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Tuesday 20 April 2010
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता यूनिवर्सिटी में परीक्षा घोटाला
(मंगलवार /20 अप्रैल 2010 )
परीक्षा घोटाले को लेकर अब देश में पत्रकारिता की शिक्षा मुहैया कराने में अपना अलग मुकाम रखनेवाली माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता यूनिवर्सिटी भी अछूती नहीं रही . दैनिक भास्कर डाट कॉम पर छपी खबर के मुताबिक इस यूनिवर्सिटी में फर्जी तरीके से परीक्षा परिणाम तैयार किया जा रहें थे . यहां परीक्षा विभाग के कुछ कर्मचारी न केवल उत्तर-पुस्तिकाओं में फेरबदल करवाकर फेल छात्रों को पास करवा रहे थे बल्कि सालों से अंकसूचियों में नंबर बढ़वाने का खेल भी कर रहे थे।बाद में इस गोरखधंधे से हो रही कमाई के बंदरबांट को लेकर कर्मचारियों के बीच विवाद हुआ तो मामला विश्वविद्यालय प्रशासन तक जा पहुंचा। जांच के बाद जब मामले की पुष्टि हो गई तो विश्वविद्यालय प्रशासन ने गुपचुप तरीके से 6 कर्मचारियों की सेवा समाप्त कर इस प्रकरण पर पर्दा डाल दिया।
इस मामले को लेकर जब तत्कालीन परीक्षा नियंत्रक जे.आर. झणाने ने जाँच शुरू की कई कर्मचारियों के नाम सामने आए। पकड़े गए कर्मचारियों में से भृत्य मनीष सेन और भरत सिंह ने अपनी गलती मानते हुए अपने साथ ग्यासउद्दीन अहमद, प्रमोद गजभिए और प्रसन्न दंडपाल के भी शामिल होने की बात कही। इनमें से तीन कर्मचारियों ने आरोपों को नकारा। परीक्षा शाखा की जांच में सामने आया कि मूल उत्तर-पुस्तिकाओं के पेज निकालकर उसमें पास छात्रों की कॉपी के पेज लगा दिए जाते थे।
अपनी जाँच रिपोर्ट में यूनिवर्सिटी ने 6 कर्मचारियों की सेवा समाप्त कर दी। इनमें से कुछ कर्मचारियों ने विवि की इस कार्रवाई को शासन को शिकायत कर चुनौती दी थी। इसके बाद इस मामले में विवि प्रशासन ने फिर से जांच कराने का फैसला लिया। पूरे मामले में कार्रवाई को बिलकुल गोपनीय रखा जाकर मामले पर परदा डाला जा रहा है। हालांकि अब मामले की शिकायत कुलपति प्रोफेसर वीके कुठियाला के पास भी पहुंची है। वे खुद भी इस मामले की अंदरूनी पड़ताल किसी अन्य विवि के जांच अधिकारी से करवाने की बात कह रहे हैं।
इस घोटाले को लेकर दैनिक भास्कर ने कुलपति वी. के. कुठियाला से सीधी बात की तो उन्होंने बताया की वे इस मामले की जाँच करवा रहें हैं . हालाँकि उन्होंने कहा यह प्रकरण मेरे यहां नियुक्त होने के पहले का है, कार्रवाई की जा रही है।
आगे इस प्रकरण में क्या हुआ है?
प्रकरण की गोपनीय जांच किसी अन्य विश्वविद्यालय के अधिकारी से करवा रहे हैं। जो जांच रिपोर्ट आएगी, उस पर कार्रवाई की जाएगी।
हालाँकि जब कुलपति कुठियाला से यह पूछा की
इसमें से एक कर्मचारी रजिस्ट्रार के निवास पर रसोइया बन गया है?
तो उन्होंने कहा इस बारें में उन्हें �इसकी जानकारी मुझे नहीं है।
इस सम्बन्ध में दैनिक भास्कर ने यूनिवर्सिटी के रजिस्टार से भी बात की .
परीक्षा विभाग से कर्मचारियों को क्यों निकाला गया है?
�अक्टूबर 09 में कुछ छात्रों की उत्तर-पुस्तिकाओं में गड़बड़ की जांच तत्कालीन रेक्टर ओपी दुबे ने परीक्षा नियंत्रक झणाने से जांच करवाने के बाद 6 कर्मचारियों को निकाला था। प्रकरण की नए सिरे से जांच कुलपति कार्यालय से करवाई जा रही है। कुछ कर्मचारियों ने छात्रों से पैसे लिए जाना स्वीकार भी किया है।
यह काम काफी पहले से हो रहा था?
�मैं तो उस समय यहां आया ही था। झणाने मेडम, जो कि परीक्षा नियंत्रक थीं, ने मामले की जांच करवाई थी।
इनमें से एक भृत्य आपके निवास पर रसोइया है?
�उसे सुधरने का एक मौका दिया था, जिसे कल ही हटा रहे हैं।
(साभार - भास्कर )
Sunday 18 April 2010
सवाल फ़िर उठे हैं
मैंने पिछ्ले पंद्रह दिनों में इसे छापने के लिए तीन समाचार पत्रों को भेजा. ये वे समाचार पत्र है जो जन सरोकारों की दुहाई देते फ़िरते है. यहा असहमति को कितना जगह दिया जाता है, मेरी समझ में आ गया.पहले विनायक सेन, सीमा आजाद और अब अरूंधति को लेकर सत्ता का नजरिया साफ़ दिखता है इस मुहिम को आगे बढाने का जिम्मा मीडिया ने अपने उपर ले लिया है. खैर यह सरकार असहमति के स्वर को सुनने की आदी नहीं रही है इसे तो सिर्फ़ और सिर्फ़ बारूद की आवाज सुनाई देती है........ मीडिया को भी .......
अनुज शुक्ला -
सवाल फ़िर उठे हैं, दंतेवाड़ा में नक्सल विद्रोहीयों ने बड़ी तादाद में अर्द्ध-सैनिक बल के जवानों की हत्या कर दी। हत्या से एक दिन पहले, गृहमंत्री पी.चिदंबरम ने बयान दिया था कि ’नक्सली डरपोक हैं’। आपरेशन ग्रीन हंट के बाद लगातार राज-सत्ता, नक्सलियों को उकसाने का प्रयास कर रही है। यह सरकार की उस बड़ी मुहिम का हिस्सा है, जिसमें वह नक्सली समस्या के खिलाफ़, व्यापक जन-समर्थन का आधार तैयार कर रही है। जिसका उपयोग करके सत्ता के पहरेदारों की कारगुजारियों को जायज ठहराया जा सके और तमाम बड़े सवाल जो नक्सल समस्या की जड़ से निकल कर सामने आए हैं उन पर पर्दा डाला जा सके।
दरअसल हाल के कुछ महीनों में, हत्या-प्रतिहत्या का जो दौर सामने आ रहा है उसके कई निहितार्थ हैं। ’ग्रीन बेल्ट’ की अमूल्य खनिज संपदा का दोहन, इन घटनाओं की मूल जड़ है। पिछ्ले पांच वर्षों में भारत में अरबपतियों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अरबपतियों की संपत्ति का कुल हिस्सा देश की सकल घरेलु उत्पाद (25%) के बराबर है जो मात्र १०० उद्योगपतियों की घोषित संपत्ति है। अधिकांश उद्यमी वे लोग हैं जो किसी न किसी रूप से नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में वन-संपदा के दोहन का व्यवसाय कर रहे हैं। २००८-२००९ के वित्त वर्ष में लगभग ९०% की वृद्धि दर से इनकी कमाई का इजाफ़ा दर्ज हुआ। इसमें सरकार की औद्योगिक नीति का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। वेदांता जैसी क्म्पनियों को सस्ते दरों पर खनिज क्षेत्र लीज पर दिया गया। इस संदर्भ पर मीडिया ने सरकार को सवालों के दायरे में खड़ा किया। चिदंबरम के वित्तमंत्री से गृहंमंत्री बनने तक के सफ़र पर भी सवालिया निशान लगे। एक तबके का मानना था कि यह सबकुछ कार्पोरेट घरानों के इशारे पर हुआ (इसका विस्तार से जिक्र अरूंधति राय ने अपने लेख ’धरती सुलग रही है’ में किया है।) सरकार जिस लाल गलियारे की बात करती आयी है उस क्षेत्र में औद्योगिक समूहों को आदिवासियों के जबरदस्त लोकतांत्रिक प्रतिरोध (नक्सल आंदोलन नहीं) का सामना करना पड़ा है। कई मर्तबा भ्रष्टाचार की बातें भी सामने आयीं, उद्योगपतियों के इसारे पर- पालिटिक्स, माफ़िया और पुलिस के गठजोड़ ने मिलकर इन इलाकों में आदिवासियों के खिलाफ़ जबरदस्ती की। वहा इतना सब कुछ होता रहा, इसकी सूचना कभी बाहर नहीं निकली। यह तभी संभव हुआ जब बड़ी वारदाते हुईं। मीडिया में आयी सूचनाएं भी एकपक्षीय दबाव से मुक्त नहीं मानी जा सकती।
खनिज दोहन की कमाई का एक बड़ा हिस्सा देशी और विदेशी कंपनियों के खाते में दर्ज होता है, सरकार को मामूली राजश्व की प्राप्ति होती है। अब सवाल उठता है कि औद्योगिक विकाश के नाम पर विस्थापन का दंश झेल रहे आदिवासियों के हिस्से क्या आया? गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा, विस्थापन और उत्पीड़न का दर्द। यहीं से भावनात्मक अलगावाद की शुरूआत उन्हें प्रतिशोध के हद तक ले जाती है। ऐसी आशा क्यों की जाती है कि सिर्फ़ आदिवासी ही विकास के इस अमेरिकी माडल की कीमत चुकाएं? जंगलों में रह रहे आदिवासियों के परंपरागत व्यवसाय खत्म होते जा रहे हैं, वे इस विकाश के कारण तेजी से बेरोजगार हुए हैं। जो अजिविका का साधन हुआ करता था आज वह दूसरों के कब्जे में है। स्थिति को सुधारने के ठोस प्रयास नहीं हुए। वैकल्पिक रोजगार के साधन भी मुहैया नहीं करवाए गए और जिम्मेदार सरकार के मुखिया यह घोषणा करते रहे कि ’जो हमारे साथ नहीं वह नक्सलियों के साथ है’ से मनःस्थिति को समझा जा सकता है।
नक्सलियों का नरसंहार के लिए चिदंबरम जी के पास आपरेशन ग्रीन हंट का फ़ार्मूला तो है पर उनकी बदहाल स्थिति सुधारने का एजेण्डा नहीं। देश में न्याय पूर्ण व्यवस्था के निर्माण के लिए प्रासंगिक हो गया है कि लोग आगे आकर खनिज संपदा के लूट में शामिल छ्द्म नेताओं और कार्पोरेटीय गठजोड़ के षडयंत्र को उजागर करे।
Anuj4media@gmail.com
अनुज शुक्ला -
सवाल फ़िर उठे हैं, दंतेवाड़ा में नक्सल विद्रोहीयों ने बड़ी तादाद में अर्द्ध-सैनिक बल के जवानों की हत्या कर दी। हत्या से एक दिन पहले, गृहमंत्री पी.चिदंबरम ने बयान दिया था कि ’नक्सली डरपोक हैं’। आपरेशन ग्रीन हंट के बाद लगातार राज-सत्ता, नक्सलियों को उकसाने का प्रयास कर रही है। यह सरकार की उस बड़ी मुहिम का हिस्सा है, जिसमें वह नक्सली समस्या के खिलाफ़, व्यापक जन-समर्थन का आधार तैयार कर रही है। जिसका उपयोग करके सत्ता के पहरेदारों की कारगुजारियों को जायज ठहराया जा सके और तमाम बड़े सवाल जो नक्सल समस्या की जड़ से निकल कर सामने आए हैं उन पर पर्दा डाला जा सके।
दरअसल हाल के कुछ महीनों में, हत्या-प्रतिहत्या का जो दौर सामने आ रहा है उसके कई निहितार्थ हैं। ’ग्रीन बेल्ट’ की अमूल्य खनिज संपदा का दोहन, इन घटनाओं की मूल जड़ है। पिछ्ले पांच वर्षों में भारत में अरबपतियों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अरबपतियों की संपत्ति का कुल हिस्सा देश की सकल घरेलु उत्पाद (25%) के बराबर है जो मात्र १०० उद्योगपतियों की घोषित संपत्ति है। अधिकांश उद्यमी वे लोग हैं जो किसी न किसी रूप से नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में वन-संपदा के दोहन का व्यवसाय कर रहे हैं। २००८-२००९ के वित्त वर्ष में लगभग ९०% की वृद्धि दर से इनकी कमाई का इजाफ़ा दर्ज हुआ। इसमें सरकार की औद्योगिक नीति का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। वेदांता जैसी क्म्पनियों को सस्ते दरों पर खनिज क्षेत्र लीज पर दिया गया। इस संदर्भ पर मीडिया ने सरकार को सवालों के दायरे में खड़ा किया। चिदंबरम के वित्तमंत्री से गृहंमंत्री बनने तक के सफ़र पर भी सवालिया निशान लगे। एक तबके का मानना था कि यह सबकुछ कार्पोरेट घरानों के इशारे पर हुआ (इसका विस्तार से जिक्र अरूंधति राय ने अपने लेख ’धरती सुलग रही है’ में किया है।) सरकार जिस लाल गलियारे की बात करती आयी है उस क्षेत्र में औद्योगिक समूहों को आदिवासियों के जबरदस्त लोकतांत्रिक प्रतिरोध (नक्सल आंदोलन नहीं) का सामना करना पड़ा है। कई मर्तबा भ्रष्टाचार की बातें भी सामने आयीं, उद्योगपतियों के इसारे पर- पालिटिक्स, माफ़िया और पुलिस के गठजोड़ ने मिलकर इन इलाकों में आदिवासियों के खिलाफ़ जबरदस्ती की। वहा इतना सब कुछ होता रहा, इसकी सूचना कभी बाहर नहीं निकली। यह तभी संभव हुआ जब बड़ी वारदाते हुईं। मीडिया में आयी सूचनाएं भी एकपक्षीय दबाव से मुक्त नहीं मानी जा सकती।
खनिज दोहन की कमाई का एक बड़ा हिस्सा देशी और विदेशी कंपनियों के खाते में दर्ज होता है, सरकार को मामूली राजश्व की प्राप्ति होती है। अब सवाल उठता है कि औद्योगिक विकाश के नाम पर विस्थापन का दंश झेल रहे आदिवासियों के हिस्से क्या आया? गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा, विस्थापन और उत्पीड़न का दर्द। यहीं से भावनात्मक अलगावाद की शुरूआत उन्हें प्रतिशोध के हद तक ले जाती है। ऐसी आशा क्यों की जाती है कि सिर्फ़ आदिवासी ही विकास के इस अमेरिकी माडल की कीमत चुकाएं? जंगलों में रह रहे आदिवासियों के परंपरागत व्यवसाय खत्म होते जा रहे हैं, वे इस विकाश के कारण तेजी से बेरोजगार हुए हैं। जो अजिविका का साधन हुआ करता था आज वह दूसरों के कब्जे में है। स्थिति को सुधारने के ठोस प्रयास नहीं हुए। वैकल्पिक रोजगार के साधन भी मुहैया नहीं करवाए गए और जिम्मेदार सरकार के मुखिया यह घोषणा करते रहे कि ’जो हमारे साथ नहीं वह नक्सलियों के साथ है’ से मनःस्थिति को समझा जा सकता है।
नक्सलियों का नरसंहार के लिए चिदंबरम जी के पास आपरेशन ग्रीन हंट का फ़ार्मूला तो है पर उनकी बदहाल स्थिति सुधारने का एजेण्डा नहीं। देश में न्याय पूर्ण व्यवस्था के निर्माण के लिए प्रासंगिक हो गया है कि लोग आगे आकर खनिज संपदा के लूट में शामिल छ्द्म नेताओं और कार्पोरेटीय गठजोड़ के षडयंत्र को उजागर करे।
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Thursday 15 April 2010
आनंदवन का आनंद और व्रण
महाराष्ट्र की धरती पर अपने कर्मो से समाज को नयी दिशा और सोच देने वाले महापुरुषों की कमी नही है पर हमारी पढाई के तरीके हमें किताबी अनुभव से ज्यादा कुछ नही दे पाते। कारण चाहे जो भी पर ऐसा ही है। अपने किताबी अनुभव का वास्तविक अनुभव में बदलने की चाह में हम एक ऐसे व्यक्तित्व से जुडी जगह जाने का कार्यक्रम बनाया। इसके लिए चुना समाज से बाहर कर दिये गये कुष्ठ रोगियों के लिए अपना जीवन देने वाले बाबा आमटे के आश्रम 'आनंदवन' को। वहां जाने के लिए हम पॉच लोग सुबह की पैसेंजर से निकले। केवल दो घण्टे में हम वर्धा से वरोरा पहुॅच गये। वरोरा स्टेशन से आनंदवन तकरीबन 20 से 25 मिनट का पैदल रास्ता है। जैसे-जैसे हम आनंद वन की ओर जा रहे थे वैसे-वैसे स्कूल और कॉलेज में 'आनंदवन' के बारे में सुने गये ढेर सारे किस्से याद आ रहे थे। बाबा आमटे ने .......... को 6 कुष्ठ राेिगयों, एक अपाहिज गाय, पत्नी और अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ एक काली और पथरीली जमीन पर 'आनंदवन' बसाया था। ये आश्रम सच में आनंद का बगीचा है। अब तक सिर्फ सुना था कि आनंदवन में बाबा ने कुष्ठरोगियों की सेवा किस प्रकार कि और उन्हें किस प्रकार स्वावलंबन का पाठ पढाया। आनंदवन के बारे में और भी बहुत सुना पढ़ा था। वहॉ का ऑक्रेस्ट्रा 'स्वरावनंदनवन' की चर्चा तो पूरी दुनियॉ में है। उसे देखा/सुना भी है। तब से लेकर मन में एक चाहत थी कि आनंदवन देखूॅ और आनंदवन को करीब से महसूस करुॅ। लगभग 20 मिनट बाद हम आनंदवन में थे। हम मानों एक अलग दुनियॉ में आ गये थे। यहॉ कि स्वच्छता और हरियाली की नैसर्गिक सजावट देखकर हमें लग ही नही रहा था कि हम महाराष्ट्र के ही किसी हिस्से में हैं।
यहां हम सबसे पहले एक बडे से हाल में पहुॅचे जहॉ प्लास्टिक और रबर की बेकार चीजों से नई और आकर्षक वस्तुओं के निर्माण का कार्य चल रहा था। इसे देखकर बाज़ारी गिफ्ट का बेकार से लग रहे थे। दोनों हाथों से विकलांग एक लड़की अपने पैरों से ग्रिटिंग कार्ड बना रही थी। सारा काम अपने पैरों से ही करती ये लडकी आत्मनिर्भरता की जीती जागती मिसाल सी लगी। पैरों से छुट्टे गिनकर वापस करते हुए उसे देखकर प्रभावित हुए बगैर नही रहा जा सकता। हम आगे बिछौने और चद्दर बनाने वाले उन कुष्ठ रोगियों के पास पहुॅचे जहां पर कुष्ठ रोगी हाथकरघा से सुंदर सुंदर बिछौने और चद्दरें तैयार कर रहे थे। बाबा के पढ़ाये स्वावलंबन के पाठ ने कुष्ठ रोगियों को पूरी तरह से आत्मनिर्भर बना दिया है। वहॉ से हम इस काली और पथरीली जमीन पर आनंद का वन बसाने वाले बाबा की समाधिस्थल पर आ गये।ं यहां कई महत्वपूर्ण उक्तियॉ और प्रेरक कविताएॅ पढ़ने को मिली। हम बाबा की समाधि के पास बैठे-बैठे बाबा को याद कर रहे थे। बाबा की स्मृति में डूबे हूए हम वहॉ से तालाब की ओर निकले जहॉ प्राणी संग्रहालय है। यहॉ कई तरह के जीवों का बसेरा है।
अब तक दोपहर हो चुकी थी और खाना खाने का साथियों का आग्रह भी जोर पकडने लगा था। दोपहर का खाना खाने के बाद हम प्रदर्शनी में गये। यहाँ कई किताबें हमें देखने को मिली जिसमें बाबा का जीवन वण्र् ान किया गया है। मराठी, हिंदी और अंग्रेजी के साहित्यकारों द्वारा बाबा के जीवन वर्णन की किताबें भी उपलब्ध है। आनंदवन की लकडियों से बनायी हुयी हस्तकला कृतियॉ भी वहॉ पर प्रर्दशित की गयी है। वहॉ पर कपडे झोले आदि वस्तुएॅ बिक्री के लिए रखी गयी थी। ये सब चीजें आश्रम में रहने वाले कुष्ठरोगियों ने ही बनायी हैं। प्रदर्शनी से बाहर निकलने के बाद हम बाबा की जीवन संगिनी 'साधना ताई' से मिलने पहुॅचे। उनसे मिलना हमारे जीवन का अद्भुत अनुभव था। साधना ताई के साथ हमें ऐसा लगा जैसे हम आश्रम के बरसों पुराने वासी हो। उनकी बोलने की शैली से हम प्रभावित हुए। हमारा प्रभावित होना सहज था क्योंकि हम ऐसी शख्ससियत से मिल रहे थे जिनसे जुडी प्रत्येक चीज समाजसेवा में लगी थी। उन्होने बाबा से जुडी कई घटनाएॅ हमें सुनायी। बात चीज में उन्होने बताया कि बाबा को झूठ बोलने वालों से शख्त नफरत थी और झूठों का साथ देने वालों से तो वो उनसे भी ज्यादा नफरत करते थे। बाबा अपने हाथों से कुष्ठरोगियों को नहलाते और उनके कपडे धोते थे। बेहद प्रेरणादायक बातचीत के बाद हम आश्रम में स्थित कुष्ठ रोगियों के अस्पताल पहुॅचे। वहॉ पर इलाज के लिए भर्ती एक 28 साल के एक तरुण रोगी ने बताया कि 'यहां पर हमें बहुत अच्छी तरह से संभाला जाता है। ये सब बाबा की कृपा है। बाबा ने वो कर दिखाया जो सरकार ने नही किया। आज हमें इतनी तकलीफ नही है क्योंकि अब समाज भी हमें अच्छी नज़र से देखने लगा है। यहां से इलाज कराने के बाद शादी करने का विचार है। आज तक बहुत से रिश्ते आये लेकिन किसी को धोखा देना अच्छी बात नही है। आनंदवन में रहकर बाबा के मूल्यों का पालन ही कर रहा हॅू।' बातचीत में बाबा के आदर्शों और मूल्यों की झलक मिल रही थी। 13 साल के संदीप ने अपना एक पैर कुष्ठ रोग के कारण दो माह पहले ही खो दिया था। चेहरे पर मासूमियत छलकती इस बच्चे के आत्मविश्वास भरी बातों ने हमें आश्चर्यचकित कर दिया। उसने कहा कि 'घर से आई बाबा और ताई मिलने आते हैं। मैं रोज डुप्लीकेट पैर लगाकर स्कूल जाता हॅॅू। वहां अपने दोस्तों के साथ खेलता भी हॅू।' संदीप को सचिन और शक्तिमान बहुत अच्छे लगते हैं। क्रिकेट खेलना बहुत पसंद है पर पैरों की वजह से खेलना भी बद हो गया है।
I sought my soul , my soul I could not see.
I sought my god , my god eluded me .
I sought my friend , I found all the three.
साधना ताई, वहां की धरती और आश्रम में रह रहे कुष्ठ रोगियों से मिलकर ऐसा लग रहा था कि समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए दृढ इच्छाशक्ति की भावना सबसे जरुरी होती है। आनंदवन से बाहर निकलते समय बाबा आमटे की भावना और उनके आश्रम की अमिट छाप मन पर पड चुकी थी।
16 April 2010, वर्धा/ निलेश बापूसाहेब झालटे
यहां हम सबसे पहले एक बडे से हाल में पहुॅचे जहॉ प्लास्टिक और रबर की बेकार चीजों से नई और आकर्षक वस्तुओं के निर्माण का कार्य चल रहा था। इसे देखकर बाज़ारी गिफ्ट का बेकार से लग रहे थे। दोनों हाथों से विकलांग एक लड़की अपने पैरों से ग्रिटिंग कार्ड बना रही थी। सारा काम अपने पैरों से ही करती ये लडकी आत्मनिर्भरता की जीती जागती मिसाल सी लगी। पैरों से छुट्टे गिनकर वापस करते हुए उसे देखकर प्रभावित हुए बगैर नही रहा जा सकता। हम आगे बिछौने और चद्दर बनाने वाले उन कुष्ठ रोगियों के पास पहुॅचे जहां पर कुष्ठ रोगी हाथकरघा से सुंदर सुंदर बिछौने और चद्दरें तैयार कर रहे थे। बाबा के पढ़ाये स्वावलंबन के पाठ ने कुष्ठ रोगियों को पूरी तरह से आत्मनिर्भर बना दिया है। वहॉ से हम इस काली और पथरीली जमीन पर आनंद का वन बसाने वाले बाबा की समाधिस्थल पर आ गये।ं यहां कई महत्वपूर्ण उक्तियॉ और प्रेरक कविताएॅ पढ़ने को मिली। हम बाबा की समाधि के पास बैठे-बैठे बाबा को याद कर रहे थे। बाबा की स्मृति में डूबे हूए हम वहॉ से तालाब की ओर निकले जहॉ प्राणी संग्रहालय है। यहॉ कई तरह के जीवों का बसेरा है।
अब तक दोपहर हो चुकी थी और खाना खाने का साथियों का आग्रह भी जोर पकडने लगा था। दोपहर का खाना खाने के बाद हम प्रदर्शनी में गये। यहाँ कई किताबें हमें देखने को मिली जिसमें बाबा का जीवन वण्र् ान किया गया है। मराठी, हिंदी और अंग्रेजी के साहित्यकारों द्वारा बाबा के जीवन वर्णन की किताबें भी उपलब्ध है। आनंदवन की लकडियों से बनायी हुयी हस्तकला कृतियॉ भी वहॉ पर प्रर्दशित की गयी है। वहॉ पर कपडे झोले आदि वस्तुएॅ बिक्री के लिए रखी गयी थी। ये सब चीजें आश्रम में रहने वाले कुष्ठरोगियों ने ही बनायी हैं। प्रदर्शनी से बाहर निकलने के बाद हम बाबा की जीवन संगिनी 'साधना ताई' से मिलने पहुॅचे। उनसे मिलना हमारे जीवन का अद्भुत अनुभव था। साधना ताई के साथ हमें ऐसा लगा जैसे हम आश्रम के बरसों पुराने वासी हो। उनकी बोलने की शैली से हम प्रभावित हुए। हमारा प्रभावित होना सहज था क्योंकि हम ऐसी शख्ससियत से मिल रहे थे जिनसे जुडी प्रत्येक चीज समाजसेवा में लगी थी। उन्होने बाबा से जुडी कई घटनाएॅ हमें सुनायी। बात चीज में उन्होने बताया कि बाबा को झूठ बोलने वालों से शख्त नफरत थी और झूठों का साथ देने वालों से तो वो उनसे भी ज्यादा नफरत करते थे। बाबा अपने हाथों से कुष्ठरोगियों को नहलाते और उनके कपडे धोते थे। बेहद प्रेरणादायक बातचीत के बाद हम आश्रम में स्थित कुष्ठ रोगियों के अस्पताल पहुॅचे। वहॉ पर इलाज के लिए भर्ती एक 28 साल के एक तरुण रोगी ने बताया कि 'यहां पर हमें बहुत अच्छी तरह से संभाला जाता है। ये सब बाबा की कृपा है। बाबा ने वो कर दिखाया जो सरकार ने नही किया। आज हमें इतनी तकलीफ नही है क्योंकि अब समाज भी हमें अच्छी नज़र से देखने लगा है। यहां से इलाज कराने के बाद शादी करने का विचार है। आज तक बहुत से रिश्ते आये लेकिन किसी को धोखा देना अच्छी बात नही है। आनंदवन में रहकर बाबा के मूल्यों का पालन ही कर रहा हॅू।' बातचीत में बाबा के आदर्शों और मूल्यों की झलक मिल रही थी। 13 साल के संदीप ने अपना एक पैर कुष्ठ रोग के कारण दो माह पहले ही खो दिया था। चेहरे पर मासूमियत छलकती इस बच्चे के आत्मविश्वास भरी बातों ने हमें आश्चर्यचकित कर दिया। उसने कहा कि 'घर से आई बाबा और ताई मिलने आते हैं। मैं रोज डुप्लीकेट पैर लगाकर स्कूल जाता हॅॅू। वहां अपने दोस्तों के साथ खेलता भी हॅू।' संदीप को सचिन और शक्तिमान बहुत अच्छे लगते हैं। क्रिकेट खेलना बहुत पसंद है पर पैरों की वजह से खेलना भी बद हो गया है।
I sought my soul , my soul I could not see.
I sought my god , my god eluded me .
I sought my friend , I found all the three.
साधना ताई, वहां की धरती और आश्रम में रह रहे कुष्ठ रोगियों से मिलकर ऐसा लग रहा था कि समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए दृढ इच्छाशक्ति की भावना सबसे जरुरी होती है। आनंदवन से बाहर निकलते समय बाबा आमटे की भावना और उनके आश्रम की अमिट छाप मन पर पड चुकी थी।
16 April 2010, वर्धा/ निलेश बापूसाहेब झालटे
तो फिर किसान आत्महत्या क्यों न करें?
राकेश कुमार -
सरकार गरीब किसानों की दशा सुधारने के लिए कितनी भी योजनाएं चला दे लेकिन उनकी स्थिति में सुधार नहीं आने वाला। क्योंकि कमीशनखोर भ्रष्ट अधिकारी गरीब किशानों की सभी योजनाओं की क्रीम-मलाई सबकुछ बीचरास्ते में ही डकार जा रहे हैं। सरकार इन कमीशनखोर अधिकारियों व कर्मचारियों पर लगाम लगाने के लिए समितियां भले ही बना रखी है लेकिन वे समितियां इनके लिए सायद छुईमुई से अधिक नहीं हैं। कमीशनखोर अधिकारियों का एक नया दस्ता उत्तर प्रदेश के जिला जौनपुर, मुंगरा बादशाहपुर स्थित एसबीआई बैंक में सामने आया है। बैंक के अधिकारी व कर्मचारी अपने एजेंटो के माध्यम से गरीब किसानों से धनउगाही करने का बाकायदा अभियान चला रखा है। इन कमीशनखोर धनपिपासु अधिकारियों का नया शिकार हुए हैं गॉव आदेपुर के सरजू प्रसाद हरिजन और उनकी पत्नी प्रतापी देवी। बैंक के कर्मचारी व अधिकारी अपनी निजी जेब भरने के लिए कमीशनखोरी में ऊपरी अधिकारियों सहित सरकार को भी बदनाम कर रहे हैं।
सरजू प्रसाद के ऊपर हुए अन्याय की वजह से कई दिन से मानशिक रूप से बीमार चल रहे हैं। सरजू और उनकी पत्नी के नाम से कुल ज़मीन का लगभग 88 हजार रुपये के आस-पास पूरी किस्त बनी है। दोनों के नाम से पहली किस्त के तौर पर 46 हजार रुपये पास किये गये जिसमें से बैंक के धनपिपासुओं ने 6 हजार रुपये बतौर कमीशन सीधे डकैती कर ली। उन्होंने बताया कि ’किसान क्रेडिट कार्ड’ बनवाने के लिए जब बैंक गया तो अधिकारियों ने कहा कि फला-फला कागज़ाद ले आओ काम हो जायेगा। 65 वर्षीय अनपढ़ सरजू 22 किलोमीटर तहसील, में चक्कर लगााते रहे लेकिन तहसील के कर्मचारी उन्हें आज आओ, कल आओ, ऐसा करते रहे लिहाजा तहसील में भी कागज़ादों के लिए अफसरशाही दक्षिना देना पड़ा। उसके बाद उनके जमीन की नकल मिल सका और इतीन मसक्कत के बाद किसी तरह तहसील से कागज़ाद निकालवाकर बैंक में जमा कर दिया। इसके बाद बैंक कर्मियों ने जोंक की तरह उनका खून चूसना शुरु कर दिया।
बैंक के साहबों ने तो उनकी कमर ही नहीं तोड़ दी बल्कि मानसिक रूप् से विक्षिप्त भी बना दिया है। सरजू से पहले तो बतौर कार्ड फीस कहकर एक हज़ार रुपया जमा करने को बोले। जानकरी के मुताबिक किशान क्रेडिट कार्ड बनाने में मुश्किल से 100 रूÛ खर्च लगता है। सरजू ने जानना चाहा तो बैंक के एक कर्मचारी ने तमाम प्रकार की फीसे गिना डाला। जो सरजू को याद भी नहीं है। सरजू किसी परिचित से एक हजार रुपये कर्ज लेकर किसी तरह तथाकथित फीस जमा किया। हद तो तब पार हो गयी जब सरकारी ऋण देते समय बैंककमियों ने पूरे पैसे का 10 फीसदी कमीशन देने का खुला आदेश कर दिया। अधिकारी का तुगलकी फरमान सुनकर सरजू ऋण लेने से मना करने लगे और बैंक से बाहर निकल गये। इसके बाद बैंक के दलालों व कर्मचारियों ने ऐसा चक्रव्यूह रचा कि सरजू उनके चंगुल में फंस ही गये। पीछे से एक साहब ने तो कहा कि सरकारी कर्ज लेने चले हैं साले कमीशन नहीं देंगे। इन सालों को नहीं पता कि हमें ऊपर साहबों से लेकर सरकार तक पहुंचाना पड़ता है। कर्ज देने के लिए अधिकारियों ने उनका मानशिक और भावनात्मक रुप से शोषण भी किया।
सरजू को ऋण लेने के लिए मजबूर कर दिया। क्योंकि अधिकारियों के पास ऋण देने के अलावा कोई और दूसरा रास्ता नहीं बचा था। इसलिए बैंक के सभी मुख्य स्टॉफर उनके पीछे मधुमक्खी की तरह चिपके रहे तब तक जब तक वे कर्ज ले नहीं लिए। क्योंकि ऋण देने की सारी कार्यवाईयां पूरी हो गयी थीं सिर्फ सरजू और उनकी पत्नी के खाते में पैसा ट्रांसफर होना बाकी रहा गया था। और उनके पास कैंसिल करने का कोई ठोस विकल्प नहीं था। क्षेत्र के किशान नेता आरÛ केÛ गौतम का कहना है केन्द्र व राज्य के सभी अधिकारी व कर्मचारी मज़दूरों व किशानों के हाथों से उनकी रोटी सीधे छीन रहे हैं। क्षेत्र में यह कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है। इन अधिकारियों की नियति से ही विदर्भ और बुन्देलखण्ड जैसे क्षेत्रों में हजारों किशानों की मौतें हुई हैं। ये अधिकारी और कर्मचारी मध्ययुगीन सामंतों की जगह नये सरकारी सामंत पैदा हो गये हैं। आदेपुर गॉव के ही मातादीन बिन्द ने बताया, ‘किशान क्रेडिड कार्ड’ पर कर्ज लेने के लिए पिछले दो महीने से आस-पास के सभी बैंकों में एक नहीें दो-तीन चक्कर लगा चुके हैं लेकिन बगैर कमीशन कहीं पर कर्ज नहीं मिल रहा है। कुछ छोटे मोटे नेताओं को भी लेकिन किसी आधिकारी पर कोई असर हीं नहीं हैं। जिस किसी बैंक में जाते हैं सीधे फरमान आता है कि दस फीसदी कमीशन लगेगा। इससे कम पर कोई बात करने को तैयार ही नहीं है। वे थक, हार कर बैठ चुके हैं। उनके परिवार का सहारा मात्र खेती ही जिा पिछले दो तीन साल से सूखा-बाढ़ की चपेट सवे चौपट हो गयी थी। जिससे उनके परिवार की अर्थिक स्थिति दयनीय हो चली है। बच्चों को पढ़ा लिखा भी नहीं पा रहे है। उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि इस माली स्थिति में वे आज की महगाई में अपने खेतों को हरा-भरा कर सके।
सरकार गरीब किसानों की दशा सुधारने के लिए कितनी भी योजनाएं चला दे लेकिन उनकी स्थिति में सुधार नहीं आने वाला। क्योंकि कमीशनखोर भ्रष्ट अधिकारी गरीब किशानों की सभी योजनाओं की क्रीम-मलाई सबकुछ बीचरास्ते में ही डकार जा रहे हैं। सरकार इन कमीशनखोर अधिकारियों व कर्मचारियों पर लगाम लगाने के लिए समितियां भले ही बना रखी है लेकिन वे समितियां इनके लिए सायद छुईमुई से अधिक नहीं हैं। कमीशनखोर अधिकारियों का एक नया दस्ता उत्तर प्रदेश के जिला जौनपुर, मुंगरा बादशाहपुर स्थित एसबीआई बैंक में सामने आया है। बैंक के अधिकारी व कर्मचारी अपने एजेंटो के माध्यम से गरीब किसानों से धनउगाही करने का बाकायदा अभियान चला रखा है। इन कमीशनखोर धनपिपासु अधिकारियों का नया शिकार हुए हैं गॉव आदेपुर के सरजू प्रसाद हरिजन और उनकी पत्नी प्रतापी देवी। बैंक के कर्मचारी व अधिकारी अपनी निजी जेब भरने के लिए कमीशनखोरी में ऊपरी अधिकारियों सहित सरकार को भी बदनाम कर रहे हैं।
सरजू प्रसाद के ऊपर हुए अन्याय की वजह से कई दिन से मानशिक रूप से बीमार चल रहे हैं। सरजू और उनकी पत्नी के नाम से कुल ज़मीन का लगभग 88 हजार रुपये के आस-पास पूरी किस्त बनी है। दोनों के नाम से पहली किस्त के तौर पर 46 हजार रुपये पास किये गये जिसमें से बैंक के धनपिपासुओं ने 6 हजार रुपये बतौर कमीशन सीधे डकैती कर ली। उन्होंने बताया कि ’किसान क्रेडिट कार्ड’ बनवाने के लिए जब बैंक गया तो अधिकारियों ने कहा कि फला-फला कागज़ाद ले आओ काम हो जायेगा। 65 वर्षीय अनपढ़ सरजू 22 किलोमीटर तहसील, में चक्कर लगााते रहे लेकिन तहसील के कर्मचारी उन्हें आज आओ, कल आओ, ऐसा करते रहे लिहाजा तहसील में भी कागज़ादों के लिए अफसरशाही दक्षिना देना पड़ा। उसके बाद उनके जमीन की नकल मिल सका और इतीन मसक्कत के बाद किसी तरह तहसील से कागज़ाद निकालवाकर बैंक में जमा कर दिया। इसके बाद बैंक कर्मियों ने जोंक की तरह उनका खून चूसना शुरु कर दिया।
बैंक के साहबों ने तो उनकी कमर ही नहीं तोड़ दी बल्कि मानसिक रूप् से विक्षिप्त भी बना दिया है। सरजू से पहले तो बतौर कार्ड फीस कहकर एक हज़ार रुपया जमा करने को बोले। जानकरी के मुताबिक किशान क्रेडिट कार्ड बनाने में मुश्किल से 100 रूÛ खर्च लगता है। सरजू ने जानना चाहा तो बैंक के एक कर्मचारी ने तमाम प्रकार की फीसे गिना डाला। जो सरजू को याद भी नहीं है। सरजू किसी परिचित से एक हजार रुपये कर्ज लेकर किसी तरह तथाकथित फीस जमा किया। हद तो तब पार हो गयी जब सरकारी ऋण देते समय बैंककमियों ने पूरे पैसे का 10 फीसदी कमीशन देने का खुला आदेश कर दिया। अधिकारी का तुगलकी फरमान सुनकर सरजू ऋण लेने से मना करने लगे और बैंक से बाहर निकल गये। इसके बाद बैंक के दलालों व कर्मचारियों ने ऐसा चक्रव्यूह रचा कि सरजू उनके चंगुल में फंस ही गये। पीछे से एक साहब ने तो कहा कि सरकारी कर्ज लेने चले हैं साले कमीशन नहीं देंगे। इन सालों को नहीं पता कि हमें ऊपर साहबों से लेकर सरकार तक पहुंचाना पड़ता है। कर्ज देने के लिए अधिकारियों ने उनका मानशिक और भावनात्मक रुप से शोषण भी किया।
सरजू को ऋण लेने के लिए मजबूर कर दिया। क्योंकि अधिकारियों के पास ऋण देने के अलावा कोई और दूसरा रास्ता नहीं बचा था। इसलिए बैंक के सभी मुख्य स्टॉफर उनके पीछे मधुमक्खी की तरह चिपके रहे तब तक जब तक वे कर्ज ले नहीं लिए। क्योंकि ऋण देने की सारी कार्यवाईयां पूरी हो गयी थीं सिर्फ सरजू और उनकी पत्नी के खाते में पैसा ट्रांसफर होना बाकी रहा गया था। और उनके पास कैंसिल करने का कोई ठोस विकल्प नहीं था। क्षेत्र के किशान नेता आरÛ केÛ गौतम का कहना है केन्द्र व राज्य के सभी अधिकारी व कर्मचारी मज़दूरों व किशानों के हाथों से उनकी रोटी सीधे छीन रहे हैं। क्षेत्र में यह कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है। इन अधिकारियों की नियति से ही विदर्भ और बुन्देलखण्ड जैसे क्षेत्रों में हजारों किशानों की मौतें हुई हैं। ये अधिकारी और कर्मचारी मध्ययुगीन सामंतों की जगह नये सरकारी सामंत पैदा हो गये हैं। आदेपुर गॉव के ही मातादीन बिन्द ने बताया, ‘किशान क्रेडिड कार्ड’ पर कर्ज लेने के लिए पिछले दो महीने से आस-पास के सभी बैंकों में एक नहीें दो-तीन चक्कर लगा चुके हैं लेकिन बगैर कमीशन कहीं पर कर्ज नहीं मिल रहा है। कुछ छोटे मोटे नेताओं को भी लेकिन किसी आधिकारी पर कोई असर हीं नहीं हैं। जिस किसी बैंक में जाते हैं सीधे फरमान आता है कि दस फीसदी कमीशन लगेगा। इससे कम पर कोई बात करने को तैयार ही नहीं है। वे थक, हार कर बैठ चुके हैं। उनके परिवार का सहारा मात्र खेती ही जिा पिछले दो तीन साल से सूखा-बाढ़ की चपेट सवे चौपट हो गयी थी। जिससे उनके परिवार की अर्थिक स्थिति दयनीय हो चली है। बच्चों को पढ़ा लिखा भी नहीं पा रहे है। उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि इस माली स्थिति में वे आज की महगाई में अपने खेतों को हरा-भरा कर सके।
Monday 5 April 2010
खबर का असर
शाहनवाज आलम-
उस रात जब हम लोगों ने न्यूज चैनलों पर पाकिस्तानी राष्ट्पति जरदारी के बयान वाली हेडलाइन ‘पाकिस्तान 26/11 की घटनाओं को भविष्य में रोकने की गारंटी नहीं दे सकता क्योंकि वह खुद भी आतंकवाद से अपने सुरक्षा की गारंटी नहीं कर पाया है’ देखी तभी अंदाजा हो गया कि कल के अखबारों में यह खबर कैसे परोसी जाएगी। हमारे अनुमान के मुताबिक लगभग सभी अखबारों ने ‘मुबई जैसे हमलों को दुबारा न होने की गारंटी नहीं दे सकते- जरदारी’ को ही मुख्य शीर्षक बनाया और जरदारी के बयान के पीछे के तर्क को लगभग सभी अखबारों ने डायल्यूट कर दिया।
पत्रकारिता की सैद्धांतिक कसौटी पर परखें तो आधी अधूरी और तोड़ मरोड़ कर लिखे गए इस बयान का असर यह हुआ कि दूसरे दिन जहां अखबारों ने पाकिस्तान को लानत भेजते हुए संपादकीय लिखे और सरकार को किसी भी कीमत पर पाकिस्तान से वार्ता न करने की नसीहत दी। वहीं मुख्य विपक्षी दल ने सरकार को पाकिस्तान के प्रति वोट बैंक के लिए नर्मी दिखाने का आरोप लगाया। परिणाम स्वरुप सरकार ने भी मीडिया और विपक्ष के दबाव में पाकिस्तान से फिलहाल वार्ता न करने का बयान दे दिया। इस तरह मीडिया ने अपनी कलाबाजी से एक ऐसा अनावश्यक मुद्दा खड़ा कर दिया जिस पर दो-तीन दिन तक खूब हो-हल्ला हुआ। यहां यह समझा जा सकता है कि अगर जरदारी के बयान से छेड़-छाड़ न हुयी होती तो दोनों देशों में बात-चीत को लेकर एक सकारात्मक माहौल बन सकता था।
दरअसल पाकिस्तान विरोध हमारे दौर की कारपोरेट मीडिया का एक ऐसा पसंदीदा विषय है जिसमें सतही और उग्र राष्ट्वादी मध्य वर्ग को तृप्त करने वाले सभी मसाले जैसे राष्ट्वाद, बंदूक, संस्कृति और रोमांच अन्तर्निहित हैं। जो किसी भी अखबार या चैनल की प्रसार संख्या और टीआरपी बढ़वाने की गारंटी तो है ही, उस पर कोई तोड़-मरोड़ या गलत बयानी का आरोप भी राष्ट्विरोधी घोषित होने के डर से नहीं लगा सकता। इसलिए हम रोज अखबारों में कम से कम चार-पांच पाकिस्तान केंद्रित खबरें और वो भी अधिकतर आखिरी रंगीन पेज पर जिसमें फिल्मी दुनिया की खबरें होती हैं, देखते हैं या इसी परिघटना से अचानक कुकुरमुत्ते की तरह उपजे रक्षा और कूटनीतिक विशेषज्ञों के लेख पढ़ते हैं। दूसरी तरफ चैनलों का हाल यह है कि प्राइम टाइम में अगर आप रिमोट घुमाएं तो दर्जनों चैनल ‘पाकिस्तान-पाकिस्तान’ खेलते दिख जाएंगे। एक प्रगतिशील लुक वाले एंकर तो एक दिन, रात को दस बजे पाकिस्तान से वार्ता न करने के दस कारण गिना रहे थे। समझा जा सकता है, अगर कार्यक्रम का समय बारह बजे होता तो शायद कारणों की संख्या बारह होती।
पाकिस्तान के प्रति मीडिया के इस रुख के चलते यह असर हुआ है कि जहां एक ओर खास तौर से हिंदी अखबारों और चैनलों में अपने इस पड़ोसी देश की विदेश नीति, अर्थ नीति और सामाजिक बदलाव पर कोई गंभीर विश्लेषण देख-पढ़ नहीं सकते। वहीं इस मीडिया ने एक ऐसे राष्ट्वाद को प्रचारित प्रसारित किया है जिसके केंद्र में पाकिस्तान विरोध है। जो कुल मिलाकर यही पैमाना रखता है कि अगर आप पाकिस्तान से बात-चीत के समर्थक हैं तो आप राष्ट्विरोधी हैं और उससे लड़ने झगड़ने पर उतारु हैं तो राष्ट्भक्त।
पिछले दिनों आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों के नहीं चुने जाने के मुद्दे पर शाहरुख खान के बयान से उपजे बाल ठाकरे बनाम शाहरुख मामले में भी मीडिया के एक हिस्से को पाकिस्तान विरोधी राष्ट्वाद की अपनी इस कसौटी को आजमाते हुए देखा गया। लेकिन थोड़ा दूसरे अंदाज या यूं कहें कि पिछले दरवाजे से। वो यूं कि जब बाल ठाकरे ने शाहरुख की तुलना कसाब से करते हुए उन्हें पाकिस्तान चले जाने का फरमान सुना दिया। तब कुछ अखबारों ने बाल ठाकरे के खोखले राष्ट्वाद को उजागर करने के लिए यह खबर छापी कि ठाकरे मशहूर पाकिस्तानी खिलाड़ी जावेद मियांदाद का अपने ‘मातोश्री’ में मेजबानी ही नहीं कर चुके हैं बल्कि शारजहां कप के फाइनल में चेतन शर्मा की आखिरी गेंद पर छक्का मारकर भारत को हराने वाले इस खिलाड़ी कि तारीफ भी की थी। ऊपर से देखें तो लग सकता है कि यह खबर ठाकरे परिवार के मौजूदा उत्पाती राजनीति को बेनकाब करती हो। लेकिन इसे बारीकी से परखें तो इस खबर की वैचारिक दिशा और शिव सेना की सोच में कोई फर्क नहीं है। क्या इस खबर में यह संदेश नहीं छुपा है कि पाकिस्तान या पाकिस्तानी लोगों से संबंध रखने वाला राष्ट्भक्त नहीं हो सकता। इस छुपे संदेश और शिव सैनिकों द्वारा खुलेआम चिल्लाकर लगाए जाने वाले ऐसे ही नारों में क्या फर्क है? इस विवाद के पटाक्षेप यानी माई नेम इज खान के सफल रिलीज पर मीडिया के इस भाव वाली टिप्पड़ी कि, कलाकार का कोई मजहब नहीं होता, में भी पाकिस्तान विरोधी राष्ट्वाद की गंध महसूस की जा सकती है। अगर शाहरुख मुसलमान नहीं होते तो क्या उनके लिए भी मजहब से ऊपर उठना जरुरी होता? या वे फिल्म स्टार के बजाय एक आम मुसलमान होते जिनके पाकिस्तानियों से संबंध होते या भारत-पाक वार्ता के समर्थक होते तो क्या तब भी मीडिया उन्हें राष्ट्विरोधी न होने का प्रमाण पत्र देती?
लेखक स्वतंत्र पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता हैं
उस रात जब हम लोगों ने न्यूज चैनलों पर पाकिस्तानी राष्ट्पति जरदारी के बयान वाली हेडलाइन ‘पाकिस्तान 26/11 की घटनाओं को भविष्य में रोकने की गारंटी नहीं दे सकता क्योंकि वह खुद भी आतंकवाद से अपने सुरक्षा की गारंटी नहीं कर पाया है’ देखी तभी अंदाजा हो गया कि कल के अखबारों में यह खबर कैसे परोसी जाएगी। हमारे अनुमान के मुताबिक लगभग सभी अखबारों ने ‘मुबई जैसे हमलों को दुबारा न होने की गारंटी नहीं दे सकते- जरदारी’ को ही मुख्य शीर्षक बनाया और जरदारी के बयान के पीछे के तर्क को लगभग सभी अखबारों ने डायल्यूट कर दिया।
पत्रकारिता की सैद्धांतिक कसौटी पर परखें तो आधी अधूरी और तोड़ मरोड़ कर लिखे गए इस बयान का असर यह हुआ कि दूसरे दिन जहां अखबारों ने पाकिस्तान को लानत भेजते हुए संपादकीय लिखे और सरकार को किसी भी कीमत पर पाकिस्तान से वार्ता न करने की नसीहत दी। वहीं मुख्य विपक्षी दल ने सरकार को पाकिस्तान के प्रति वोट बैंक के लिए नर्मी दिखाने का आरोप लगाया। परिणाम स्वरुप सरकार ने भी मीडिया और विपक्ष के दबाव में पाकिस्तान से फिलहाल वार्ता न करने का बयान दे दिया। इस तरह मीडिया ने अपनी कलाबाजी से एक ऐसा अनावश्यक मुद्दा खड़ा कर दिया जिस पर दो-तीन दिन तक खूब हो-हल्ला हुआ। यहां यह समझा जा सकता है कि अगर जरदारी के बयान से छेड़-छाड़ न हुयी होती तो दोनों देशों में बात-चीत को लेकर एक सकारात्मक माहौल बन सकता था।
दरअसल पाकिस्तान विरोध हमारे दौर की कारपोरेट मीडिया का एक ऐसा पसंदीदा विषय है जिसमें सतही और उग्र राष्ट्वादी मध्य वर्ग को तृप्त करने वाले सभी मसाले जैसे राष्ट्वाद, बंदूक, संस्कृति और रोमांच अन्तर्निहित हैं। जो किसी भी अखबार या चैनल की प्रसार संख्या और टीआरपी बढ़वाने की गारंटी तो है ही, उस पर कोई तोड़-मरोड़ या गलत बयानी का आरोप भी राष्ट्विरोधी घोषित होने के डर से नहीं लगा सकता। इसलिए हम रोज अखबारों में कम से कम चार-पांच पाकिस्तान केंद्रित खबरें और वो भी अधिकतर आखिरी रंगीन पेज पर जिसमें फिल्मी दुनिया की खबरें होती हैं, देखते हैं या इसी परिघटना से अचानक कुकुरमुत्ते की तरह उपजे रक्षा और कूटनीतिक विशेषज्ञों के लेख पढ़ते हैं। दूसरी तरफ चैनलों का हाल यह है कि प्राइम टाइम में अगर आप रिमोट घुमाएं तो दर्जनों चैनल ‘पाकिस्तान-पाकिस्तान’ खेलते दिख जाएंगे। एक प्रगतिशील लुक वाले एंकर तो एक दिन, रात को दस बजे पाकिस्तान से वार्ता न करने के दस कारण गिना रहे थे। समझा जा सकता है, अगर कार्यक्रम का समय बारह बजे होता तो शायद कारणों की संख्या बारह होती।
पाकिस्तान के प्रति मीडिया के इस रुख के चलते यह असर हुआ है कि जहां एक ओर खास तौर से हिंदी अखबारों और चैनलों में अपने इस पड़ोसी देश की विदेश नीति, अर्थ नीति और सामाजिक बदलाव पर कोई गंभीर विश्लेषण देख-पढ़ नहीं सकते। वहीं इस मीडिया ने एक ऐसे राष्ट्वाद को प्रचारित प्रसारित किया है जिसके केंद्र में पाकिस्तान विरोध है। जो कुल मिलाकर यही पैमाना रखता है कि अगर आप पाकिस्तान से बात-चीत के समर्थक हैं तो आप राष्ट्विरोधी हैं और उससे लड़ने झगड़ने पर उतारु हैं तो राष्ट्भक्त।
पिछले दिनों आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों के नहीं चुने जाने के मुद्दे पर शाहरुख खान के बयान से उपजे बाल ठाकरे बनाम शाहरुख मामले में भी मीडिया के एक हिस्से को पाकिस्तान विरोधी राष्ट्वाद की अपनी इस कसौटी को आजमाते हुए देखा गया। लेकिन थोड़ा दूसरे अंदाज या यूं कहें कि पिछले दरवाजे से। वो यूं कि जब बाल ठाकरे ने शाहरुख की तुलना कसाब से करते हुए उन्हें पाकिस्तान चले जाने का फरमान सुना दिया। तब कुछ अखबारों ने बाल ठाकरे के खोखले राष्ट्वाद को उजागर करने के लिए यह खबर छापी कि ठाकरे मशहूर पाकिस्तानी खिलाड़ी जावेद मियांदाद का अपने ‘मातोश्री’ में मेजबानी ही नहीं कर चुके हैं बल्कि शारजहां कप के फाइनल में चेतन शर्मा की आखिरी गेंद पर छक्का मारकर भारत को हराने वाले इस खिलाड़ी कि तारीफ भी की थी। ऊपर से देखें तो लग सकता है कि यह खबर ठाकरे परिवार के मौजूदा उत्पाती राजनीति को बेनकाब करती हो। लेकिन इसे बारीकी से परखें तो इस खबर की वैचारिक दिशा और शिव सेना की सोच में कोई फर्क नहीं है। क्या इस खबर में यह संदेश नहीं छुपा है कि पाकिस्तान या पाकिस्तानी लोगों से संबंध रखने वाला राष्ट्भक्त नहीं हो सकता। इस छुपे संदेश और शिव सैनिकों द्वारा खुलेआम चिल्लाकर लगाए जाने वाले ऐसे ही नारों में क्या फर्क है? इस विवाद के पटाक्षेप यानी माई नेम इज खान के सफल रिलीज पर मीडिया के इस भाव वाली टिप्पड़ी कि, कलाकार का कोई मजहब नहीं होता, में भी पाकिस्तान विरोधी राष्ट्वाद की गंध महसूस की जा सकती है। अगर शाहरुख मुसलमान नहीं होते तो क्या उनके लिए भी मजहब से ऊपर उठना जरुरी होता? या वे फिल्म स्टार के बजाय एक आम मुसलमान होते जिनके पाकिस्तानियों से संबंध होते या भारत-पाक वार्ता के समर्थक होते तो क्या तब भी मीडिया उन्हें राष्ट्विरोधी न होने का प्रमाण पत्र देती?
लेखक स्वतंत्र पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता हैं
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