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Thursday, 12 March 2015

टांडा: कई पीढ़ियों से रामनामी गमछे के काम में लगा है मुस्लिम परिवार

शाह आलम।
कहानियां हमेशा दो तरह की होती हैं, एक ऐसी कहानी जिसका वजूद तो नहीं होता, लेकिन गढ़ दिया जाता है। इसे जहर के कारोबार के लिए सुनाया जाता है और इसका खूब ज़ोर-शोर से प्रचार भी किया जाता है। कुछ कहानियां ऐसी भी होती हैं जिनके जिंदा किरदार होते हैं, लेकिन साझी विरासत की इन कहानियों को उतनी दिलचस्पी से सुनाया नहीं जाता। इस खतरनाक समय में हम आपको ऐसी ही कहानी के एक किरदार से मिलवा रहे हैं, जो बड़ी खामोशी से अपने काम में जुटे हुए हैं। हालांकि बदलते माहौल से परेशान वे भी हैं। बहरहाल, हमारी साझी विरासत का एक गाढ़ा यकीन है अंबेडकर नगर के इस शख्स की कहानी। पूर्वी उत्तर प्रदेश में अंबेडकर नगर नाम का एक जिला है। यहां का एक कस्बा 'टांडा' बुनकर नगरी के रूप में भी जाना जाता है। वैसे आपने टांडा का नाम सांप्रदायिक दंगों के कारण भी सुना होगा। टांडा का जो किस्सा हम आपको बताने जा रहे हैं वह उस सांप्रदायिक अस्तित्व पर करारी चोट करने के लिए काफी है। बताते चलें कि टांडा में कई तरह के कपड़ों की बुनाई की जाती है। लेकिन यहां कपड़ों पर छपाई का काम केवल एक ही परिवार करता है। बुनाई के अधिकांश काम में यहां के कई मुस्लिम परिवार लगे हैं। कपड़ों पर छपाई का काम करने वाले परिवार के मुखिया 60 वर्षीय अब्दुल वहीद हैं। अब्दुल उसी रामनामी गमछे पर छपाई का काम करते हैं, जिसे ओढ़कर आपने अक्सर दंगाइयों को अमन के खिलाफ काम करते हुए देखा होगा। अब्दुल का यह का पुश्तैनी पेशा है, वे अपने इस पुश्तैनी काम पर गर्व करते हैं। अब्दुल बताते हैं कि किस तरह उनके परिवार में यह पेशा पीढ़ी दर पीढ़ी होते हुए उन तक पहुंचा। यहां टांडा में अब्दुल की पहचान उनका पेशा और रामनामी गमछे का काम ही है। अगर आप ‘टांडा’ में कहीं खड़े होकर इस बारे में दरियाफ्त करें तो आप हैरान हो जाएंगे कि बच्चे-बूढ़े सभी बड़े सम्मान से आपको 'राजा मैदान के पास अब्दुल भाई के यहां पहुंचा देंगे। गौरतलब है कि इस मैदान के नजदीक ही टीन की एक छत के नीचे अब्दुल भाई की दुकान है, जहां वे अपने काम में मशगूल दिखाई पड़ते हैं। अब्दुल भाई बताते हैं कि वे दिन में करीब तीन सौ पीस रामनामी गमछे की छपाई कर लेते हैं। इस काम में उनके घर के बच्चे भी उनका हाथ बंटाते हैं। घर पर भी लगभग 250 पीस रामनामी गमछे की छपाई का काम पूरा होता है। अब्दुल के मुताबिक पूरे परिवार का खर्चा इसी काम से चलता है। उनकी खुशी सिर्फ रामनामी गमछे की छपाई भर नहीं है, बल्कि वे इस बात पर भी काफी खुश होते हैं कि उनका बनाया गमछा देश के कोने-कोने में जाता है। आप भी देश की धार्मिक नागरियों में उनके बनाए गमछे को देख सकते हैं। अब्दुल बताते हैं कि मैं यह काम 45 साल से करता आ रहा हूं। वे एक गमछे की छपाई का एक रुपया लेते हैं। अब्दुल के मुताबिक कम पैसे इसलिए लेता हूं ताकि काम बराबर मिलता रहे और बेकारी न हो। हालांकि टांडा में बदलते हालात से अब्दुल भी काफी सहमे हुए हैं। अब्दुल के मुताबिक ‘इधर एक साल से यहां कब क्या हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। पता नहीं किसकी नज़र लग गई है इस शहर को’ आपस की लड़ाई और ‘गैरजरूरी सियासत’ के चक्कर में यहां के सब काम धंधे बर्बाद हो जाएंगे। इससे हम जैसे गरीब ही परेशान होंगे।

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