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Friday 31 December 2010

महाराष्ट्र राज्य में कुपोषण का कोढ़

अनुज शुक्ला -
महाराष्ट्र की गणना भारत के चंद विकसित राज्यों में की जाती है और माना जाता है कि यह राज्य तेजी के साथ मानवीय सुधार की आवश्यक जरूरतों को पूरा कर रहा है। लेकिन महाराष्ट्र का दूसरा पक्ष भी है। यहां मुंबई, पुणे, ठाणे और नागपूर का महानगरीय उत्स तो है ही जिसकी रंगिनियां देश-दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करती हैं, साथ ही सर्वाधिक किसान आत्महत्याओं वाले विदर्भ के कई जिलों के साथ विपन्नता को भोगने के लिए शापित कोंकण का क्षेत्र भी। सांप्रदायिक राजनीति की धारा, कर्ज, किसान आत्महत्या, विस्थापन, और घोटालों के शोर के बीच कई आवाज़े महाराष्ट्र की हद से बाहर नहीं निकाल पाती। लोगों के जेहन में महाराष्ट्र का नाम आने पर चका-चौंध मुंबई और पुणे का कभी न थमने वाला महानगरीय उल्लास ही नजर आता है।
बहरहाल, दिसंबर के पहले पखवाड़े में दुनिया के आधुनिकतम और संपन्न कहे जाने वाले शहर मुंबई में बाल कुपोषण से 16 बच्चों के मरने की खबर निकलती है। मीडिया की रिपोर्टों ने यह भी खुलासा किया कि मुंबई की मलिन बस्तियों में रहने वाले 40-50 फीसदी बच्चों में बाल कुपोषण के लक्षण विद्यमान है। कुपोषण की घटनाएं, मुंबई या महाराष्ट्र के लिए नई बात नहीं। 1993 में विदर्भ के मेलघाट में कुपोषण के कारण होने वाली मौतों ने इस पहलू पर मीडिया के माध्यम से देश का ध्यान अपनी ओर खींचा था। यह तत्कालीन राजनीति के बहस के केंद्र में थी। सरकारी आंकणों को आधार बनाकर विदर्भ के इस पिछड़े क्षेत्र मेलघाट को ले तो वहां 1993 से लेकर अब तक 337 बच्चे कुपोषण के कारण मर चुके हैं। ऐसा नहीं कि कुपोषण की घटनाएं पिछड़े क्षेत्रों के लिए ही चिंता का सबब हैं, इसकी चपेट में राज्य के मुंबई, अहमद नगर, नागपूर, पुणे और नासिक जैसे बड़े शहर भी हैं।
गौरतलब है कि जिस राज्य में लवासा जैसी आधुनिकतम सुख सुविधा युक्त कृतिम शहर बसाया जा रहा है वहां बाल कुपोषण से होने वाली मौतों से निपटने के लिए कोई ठोस उपाय नहीं है। आखिर एक विकसित राज्य कुपोषण के कोढ़ को मिटाने में क्यों नाकाम रहा? सवाल बहुत मामूली है। और ऐसा नहीं की इसका जवाब मौजूद नहीं। बात करने की है, नागरिक और समाज के प्रति लोकतान्त्रिक उत्तरदायित्व के निर्वहन की है। विकसित समाज की परिभाषा में औद्योगिकीकरण और तकनीकी विकास के साथ ही स्वास्थ्य और परिवार कल्याण की बुनियादी जरूरत पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। यह एक लोकतान्त्रिक सरकार की अपने नागरिकों के प्रति विधिक ज़िम्मेदारी है। 2004 में सुशील कुमार शिंदे के शासन में बाल कुपोषण के कारण मौतों का सिलसिला बढ़ा था। तब सरकार ने मामले की जांच और कारणों का पता लगाने के लिए अभय बंग कमेटी का गठन किया । इस ‘चाइल्ड मोरटेलिटी एवुलेशन कमेटी’ ने अपनी 55 पन्ने की जांच रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसमे चौंकाने वाले तथ्यों का रहस्योद्घाटन हुआ। कमेटी ने माना कि राज्य में सालाना - ग्रामीण क्षेत्रों में 82000, आदिवासी क्षेत्रों में 23500, और शहरों की मलिन बस्तियों में 56000 बच्चे असमय काल के गाल में समा जाते हैं। इसमें अस्सी प्रतिशत मौतें बाल कुपोषण और कुछ डायरिया और निमोनिया जैसे मामूली रोगों के इन्फेक्सन के कारण होती है।
कागजी रूप से देंखे तो स्वास्थ्य मंत्रालय ने बाल कुपोषण से बचाव के लिए अंतरक्षेत्रीय कार्यकलाप, नव जन्मजात और बीमार बच्चों के लिए सामुदायिक स्तरीय परिचर्या, प्रदान करना और बीमार बच्चों के लिए सांस्थानिक परिचर्या प्रदान करने हेतु कई योजनाओं पर अमल किया गया है। स्वक्ष पेयजल, साफ सफाई और पोषण की व्यवस्था की सुलभता पर बल दिया गया । हाशिये के लोगों के नाम पर नागरिक स्वास्थ्य और परिवार कल्याण के लिए बजट में लगातार इजाफा किया जा रहा है फिर भी कुपोषण या इन्फेक्शन के कारण होने वाली मौत की घटनाएं थमने का नाम क्यों नहीं ले रही हैं। क्या राज्य में परिवार कल्याण और स्वास्थ्य के लिए सरकारी योजनाओं का ठीक ढंग से समायोजन किया जा रहा है?
राज्य के अधिकांश हिस्सों में अभी तक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की ठीक-ठाक व्यवस्था नहीं की गई है। जहां प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं भी वहां डाक्टर ही मौजूद नहीं है। या तो डॉक्टर सरकारी सेवाएं देने की बजाय निजी प्रेक्टीस में मशगूल हैं। विदर्भ, कोंकण या राज्य के अन्य दूर - दराज इलाकों की हालत कुछ ज्यादा ही नाजुक है। जबकि राईट टू फूड और राईट टू हेल्थ के नारे के बीच परिवार कल्याण और स्वास्थ्य का हवाला देते हुए 2004-05 में केंद्र की सरकार ने स्वास्थ्य बजट को आठ हजार करोड़ से बढ़ा कर इक्कीस हजार करोड़ रूपये कर दिया था। इस मद के अंतर्गत महाराष्ट्र को एक मोटी रकम मिलती है। आखिर इन सरकारी कवायदों का फायदा ही क्या, जब आम आदमी तक इनका लाभ ही नहीं पहुँच रहा । सरकार की गैर ज़िम्मेदारी और स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के कारण बड़े पैमाने पर मौतें बढ़ी हैं। मुंबई जैसे शहर में बाल कुपोषण के कारण होने वाली मौत सरकारी मशीनरी की अक्षमता की ओर इशारा करती हैं। एक रईश शहर पर उपहास भी।
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