहा जाता है, गौर करने वाली बात है की यह कोई विधायी संस्था नही,पत्रकारिता ने अपने लिये कुछ स्वघोषित मानदंड तय किये, अपने ही द्वारा कुछ उद्देश्यो को गढा गया, शायद वह ’देश-काल’ की जरुरत थी जहां संस्थागत या पेशागत शर्तें अनिवार्य नही थी. सभी को ब्यष्टि लक्ष्यों कि चिन्ता थी. यह वह दौर था जब पत्रकार अपने लेखों मे सीधा-सीधा विरोध दर्ज नही करते थे, मसलन प्रतिको और बिम्बो के सहारे, हुकुमत के खिलाफ़ आवाज उठाते थे. चुँकी यह विषय इतना नया (भारत में) था की इसकी पहुंच समाज के एक खास तबके तक सिमित थी.
वैसे तो भारत में पत्रकारिता कि शुरूआत अंग्रेजों के संरक्षण में २९ जनवरी १७८० ई. को’हिकीज बंगाल गजट’ या ’कलकत्ता जनरल एडवर्टाइजर’ के रूप मे हुआ.बाद में ’इडिंयन गजट’ ’कलकत्ता जनरल’ और ’बंगाल गजट’ के रूप में अनेक पत्रो का प्रकाशन किया गया, ऐसे पत्र-पत्रिकाओं को अंग्रेजों का संरक्षण प्राप्त था. अधिकांश पत्रो का प्रकाशन ईसाई मिशनरियों के माध्यम से होता था,जिसका मूल उद्देश्य अंग्रेजी राज्य की महानता और देश कि गौरवशाली साझी तहजीब को नष्ट करना था,इन पत्रों की भाषा अंग्रेजी थी. तत्कालिन समाज के प्रमुख समाज सुधारक नेता’राजा राम मोहन राय’ को इन अखबारों का दृष्टिकोण खटकता था,उन्होनें अंग्रेजी सरकार से भारतीय पत्र निकालने की अनुनयशील मंशा जाहिर की जिसे अंग्रेजों ने खारिज कर दिया.’सर टामश मुनरो’ ने भारतीय अखबारों के प्रकाशन की स्वतंत्रता को,ब्रिटिश शासन के लिए खतरा माना था (भविष्य में ऐसा हुआ भी).अखबारों के प्रति अंग्रेजों का यह नजरिया सदैव बना रहा. भारत के स्वतंत्रता आदोंलन मे भारतीय भाषाओं के अखबारों की अहम भूमिका रही है,खासतौर से हिंदी और बांग्ला में निकलनें वालें पत्रों की.३० मइ १८२६ को कलकत्ता में ’युगल किशोर शुक्ल’ के सम्पादन में, जो अपने स्थापना के डेढ़ सालों मे ही बंद हो गया,एक ऐसी परम्परा को गढ़ने मे कामयाब हो चुका था, जिसनें भारत के आने वाले दिनों मे क्रान्ति को बढाने का काम किया.’१८६८ के कालखंड तक भारत मे हिंदीं के अनेक पत्र, जैसे-बनारस अखबार,प्रजा हितैषी,ग्यानदीप,बुद्धिप्रकाश,कविबचन सुधा जैसे दसों पत्र प्रकाशित होने लगें.इन तमाम अखबारों की पृष्ठभूमि ज्यादातर साहित्यिक या धार्मिक रही और यें अखबार अधिकांश दो भाषाओं मे प्रकाशित किये गयें. पुर्णरूपेण हिंदीं का पहला अखबार ’१८८५’ में कालाकांकर के राजा के संरक्षकत्व में ’हिंदोस्थान’ था.
अंग्रेजों ने भारतीय अखबारों के विकास में हमेशा बाधा उत्पन्न करने का प्रयाश किया.१८५७ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम(जिसे कुछ इतिहास कार रियासतों का बिद्रोह कहते है) मे, हिंदी और उर्दु में प्रकाशित ’पयाम-ए-आजादी’ को अंग्रेजों की प्रेस बिरोधी क्रूर नीतियों का सामना करना पड़ा.इसकी क्रन्तिकारी बिचारधारा से आजिज आकर अंग्रेजों ने,उन ब्यक्तियों को जिनके पास से इस अखबार की प्रतियाँ प्राप्त होतीं उन्हे गिरप्तार कर कठोर से कठोर सजा दी जाती.
धीरे-धीरे समय बदलता गया,पुरानें अखबारों का बंद होना और नये अखबारों का चालु होना जारी रहा. कालातर मे यंग इंडिया, हरीजन, केसरी, १९२० मे बनारस से प्रकाशित ’आज’, युगांतर(बरीन्द्र कुमार घोष के संपादकत्व मे क्रन्तिकारियों का पत्र)जैसी कुछ प्रमुख पत्रों ने अपनी तिखी शैली से भारतीयों को राजनैतिक एवं सामाजिक रूप से उद्वेलित किया.इनमे से कई अखबार ’१९१०’ के कठोर ’प्रेस-एक्ट’ का शिकार होकर बंद हो गये. युवाओं मे स्वातंत्र्य चेंतना का प्राद्रुभाव इन्ही पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से हुआ.