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Friday, 27 December 2013

अप्रत्याशित राजनीति के मायने

- अनुज शुक्ला भारतीय राजनीति के लिए शायद संकेत शुभ हैं! हालिया चुनाव के बाद तमाम पार्टियों में जागे शुद्धतावादी दृष्टिकोण को देखते हुए लगता है कि आने वाले दिनों में राजनीतिक दलों की सूरत में काफी तब्दीलियाँ हों। फिलहाल ऐसा सोचना अभी दूर की कौड़ी हो सकता है लेकिन जो सामने होता दिखाई दे रहा है वह यह कि दिल्ली में विधानसभा चुनाव के बाद छाए सियासी राजनीतिक बादल अगले कुछ दिनों में छंट ही जाने हैं। जनमत संग्रह के अनूठे इकलौते प्रयोग के बाद आम आदमी पार्टी दिल्ली में कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने को राजी हो ही गई है। इस परिवर्तन में पिछले पखवाड़े भर से दिल्ली को लेकर जिस तरीके की सियासी कशमकश देखी गई उसको लेकर कई सवाल मौजूं हुए हैं। सवाल यह कि अगर 2014 के आगामी लोकसभा चुनाव सामने नहीं होते तो क्या वाकई दिल्ली का राजनीतिक परिदृश्य ऐसा ही होता जैसा कि वर्तमान में दिखाई दे रहा है? क्या भाजपा अरविंद केजरीवाल को सरकार बनाने के लिए इतनी आसानी से वॉक ओवर दे देती? जिस केजरीवाल ने न सिर्फ दिल्ली बल्कि समूचे देश में कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार के नाम पर प्रतिकूल माहौल तैयार कर उसकी राजनीतिक जड़ें कमजोर कीं हों उसी केजरीवाल को कांग्रेस इतनी आसानी से समर्थन दे देती? सबसे अहम सवाल यह भी कि क्या केजरीवाल अपनी राजनीति को उस अंजाम तक पहुँचा पाएँगे, जिसका सब्जबाग आम आदमी के नाम पर उन्होंने दिल्ली की जनता को दिखाए हैं? देखा जाए तो वर्तमान में भ्रष्टाचार के खिलाफ शुचिता और आदर्शवाद की कथित लहर ही भारतीय राजनीति में आमतौर पर न घटित होने वाली राजनीतिक अनहोनियों के केंद्र में है। उस भारतीय राजनीति में जिसका इतिहास विभिन्न दलों की तरह-तरह के करिश्माई प्रयोगों के लिए मशहूर रहा हो। इन विधानसभा चुनाव के कुछ ही महीनों बाद देश की दो बड़ी पार्टियाँ भाजपा और कांग्रेस, जिनके बीच 14 का मुख्य मुक़ाबला है, वे तमाम मुद्दों पर एक दूसरे के खिलाफ आमने-सामने होंगी। ऐसे में दोनों पार्टियों के लिहाज से आम आदमी पार्टी के रूप में जो अनौपचारिक राजनीतिक पार्टी का प्रसव हुआ है उसकी प्रभावशीलता दोनों पार्टियों के लिए शुभ संकेत नहीं। भले ही संसाधन और पहुँच के लिहाज से आप देश भर में दिल्ली का करिश्मा दोहराने की स्थिति में नहीं है अलबत्ता आगामी चुनाव पर उसके प्रभाव को ख़ारिज तो नहीं ही किया जा सकता है। अगर 14 के चुनाव सामने नहीं रहते तो शायद भाजपा इतनी आसानी से दिल्ली में वॉक ओवर नहीं देती? भाजपा, जिसने जनादेश के कथित सम्मान के नाम पर दिल्ली में सरकार बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, उसने उत्तर प्रदेश में छह महीने के मुख्यमंत्रित्व कोटे का भस्मासुरी प्रयोगधर्मी गठबंधन बहुजन समाज पार्टी के साथ किया था। हालांकि बहन जी की वादा खिलाफी के कारण उस वक्त भाजपा ने कांग्रेस को तोड़कर मायावती को अपदस्थ करते हुए किसी प्रकार यूपी में सत्ता कायम करने में कामयाब हो गई थी। अब दिल्ली में सत्ता के बहुत करीब 32 सीटें (एक सीट सहयोगी अकाली दल की है) पाने के बावजूद भाजपा ने सरकार बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई । सवाल उठता है कि अगर 14 के चुनाव सामने नहीं होते तो क्या भाजपा वाकई दिल्ली में ऐसा होने देती? यूपी और झारखंड में पार्टी के अतीत का इतिहास तो कम से कम इस बात को मानने के लिए कतई तैयार नहीं। दरअसल 14 के आसन्न चुनाव के मद्देनजर न चाहते हुए भी भाजपा ने अपने बड़े अभियान के लिए आक्रामक विपक्ष की राजनीति करने का निर्णय लिया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आप द्वारा कथित रूप से खड़ी की गई शुचिता और आदर्श की राजनीतिक दीवार फाँदने के चक्कर में भाजपा इस तरीके की किसी कोशिश से फिलहाल बचना चाहती है। क्या यह सोचना गलत है कि दिल्ली में सरकार चलाने वाली आप से विपक्ष में बैठने वाली आप भाजपा के लिए ज्यादा नुकसानदेह साबित हो सकती है! अगर देखा जाए तो एक तरीके से भाजपा और कांग्रेस ने आप की ताकत को दिल्ली की सीमा में आबद्ध कर दिया है। दरअसल दोनों पार्टियों की रणनीति से यही जाहिर भी होता है। सरकार बनाने की घोषणा के साथ ही जिस तरीके भाजपा ने आप के ऊपर राजनीतिक हमले तेज कर दिए और इसकी प्रतिक्रिया में आप के रणनीतिकार सामने आ रहे हैं वह इस बात का सबूत भी माना जा सकता है। यह साफ है कि 14 के चुनाव तक आप के एजेंडे को लेकर भाजपा उसे दिल्ली में ही घेरकर रखने की रणनीति पर चल रही है। बहरहाल, मंत्रिपद को लेकर बिन्नी के रूप में आप में जिस तरीके से शंटिंग हुई है वह भाजपाई नेताओं के मुस्कराने का बेहतर सबब साबित हो सकता है। दूसरी ओर पाँच राज्यों में जनादेश के बाद कोमा में नजर आ रही कांग्रेस द्वारा आप को बिना शर्त समर्थन की पेशकश उसकी अपनी मजबूरियों की अंतर्कथा है। मौजूदा हालात में कांग्रेस की स्थितियों को लेकर राजनीतिक जानकारों का जो समेकित आकलन है कमोबेश उसका सार यही है कि फिलहाल कांग्रेस किसी भी सूरत में 2014 से पहले दोबारा दिल्ली में आत्मघाती चुनाव लड़ने के मूड में नहीं है। हालांकि दिल्ली में आप को समर्थन के सवाल पर पार्टी की अंदरूनी इकाई में विरोध के स्वर भी फूट पड़े हैं लेकिन राननीतिक लिहाज से कांग्रेस के पास इससे बेहतर कोई दूसरा उपचार उपलब्ध नहीं है। फिलवक्त राजनीति में जो दिख रहा है वह बहुत आभासी भी है। दरअसल भारत की राजनीति में भ्रष्टाचार के खिलाफ हमेशा से ही कारगर और आदर्श का विषय रही राजनीतिक शुचिता का भूत इस बार जिस तरीके ज्यादा ही मुखर हो गया है वह भविष्य की राजनीति को लेकर कई तरह के भ्रम भी पैदा कर रहा है। जिस तरीके भाजपा और कांग्रेस ने आप को शिकंजे में लिया है वह साबित करता है कि आने वाले दिन आप के लिए बहुत कठिन साबित होंगे। यह तय मानकर चलना चाहिए कि दिल्ली में बनने वाली आम आदमी पार्टी सरकार का भविष्य 2014 तक सुरक्षित है लेकिन राजनीतिक रूप से इस अल्प अवधि में आप द्वारा उसके एजेंडे के लिए किए गए कार्य ही उसका दूरगामी भविष्य तय करेंगे। इसके साथ ही आप के प्रशिक्षु नेताओं और आप के काडर की निजी महत्त्वाकांक्षाओं की तुष्टि भी आप के भविष्य का गुणात्मक फैसला करेगी। अन्यथा आप भी असम गण परिषद की तरह इतिहास का एक हिस्सा भर बनकर रह जाएगी। वैसे भी जन लोकप्रियता के मामले में भारत में विपक्ष की राजनीति की अपेक्षा सत्ता की राजनीति हमेशा ही आत्मघाती साबित हुई है।

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