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Monday, 26 August 2013

मुसलमानों के सवालों का राजनीतिक एजेंडा तैयार कर रहा है रिहाई मंच का आंदोलन

अनुज शुक्ला लखनऊ विधानसभा धरना स्थल पर ख़ालिद मुजाहिद की कथित हत्या प्रकरण के बहाने “रिहाई मंच” के अनियतकालीन धरने में इंडियन नेशनल लीग के बुजुर्गवार मो. सुलेमान जब तकरीर देते हैं उस वक्त उनके चेहरे की तल्खियाँ और आंखों की चमक, आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश की अलग सियासत की झलक साफ दिखाती हैं। कहने में आश्चर्य नहीं कि मो. सुलेमान की तरह पक्ष/विपक्ष के कई लोग इस आंदोलन की ताप को महसूस कर रहे हैं। निश्चित ही इस आंदोलन से ख़ासे नाराज मियां मुलायम सिंह यादव भी असहज होते होंगे, तभी तो समय-समय पर वे सफाई देने और उलझाऊ उपचार लेकर सामने आते रहते हैं। यह धरना स्थल यूपी की राजधानी लखनऊ के दारुलशफ़ा में है। दारुलशफा का मतलब होता है “ऐसी जगह जहाँ समूची दुनिया को राहत मिलती हो”। ये बात दीगर है कि यहाँ की हलचलें ठीक इसके उलट हैं। “ये उत्तर प्रदेश की वो जगह मालूम होती है जहाँ पूरी दुनिया न सही लेकिन कम से कम यूपी के लोग तो कतई राहत महसूस करते नहीं दिखते हैं”। यहां विधायक निवास से होते हुए जब विधान सभा धरना स्थल की ओर आगे बढ़ते हैं तो सड़क के किनारे स्थित विधायक निवास की बेसमेंट में कतारबद्ध धोबियों की दुकानें दिखती हैं हालांकि यहां अवशेष के रूप में टंगी पुरानी तख्तियों से मालूम होता है कि इनका निर्माण, माननीय विधायकों के वाहन खड़े करने के लिए किया गया था, ये बात दूसरी है कि इन गैराजों को वैध/अवैध तरीकों से यहाँ, खादी के कारोबार को चमकाने वाले धोबियों में आवंटित (!) कर दिया गया है जबकि विधायकों के वाहन अनियमित तरीके से यूपी की विराट सड़क संस्कृति से मेल खाती हुई मुख्य/लिंक मार्गों पर खड़ी मिल जाती हैं। इस भूगोल को पार कर बस कुछ आगे बढ़ने पर लिंक सड़क के दोनों किनारों पर हाथ में तख्तियाँ लिए हर जाति, धर्म, लिंग, रंग और व्यवसाय के हुजूम में हमारा इतिहास दिखता है। इनके चेहरों पर टँगे रोष और मायूसी देख मालूम पड़ता है कि “शायद यह पूरी दुनिया की वो जगह है, जहाँ किसी को राहत नहीं है”। सभ्य राजधानी के इसी टुकड़े पर गत 90 दिनों से ऊपर रिहाई मंच का धरना चल रहा है। वह धरना फिलहाल जिसके ख़त्म होने की साफ-साफ वजह अभी मालूम नहीं हो पाई है। सबसे अहम बात कि हाल-फिलहाल यह धरना उसके आयोजकों की दिनचर्या का सबसे जरूरी हिस्सा बन चुका है। यकीनन ये ऐतिहासिक धरना है, सिर्फ इसलिए नहीं कि ’14 साल की उम्र का एक अपढ़ और गंवार सा दिखाने वाला मो. फैज अब माइक पकड़कर राजनाथ सिंह और मायावती से अच्छी तकरीर देने लगा है बल्कि यह धरना इस रूप में ऐतिहासिक हो गया कि वर्तमान में यूपी के तीसरे मोर्चे की सियासत का प्रगतिशील-वैचारिक-सैद्धांतिकी का ध्रुव बनता जा रहा है। इस आंदोलन को यूपी में मुस्लिम सियासत के भीतर की सुनामी के तौर पर भी लिया जा सकता है। ऐसा पहली बार हो रहा है कि मुसलमानों की राजनीति के अहम पड़ाव पर हमेशा महत्त्वपूर्ण रहने वाले मौलाना/उलेमा हाशिए पर धकेल दिए गए हैं। गत जुलाई 17 को ख़ालिद मुजाहिद की मौत के कारण उठा विरोध का यह गुबार नई प्रगतिशील चेतना से लैस मुस्लिम सियासत का एक विशेष अध्याय रचने जा रहा है। दो दर्जन से अधिक संगठनों के रिहाई मंच के संयोजक एड. मो. शुएब कहते हैं कि “अब मुसलमानों को कोई उलेमा सिर्फ अपनी दाढ़ी-टोपी से उल्लू नहीं बना सकता। देर से ही सही कम से कम आतंकवाद के नाम पर उत्पीड़न के बहाने आम मुसलमान अपने लोकतान्त्रिक अधिकारों को लेकर सजग हो रहा है”, शुएब दावे से कहते हैं कि “यूपी के मुसलमानों का रास्ता, अब सत्ता लोलुप दलाल पार्टियों के उलेमाओं की बजाय आतंक के नाम पर कैद निर्दोषों की लड़ाई लड़ने वाली मंच और उसकी राजनीतिक एजेंडा तय करेगी”। रिहाई मंच के इस सैद्धांतिक धरने ने मुलायम की दिल्ली कूच की रफ्तार पर ख़ासा असर डाल दिया है। मंच का एजेंडा, वर्तमान में संभावित तीसरे मोर्चे के केंद्र और मुलायम के बीच एक बड़ा रोड़ा भी साबित हो सकती है। जो भी तीसरे मोर्चे के संभावित घटक या 2014 चुनाव में असरकारी हो सकते हैं उनमें से अधिकांश एक-एक कर अनियतकालीन धरने में शरीक हो रहे हैं और सपा की नीतियों पर प्रहार भी कर रहे हैं। इस फेहरिस्त में इंडियन जस्टिस पार्टी जैसे दलों से लेकर भाकपा (माले) और माकपा जैसी महत्त्वपूर्ण राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं। कई चिंतकों, बुद्धिजीवियों और रंगकर्मियों का बहुत दिनों से यह अड्डा तो बना ही हुआ है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ऐसी कौन सी बात है जो कई पूर्वाग्रहों से परे जाकर इस आंदोलन की ओर सबको आकर्षित कर रही है? यहां धरने में शामिल हुए माकपा महासचिव प्रकाश करात अपने भाषण में कहते हैं “यह सरकार बहुत ढीठ हैं। छह महीने पहले हम निर्दोष छूटे मुसलामानों के पुनर्वसन और मुआवजे को लेकर मुख्यमंत्री से मिले थे, इस मुद्दे पर राष्ट्रपति से भी मुलाक़ात की लेकिन निर्दोषों के सवाल पर दिल्ली और लखनऊ की सरकारों का रवैया एक जैसा है। वे ईमानदार नहीं हैं”। ख़ालिद प्रकरण के बाद रिहाई मंच के प्रगतिशील-वैचारिक राजनीति का एजेंडा कई चीजों को साफ करता है। मुस्लिम सियासत करने वाली कथित सेकुलर पार्टियों के चेहरे बेनकाब होने के बाद अब यूपी में मुसलमानों का रुख बदला-बदला सा है। निश्चित ही ख़ालिद प्रकरण के बाद रिहाई मंच के एजेंडा को काफी राजनीतिक बल मिला है। प्रदेश भर में मुसलमानों के सवाल को लेकर जो नई तस्वीर उभर रही है उसमें यह दिलचस्प है कि मुसलमानों की नाराजगी का निशाना बनी सपा सरकार को बचाने कोई सपाई मुस्लिम ओहदेदार अबतक खुलकर सामने आया हो! मजबूरी में मुलायम सिंह मुसलमानों को बहलाने के लिए अबू आसिम जैसे नेताओं को दूसरे प्रदेशों से आयात करते हैं, मुआवजे की झड़ियां लगाते हैं और आयातित चेहरों के जरिए मुसलमानों से जुड़ी “डेमेज कंट्रोल” की सियासत को हवा देकर मंच के आंदोलन की कमर तोड़ने का प्रयास करते हैं। वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया कहते हैं कि “पूंजी पर टिकी बुर्जुआ समाजवादी राजनीति का यही मूल चरित्र है। राजनीतिक रूप से जब किसी मुद्दे पर जन-उभार होता है तो आक्रोश को दबाने के लिए सत्ता इन शातिराना टूलों का राजनीतिक इस्तेमाल करती है। भागलपुर दंगों के बाद राजनीतिक जन-उभार को इसी तरह दिशाभ्रमित किया गया। मुआवजा, राहत पैकेज और मत्स्य न्यायी एजेंडा को आगे रखकर कमोबेश गोधरा के बाद गुजरात में भी इसी तरीके व्यापक जन-उभार की राजनीतिक सोच को कुचला गया”। चमड़िया कहते हैं “इस बार ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा है, पीड़ितों ने मुआवजा लेने से साफ मना कर दिया है। अब सवाल उठता है कि आखिर ख़ालिद मुजाहिद या निर्दोष मुसलामानों के उत्पीड़न के सवाल के बहाने रिहाई मंच चाहती क्या है? इस पर मंच के प्रवक्ताओं; राजीव यादव और शाहनवाज़ आलम साफ करते हैं कि “हम कोई सिविल सोसाइटी नहीं हैं और अब चीजें सिर्फ ख़ालिद मुजाहिद या निर्दोष मुसलामानों की रिहाई भर से नहीं जुड़ी हैं बल्कि मंच अब मुसलमानों के व्यापक सवालों पर राजनीतिक एजेंडा तैयार कर रहा है। हम न सिर्फ मुस्लिम सियासत बल्कि यहां की राजनीति की सोशल इंजीनियरिंग की धारा मोड़ रहे हैं।“ भाकपा (माले) महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य के शब्दों में “निश्चित ही आने वाली पीढ़ियाँ हमेशा इस आंदोलन से प्रेरणा लेंगी, भारतीय लोकतंत्र की जड़ों की मजबूती के लिए इस आंदोलन का फैलाव बहुत जरूरी है। आखिर क्यों लोकतंत्र में छद्म धर्मनिरपेक्षता का कारोबार करने वालों को बर्दास्त किया जाए? दीपांकर और मंच के प्रवक्ता शायद सही हैं, यह बात राजनीतिक रूप से अप्रशिक्षित और अपढ़, 15 वर्षीय मो. फैज की तकरीर को सुनकर पता चलता है। यह आम मुसलमानों की आने वाली पीढ़ी का वह प्रतिनिधि है जो बाबरी, गोधरा को भूला तो नहीं है लेकिन उससे बहुत आगे की बात करता है। इस अपढ़ नाबालिग किशोर को मोटे तौर पर सच्चर कमेटी और रंगनाथ कमेटी की सिफारिशें कुरान की आयतों की तरह याद हैं और इसे यह भी याद है कि यूपी में चुनाव पूर्व सपा ने मुसलमानों से क्या वादे किए थे? सबसे अहम बात कि फैज अगर जिंदा रहा तो अगले यूपी विधानसभा चुनाव में एक निर्णायक मतदाता के रूप में हिस्सा भी लेगा।

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