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Sunday, 1 March 2015

#सिर्फएकट्रेनबम्बईपहुंचासकतीहैसोचाहीनहींकभी

अनुज शुक्ला. जब मैं कॉलेज में था, तो मैं एक भ्रम (भ्रम अब मानता हूँ :p) का शिकार हो गया था. पहला भ्रम यह था कि निराला को मुझसे बेहतर कोई नहीं समझ सकता. और दूसरा भ्रम जो मैंने पाला वह खुद के आला गीतकार होने का था. बहरहाल, कॉलेज निकलने के कुछ ही दिनों में पहला भ्रम टूट गया लेकिन दूसरा वाला भ्रम कई दिनों तक मेरे पीछे पड़ा रहा. इस बीच भोजपुरी सिनेमा में भी काफी क्रांतिकारी :p बदलाव हो रहे थे, मैंने भी सोचा कि कुछ पॉपुलर किस्म का लिखा जाए, लिखा भी मैंने ( गवाही Arimardan​ और jitendra से ली जा सकती है, मेरी कविताई के कारण इनकी कई रातें खराब हुई). दौरे भी पड़ने लगे. लड़कियां नहीं कविता के चक्कर में कई-कई किमी पैदल कछारों में टहल आता. कुछ हाशिए के साहित्यकारों (स्वाभाविक रूप से इनमें कवि ज्यादा थे) की गोष्ठियां अटेंड करने लगा. हर इलाहाबादी कवि की तरह खुद की नजर में उम्दा ही लिखा (अभी भी इस पर मैं शक नहीं करता). फिर लगा कि बम्बई निकल जाऊ, जो लिखा जा रहा है वह अच्छे से में भी कर सकता हूं. डायरियां भरता रहा और सिर्फ सोचता ही रहा. कभी यह दिमाग में नहीं आया कि बम्बई एक ट्रेन पकड़कर पहुंचा जा सकता है. या मैंने सोचना नहीं चाहा. बहरहाल, एक दिन पद्य से ही जी भर गया. पूरी डायरी फाड़ कर जला दी. जितना दिमाग सहेज सकता था, याद उतना ही रह पाया (आज भी याद है तमाम). यदा-कदा कभी कभार कह लेता हूँ एकांत में अब भी, बहुत जरूरी लगा तो ही नोट करता हूँ. आज अच्छा लगता है जब मेरी तमाम पुरानी कविताएं किसी धन्य युवा कवि के काम आ जाती हैं. पुनश्च : Keshaw Dubey​ अबकी दिल टूटा तो कुछ खतरनाक जलेगा, इतना समझ के रखियो

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