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Wednesday, 4 January 2017

लोकतंत्र के लिए खतरनाक है पर्सनालिटी चुनाव: मुसलमानों में कन्फ्यूजन से सपा को नुकसान, पर गांवों का गुस्सा बीजेपी के खिलाफ, किसी को बहुमत नहीं



उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में चुनाव का विगुल बज गया है. यूपी की 403 विधानसभा सीटों के नतीजे 11 मार्च को आ जाएंगे. चुनाव के मद्देनजर 'खबरची' यूपी में ग्राउंड लेवल पर काम करने वालों के साथ एक इंटरव्यू सीरिज शुरू कर रहा है. आज की पहली कड़ी में बातचीत शाहनवाज आलम के साथ. शाहनवाज, सोशियो-पॉलिटिकल कार्यकर्ता और जर्नलिस्ट हैं. वे यूपी में घूम-घूमकर सोशियो-पॉलिटिकल हालात का जायजा लेने के साथ जरूरी सवालों पर सरकार और प्रशासन से दो-दो हाथ करते रहते हैं. पूरी बातचीत में उन्होंने उन तमाम बदलाव की ओर इशारा किया जो यूपी की सियासत में पहली बार हो रहा है. किन्हीं वजहों से बातचीत का रिकॉर्ड सेव नहीं हो सका. अगली कड़ियों में रेकॉर्डेड बातचीत प्रस्तुत की जाएगी ताकि पूरी बात सुनी जा सके. - खबरची 
(शाहनवाज आलम)

"चुनाव में पार्लियामेंट्री सिस्टम का अहम पहलू धीरे-धीरे ख़त्म किया जा रहा है. यह बेहद खतरनाक है. लोकसभा चुनाव के बाद यह पहली बार यूपी के असेंबली इलेक्शन में आजमाया जा रहा है. 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने मोदी को लेकर यही किया था. मोदी का कैम्पेन अमरीकी चुनाव से भी महंगा साबित हुआ. अब यूपी में अखिलेश यादव भी वही कर रहे हैं. समाजवादी पार्टी (फूट के बाद की स्थितियां नहीं) के यूपी में जो पोस्टर दिख रहे हैं उनमें सिर्फ अखिलेश का ही चेहरा नजर आ रहा है. सम्बंधित विभागों के दूसरे मंत्री- विधायकों पार्टी पदाधिकारियों के चेहरे गायब हो रहे हैं. जैसे यह भी देखने में आ रहा है कि भाजपा के सांसद नरेन्द्र मोदी से बात नहीं कर पा रहे हैं या अपनी बात नहीं पहुंचा पा रहे हैं. जबकि ये पार्लियामेंट्री सिस्टम में लॉ मेकर हैं, पर फिलहाल पूरे सीन से गायब. लोकतंत्र के लिए यह खतरनाक है."

नीचे से ऊपर तक ख़त्म होता जा रहा संवाद घातक 

"तमिलनाडु और ओडिशा के पैटर्न पर राजनीति फॉलो की जा रही है. इस प्रैक्टिस में जनता का सीधा प्रतिनिधित्व कम होता जाता है. क्योंकि नीचे से ऊपर तक का संवाद द्विपक्षीय नहीं रह पाता. जैसा कि यूपी में अखिलेश या जो भी दूसरे चेहरे (भाजपा की ओर से मोदी) गढ़े जा रहे हैं वह खतरनाक है.

दो धारणाओं का संघर्ष ; 
"जो भी रूलिंग सरकारें हैं वे वन लीडर पॉलिसी पर केंद्रित है. लेकिन जनता क्या सोचती है. दरअसल, जनता ऐसा नहीं चाहती हैं. ये कंट्राडिक्शन है जो नजर आता है. चुनाव लड़ने के लिए एक चेहरा निर्धारित किया जाता है और घोषणापत्र भी जारी किए जाते हैं. यह बिलकुल दो धारणाओं में संघर्ष है. चुनावी मशीनरी को अलग तरीके से ढाला जा रहा है."

"यूपी के मौजूदा चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा मुसलामानों पर केंद्रित किया जा रहा है. यह पार्टियों की कोशिशों में नजर भी आता है. चुनाव से ठीक पहले मुसलामानों को लुभाने के लिए सपा ने दो बुकलेट जारी किया है. बसपा भी पीछे नहीं है. उसने भी एक बुकलेट जारी किया. लेकिन असल बात का किसी के पास समाधान नहीं है. पिछली सरकार में बसपा थी और पांच साल से सपा की सरकार है. मुसलामानों का मुद्दा आज भी वहीं का वहीं है. सच्चर कमेटी कमेटी की सिफारिशें, आतंकवाद के नाम पर बेगुनाओं की रिहाई का मसला, बुनकरों का मुद्दा तो वहीं का वहीं पड़ा हुआ है. इसी तरह किसानों, मजदूरों का मुद्दा वहीं का वहीं है."

जवाबदेही कम हो रही है पर चुनाव में सवाल वही 
"कुल मिलाकर इस चुनाव में भी मुद्दे सालों पुराने ही हैं. नए मुद्दे नहीं हैं. सरकारे बदल रही हैं पर जनता वही है. अबतक जो दिखा है वह सिर्फ सरकारों का विकास. कॉर्पोरेट पूजी के साथ यह लोकतांत्रिक सरकारों का नया दौर है. लोकतांत्रिक कंट्राडिक्शन साफ़ दिख रहा है. बड़े-बड़े दंगे यूपी में हुए. ज्यादातर मुसलानों के खिलाफ. लेकिन यूपी में दंगों को लेकर कोई कमेटी तक नहीं बनाई गई, जांच नहीं की गई. किसकी जवाबदेही थी. व्यक्तिकेंद्रित सिस्टम में जवाबदेही कम हो रही है."
(कुछ सर्वे में भाजपा को 139 सीटें मिलती दिख रही है. पिछले चुनाव में भाजपा को सिर्फ 47 सीटें मिली थीं.)


सपाई झगड़े का नुक्सान भाजपा को लेकिन गांवों में भाजपा के खिलाफ गुस्सा 
"आम लोगों में ओपिनियन पोल को लेकर कोई विश्वसनीयता नहीं है. आम लोग इसे वायस्ड मानते हैं. समाजवादी पार्टी में टूट होती है तो यूपी चुनाव में भाजपा को उसका फ़ायदा मिलेगा. 2007 में बसपा को लेकर तमाम पोल धराशायी हो गए. पोल हमेशा शहर केंद्रित होता है. गांवों में सरकार जनित समस्याएँ हैं. नोटबंदी को ही ले लीजिए. इसका खामियाजा गांवों में दिखा है शहरों में उतना नहीं. हाँ, शहरी मध्य वर्ग में बीजेपी को लेकर एक आकर्षण है. सपा लड़ाई से बाहर है."

इस चुनाव में आने वाले दिनों का नया समीकरण 
"बहुमत नहीं मिलेगा. सपा के झगड़े से मुसलामानों में कन्फ्यूजन की स्थिति रहेगी. मुसलमान पॉलिसी माइंड सेट के साथ वोट नहीं करता. वह बसपा की तरफ शिफ्ट हो सकता है. झगड़ा सुलझने का अब वक्त भी नहीं है, सपा को बहुत नुकसान होगा. लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि किसकी सरकार बनेगी? बीजेपी के खिलाफ गांवों में काफी गुस्सा है. दलित-मुसलमान का कॉम्बिनेशन नए तरीके से बनेगा. ये चुनाव आने वाले दिनों में नया समीकरण प्रस्तुत करेगा.

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