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Monday, 26 September 2016

कहानी : उसके सारे सोशल अकाउंट डिलीट हैं


अनुज  शुक्ला. कालदा अपार्टमेन्ट में पहुंचे कुछ ही दिन हुआ था। मैं पहले फ्लोर के तीसरे फ़्लैट में था। सामान के नाम पर मेरे पास ज्यादा कुछ नहीं था। फर्नीचर जैसा तो बिलकुल नहीं, हां मैंने दो फाइबर की कुर्सियां जरूर खरीद ली थीं। इसके अलावा एक लो फ्लोर बेड और एक छोटा स्टूल ही मेरा सामान था। कुर्सियां दरअसल, इसलिए क्योंकि अँधेरे में कुछ देर बालकनी में बैठकर झिलमिलाते शहर को निहारना मुझे बेहद पसंद था।

यहां आने के तीन दिन बाद ही मेरे दरवाजे पर एक दस्तक हुई। मैंने गेट खोला और सामने देखा कोई अधेड़ महिला खड़ी थी। उसके हाथों में घेवर था। मैं थोड़ा शर्मीले मिजाज का हूँ। खासकर महिलाओं से मुलाक़ात में मैं उतना सहज नहीं रह पाता, आमतौर पर जितना लगता या दिखता हूँ। उन्होंने घेवर हाथ में थमाते हुए दरवाजे पर ही मेरा हाल चाल पूछा और बताया कि वे दो मंजिल ऊपर के फ़्लैट में रहती हैं । कुछ सेकण्ड की मुलाक़ात में उन्होंने मुझे किसी शाम चाय पीने का न्यौता भी दिया। मैंने भी हाँ जी, जरूर, कहते हुए गेट पर खड़े-खड़े जो सामान्य शिष्टाचार हो सकते थे, उन्हें पूरा किया। वह महिला कुछ ही देर में चली गई।

इस पहली देखा-देखी से पहले मैं उनके बारे में कुछ नहीं जानता था। उन्हें ही क्यों यहां आने के तीन दिनों बाद तक मैं भला अपने फ्लोर के दूसरे पड़ोसियों को भी कहां जान पाया था। उनके जाने के बाद मेरी दिलचस्पी घेवर में थी। दो दिन बाद किचन के बेसिन में गंदे बर्तनों को देखकर याद आया कि उनकी प्लेट कटोरियाँ पहुंचा देना चाहिए। लेकिन मुझे सही-सही पता नहीं था कि उनका परिवार किस फ़्लैट में रहता है? वे अकेली रहती हैं या उनके घरवाले भी साथ हैं? तमाम-तमाम बातें। मैं इसी उधेड़बुन में था कि तभी दरवाजे पर फिर किसी ने दस्तक दी।

दरवाजा खोलने पर मुझे चौथे माले के 7वें फ़्लैट में चाय केलिए न्यौता मिला। न्यौता देने वाली कोई और नहीं वही महिला थी। मुझे कटोरियाँ लौटानी थी। मैंने घेवर के लिए धन्यवाद कहते हुए उनके बर्तन लौटाए और शाम को जरूर आने को भरोसा दिया। लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आ रहा था कि महिला की मुझमें इतनी दिलचस्पी क्यों है?

शाम होने पर मैं उनके यहां गया। दरवाजा खुला तो एक अधेड़ उम्र का आदमी नजर आया। उम्र कोई 48 साल के आसपास। हालांकि वह अपनी उम्र से ज्यादा बड़ा दिख रहा था। गोल-मटोल चेहरा। तोंदू डील-डौल। सिर पर घने बाल, जो बिलकुल झक सफ़ेद थे। उन्होंने लपककर मेरा अभिवादन किया और मुझे अन्दर बिठायाा। अन्दर हर साज-ओ-सामान था। आमतौर पर जो एक मिडिल क्लास फैमिली के लिए जरूरी होता है। 6 बाय चार का एक फ्लोर मैट्रिक्स, लेदर कोटेड सोफा, दीवार पर टंगी बड़ी सी एलईडी टीवी। फ्रिज। ड्राइंग टेबुल। बहुत कुछ दूसरे सामान भी उनकी बैठक में नजर आ रहे थे।

हालांकि उनकी बैठक का सामान थोडा अस्त- व्यस्त था। जैसे वे कहीं और शिफ्ट होने की तैयारी कर रहे हों। हम बातचीत करने लगे। इसबीच उन्होंने उसी अधेड़ औरत को चाय- पानी लाने को कहा जो मेरे घर तक घेवर लेकर आई थी। उन्होंने बाताया कि वे राजस्थान के भरतपुर से हैं। पिछले कुछ सालों से यहाँ रहते हैं। उनके चार बच्चे हैं। तीन बच्चे नजर आ रहे थे और सबसे बड़ी बेटी कहीं काम करती थी। दो बेटे जिनकी उम्र 13 और 11 साल होगी अपनी 6 साल की बहन के साथ वहीँ फ्लोर मैट्रिक्स पर खेल रहे थे।

मैंने बातचीत के माहौल को दोस्ताना बनाए रखने के लिए उनसे पूछा -
"बच्चों कहां पढ़ते हो"

मेरे सवाल पर बच्चे चुप थे। बाद मेंं उन्होंने बताया कि उनके बच्चे पढ़ाई छोड़ चुके हैं। मैंने वजह पूछा -
उन्होंने बताया कि दरअसल, उनका परिवार गाँव शिफ्ट हो रहा है। वे चाहते हैं कि बच्चों का वहीँ एडमिशन हो जाए। इसलिए अगस्त की शुरुआत में उन्होंने बच्चों का दाखिला यहाँ आगे न कराने का फैसला लिया था। उन्होंने बताया कि वे इतना सारा सामान नहीं ले जा सकते इसलिए सोच रहे हैं कि इन्हें यहीं कहीं बेच दिया जाए। उन्होंने मुझे अप्रोच किया और घर के सामान, उनकी खरीदी कीमत और उन्हें बेचने का मूल्य बताने लगे। वे ड्राइंग रूम के अलावा घर के दूसरे सामान दिखाने के लिए मुझे दूसरे कमरों की ओर लेकर गए। हालांकि, उनके सामानों में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी। उन्होंने बड़ी वुडन अलमारी दिखाई, लंबा चौड़ा दीवान दिखाया। उन कमरों में भी काफी सारा सामान चादर में बंधा पडा था। कुछदेर बाद हम फिर उनकी बैठक में लौट आए। हमने चाय पी। मैंने बहुत शालीनता से उन्हें बताया कि इन सामानों की फिलहाल मुझे जरूरत नहीं है। हम कुछ देर और बात करते रहे। इसके बाद मैंने उन्हें बोला किअबमैं चलना चाहूंगा। वह अधेड़ औरत टेबल से चाय के बर्तन समेट रही थी। मैं उठा और उनका अभिवादन कर नीचे अपने फ़्लैट लौट आया।

करीब एक हफ्ते से ज्यादा का समय बीत चुका था। इस बीच किसी काम के सिलसिले में मैं दिल्ली से वापस लौट आया था। मैं एक शाम को यूं ही उस अधेड़ महिला के दरवाजे तक गया। गेट पर ताल था। दूसरे दिन जब चौकीदार से उन लोगों के बारे में पूछा तो पता चला कि वे चले गए। चौकीदार ने इतना ही बताया। मैंने भी सोचा कि उनका परिवार गाँव लौट गया होगा। मुझे इत्मीनान था। यह तीन-चार दिनों के बाद का वाकया है। मैं एक दोस्त से मिलकर लौट रहा था। मुझे उनके दोनों बेटे पास ही एक दुकान पर चाय नाश्ता ग्राहकों को देतेे नजर आए। मैं कुछ क्षण के लिए अवाक रह गया। कमरे पर आकर अब मेरी दिलचस्पी उस परिवार में कुछ ज्यादा ही बढ़ गई। मैं किसी रहस्य का पता लगाना चाहता था।

अगले रविवार मैं अपार्टमेन्ट के सेक्रेटरी के यहाँ था। देश दुनिया की शुरूआती बातचीत के बाद मैं सीधे उस अधेड़ महिला के परिवार पर बातें करने लगा। सेक्रेटरी चौबे ने बताया, क्या साहब सात महीने से उसका मेंटनेन्स बकाया है। किराए को लेकर मकान मालिक से आए दिन झगडा। हो भी क्यों न। मोतियों-नगों को लेकर उसका जमा-जमाया धंधा चौपट हो चुका है और अब वह बेरोजगार है। इस उम्र में दूसरा रोजगार कहाँ। बच्चों का स्कूल कई महीनों से छूटा पडा है। एक बेटी की कमाई से किसी तरह घर का खर्च चल रहा है। कम्प्यूटर ओपरेटरी की नौकरी में जितनी सैलरी मिलती है उससे कुछ कम सिर्फ घर का किराया ही था। सेक्रेटरी सइ बीत्चीत के बाद मेरा मन थोडा खिन्न हो गया। क्या मैं उस परिवार को ढूढ़ते हुए दूकान जाऊ। उनका बचा हुआ कुछ फर्नीचर खरीद लूं। या मैं उस अधेड़ महिला और उनकी बेटी से बात कर लूं ....................... 

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