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Thursday, 2 January 2014

शिवसेना ने क्यों सामना में की मोदी की खिचाई!

- अनुज शुक्ला हाल ही में मुंबई में नरेंद्रभाई मोदी की सभा के बाद अप्रत्याशित ढंग से शिवसेना ने भाजपा के मौजूदा सर्वोच्च नेता की चुटकी लेकर राज्य के सियासी पारे को गर्म कर दिया। दरअसल मोदी की सभा के कुछ ही दिन बाद शिवसेना ने अपने मुखपत्र में मोदी के भाषण को निशाना बनाते हुए सलाह दे डाली कि वे महाराष्ट्र के विकास की चिंता न करें बल्कि अपना पूरा ध्यान गुजरात के विकास पर केंद्रित करे। सामना, जिसे महाराष्ट्र में शिवसेना का मुखपत्र माना जाता है उसमें छपे संपादकीय की राजनीतिक गलियारों में काफी चर्चा है। इसे अपरोक्ष रूप से शिवसेना द्वारा मोदी के नेतृत्व की अस्वीकारता के तौर पर लिया जा रहा है। बहरहाल, मोदी को लेकर सेना का मौजूदा रुख नई बात नहीं है। बल्कि सेना अक्सर किसी न किसी बहाने खुलकर मोदी की आलोचना से नहीं चूकती। पूर्व में भी जब भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी की उम्मीदवारी की चर्चाएँ शुरू हो रही थीं उस वक्त भी शिवसेना ने खुलकर मोदी की उम्मीदवारी का विरोध किया था। जब भाजपा में मोदी बनाम आडवाणी को लेकर घमासान मचा था उस वक्त शिवसेना ने लालकृष्ण आडवाणी का खुला समर्थन करते हुए भाजपा को सलाह दी थी कि अगर नेतृत्व बदलना ही है तो मोदी की तुलना में सुषमा स्वराज की उम्मीदवारी ज्यादा बेहतर साबित होगी। हालांकि तब भाजपा ने इसे पार्टी की आंतरिक राजनीति का विषय बताते हुए सेना को ऐसे किसी सलाह से बचने की हिदायत दी थी बावजूद समय-समय पर मोदी को लेकर सेना का कोई न कोई बयान मोदी की उम्मीदवारी पर सवाल खड़ा कर देता है। इस क्रम में सामना में मोदी के भाषण को लेकर छापी गई संपादकीय असंतोष की नई कड़ी है। अब सवाल उठता है कि भाजपा के सबसे पुराने और विश्वसनीय सहयोगी द्वारा ही आखिर उसके सर्वोच्च नेता को लेकर इस तरीके के विरोधाभाषी बयान क्यों आ रहे हैं? क्या यह भाजपा-सेना के अलगाव के रास्ते का एक विस्तार है या फिर गठबंधन में सहयोगी द्वारा दबाव बनाने की राजनीति का एक रूप? दरअसल अभी इसे दोनों दलों के बीच अलगाव का विस्तार मानना उचित नहीं होगा साथ ही इसे मात्र दबाव बनाने की राजनीति भी नहीं माना जा सकता। बल्कि इसे नरेंद्र मोदी और उद्धव ठाकरे की आपसी अदावत के तौर पर लेना ज्यादा वस्तुनिष्ठ होगा। वैसे भी इसकी जड़ों में ठाकरे परिवार की आपसी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की बड़ी भूमिका समाहित है। अगर शिवसेना का साल भर का ट्रैक रिकॉर्ड देखें तो पिछले वर्ष बाल ठाकरे के निधन के बाद शिवसेना लगातार अवनति की ओर है। इस बीच सेना में विरोध की सुगबुगाहटें भी बढ़ी है। उधर, हाल ही में बाल ठाकरे की समाधि के मसले को लेकर जयदेव ठाकरे के रूप में परिवार के तीसरे दावेदार ने शिवसेना को आड़ेहाथ लेते हुए संगठन बना राजनीति में उतरने की चेतावनी दे डाली। अपने राजनीतिक इतिहास में शिवसेना सबसे बुरे दौर का सामना कर रही है। उस पर मोदी का राज ठाकरे के प्रति झुकाव शिवसेना के लिए राजनीतिक चिंता का विषय है। हकीकत में मोदी को लेकर शिवसेना के असंतोष की मुख्य वजह राज ठाकरे ही हैं। राज ठाकरे कुछ ही सालों में अपनी आक्रामक राजनीति के कारण महाराष्ट्र की राजनीति के नए क्षत्रप के रूप में उभरे हैं। 2009 के मुकाबले 2014 में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की राजनीतिक ताकत में काफी इजाफा हुआ है। एक तरीके से देखें तो मनसे ने उन तमाम मुद्दों को हथिया लिया है जो कभी शिवसेना की प्राणवायु रही हैं। उधर, 14 के चुनाव के मद्देनजर राज्य में वोटों को लेकर जो सियासी गणित है उसके मुताबिक बिना राज ठाकरे को साथ लिए भाजपा राज्य में अपने अभियान को अंजाम तक नहीं पहुँचा सकती। भले ही वर्तमान में शिवसेना और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आठवले गुट) उसके सहयोगी हों बावजूद मनसे को साथ लिए बगैर, राज्य में कांग्रेस-राकांपा के मजबूत गठबंधन को हराना टेढ़ी खीर ही है। मोदी की कोशिशों में मनसे को साथ लेने की प्रक्रिया शुरू बताई जा रही है। हालांकि यह शिवसेना और रिपाई (आ.) के अड़ंगे के कारण अभी तक संभव नहीं हो पाया है। मोदी से राज ठाकरे की काफी नजदीकियाँ हैं। इन नज़दीकियों के सहारे ही भाजपा का एक धड़ा शिवसेना का साथ छोड़कर मनसे के साथ चुनाव लड़ने की नसीहत भी दे रहा है। राजनीतिक दृष्टि से यह स्थिति शिवसेना के लिए बहुत नुकसानदेह साबित होगी। उद्धव जानते हैं कि मोदी का नेतृत्व राज्य में उनके कट्टर प्रतिद्वंद्वी राज ठाकरे के लिए हर हाल में फायदा देगी। मानने में हर्ज नहीं कि राज के साथ मोदी की नजदीकियां ही उद्धव की राजनीतिक पीड़ा की मुख्य वजह हैं, जो गाहे-बगाहे उजागर हो जाया करतीं हैं।

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