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Thursday 9 June 2011

उमाभारती की वापसी के मायने



अनुज शुक्ला -
छः सालों से भाजपा में वापसी को लेकर चल रही अटकलों पर उस समय विराम लग गया जब दिल्ली में भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उमा भारती का स्वागत करते हुए पार्टी में पुनर्वापसी की आधिकारिक घोषणा की। उत्तर प्रदेश में अपनी जमीन तलाश रही भाजपा ने चुनाव के ठीक एक साल पहले उमा की वापसी और प्रदेश की बागडोर सौपे जाने की कवायद भविष्य की कई राजनीतिक संभावनाओं का संकेत मात्र है। इसे उत्तर प्रदेश में भाजपा की भगवा ब्रांड की आक्रामक राजनीति की पुनरावृत्ति भी मानी जा सकती है। जाहिर है उमा भारती उग्र छवि की नेत्री मानी जाती हैं। जो 90 के दशक के राम मंदिर आंदोलन की अगुवा की भूमिका में रह चुकी हैं।
पिछले सात सालों में कांग्रेस की नर्म हिन्दुत्व की राजनीति एवं बसपा की सोशल इंजीनियरिंग की गणित, भाजपा के जनाधार को मटियामेट कर चुकी है। उमाभारती उत्तर प्रदेश में उस समय वापसी कर रहीं हैं जब प्रदेश में भाजपा के औचित्य पर ही सवाल उठने लगे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो पार्टी, जनाधार और नेतृत्व, दोनों तरह के संकट से गुजर रही है। प्रश्न होना भी चाहिए कि आखिर उमाभारती की वापसी के मायने क्या हैं? आखिर किन शर्तों पर उमा की पार्टी में वापसी पर, लगातार विरोध कर रहे अगड़ी जाति के नेता राजी हुए हैं?
दरअसल यह संघ प्रमुख भागवत के दबाव के कारण संभव हो पाया है। दूसरी ओर नितिन गडकरी की सहमति, उमा की वापसी के माध्यम से पार्टी के विरोधी गुट को दिया गया एक संदेश भी माना जा सकता है। इसके पीछे अन्य दूसरे राजनीतिक-कूटनीतिक कारण हैं। प्रदेश में भाजपा के कद्दावर नेताओं के बीच वर्चस्व की लड़ाई में भाजपा लगातार पीछे होती गई। कभी उत्तर प्रदेश में मिलें सीटों के सहारे दिल्ली में बड़े दल होने के फायदा भाजपा को मिलता रहा है। अब जबकि उसके मूल प्रदेश में ही सीटों की संख्या में कमी आती गई सो भाजपा के सहयोगियों में भविष्य के राजनीति की ढेरों आशंकाएँ स्वाभाविक रूप से पैदा होती गईं । जाहिर है अगर प्रदेश में भाजपा की मौजूदा स्थिति नहीं सुधरती है तो उसके पास मध्य प्रदेश और गुजरात ही ऐसे दो राज्य बचते हैं जहां से ठीक-ठाक संख्या में पार्टी सीट पाने की गुंजाइश रख सकती है। शेष राज्यों में भाजपा की सीटों का विशेष मतलब ही नहीं रह जाता है। उदाहरण के लिए अगर दिल्ली, छत्तीसगढ़, हिमांचल और उत्तरांचल से मिलने वाली सीटों का आंकड़ा निकाला जाएगा तो पार्टी, तत्काल बहुत फायदे में नजर नहीं आ रही है। दूसरी ओर कम सीटों के कारण गठबंधन पर असर पड़ने की संभावना दिन ब दिन बलवती होती जा रही है।
महाराष्ट्र में शिवसेना के तेवर देख कर ऐसा नहीं लगता कि वह 2014 के चुनाव को भाजपा के साथ लड़ेगी। बिहार में नितीश उस स्थिति में पहुँच गए हैं कि सीटों के बटवारे पर अपनी मर्जी से निर्णय लेने को भाजपा को मजबूर कर सकते हैं अन्यथा कॉंग्रेस नितीश को अपने पाले में खीचने की लगातार कोशिश कर ही रही है। यानी खुद भाजपा के वजूद के लिए यह जरूरी हो गया है कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश से वह अपनी राजनीतिक साख को बचाने का विकल्प तलाशे।
जहां तक उमा भारती की वापसी का प्रश्न है, यह साफ है कि उनकी वापसी एक खास रणनीति के तहत हुई है। उमा भारती को बहुत ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। दरअसल उमा भारती की वापसी पर इस बार असंतुष्टों का चुप रहना भाजपा के गंभीर रहस्यमयी राजनीति की ओर इशारा कर रही है। भाजपा को यह पता है कि प्रदेश में वापसी कर पाना लगभग नामुमकीन है, उमा के माध्यम से वह ‘चित भी मेरी और पट भी मेरी’ की गणित के तहत काम कर रही है। अगर उमा की महिला, पिछड़ा-दलित समर्थक, फायर ब्रांड हिन्दुत्व की छवि काम कर जाती है तो पार्टी को फायदा मिलेगा ही। अन्यथा हारने पर खुद ब खुद उनकी भूमिका शून्य हो जायेगी। एक तरीके से स्वतः राजनीतिक हत्या हो जायेगी। बहरहाल, कुछ भी हो लेकिन एक बात तय है कि अपनी खास छवि के लिए पहचानी जाने वाली उमा भारती के भाजपा का नेतृत्व संभालने से प्रदेश की राजनीति में संप्रदायीकरण को खूब हवा मिलेगी। पुनर्वापसी के वक्त प्रेस कोंफ्रेस में उन्होंने इशारों में इसे व्यक्त भी किया। उमा के ही शब्दों में ’प्रदेश को रामराज्य में ले जाने की इच्छा है, उत्तर प्रदेश राम और रोटी का राज्य है’ यानी उमा भारती पुनः धर्म से जुड़े भावनात्मक मुद्दों को हवा देंगी। गौरतलब है कि भाजपा से दूर रहते हुए भी उन्होंने राममंदिर की तर्ज पर हरिद्वार से गंगा मुक्ति जैसे धार्मिक आंदोलनों का नेतृत्व किया है। एक अंतराल पर संघ के स्वभाव के विपरीत, साध्वी दलित और पिछड़ी राजनीति भी करती आई हैं। अतीत में आरक्षण के मुद्दे पर उनके बयान विवादास्पद रहे हैं। प्रेस कोन्फ्रेंस में उन्होंने ‘उत्तर प्रदेश को मण्डल और कमंडल का राज्य’ कहकर दलित और पिछड़े मतों को पुचकारने का प्रयास भी किया।
जाहिर है कि उमा के इस बयान से भविष्य की योजनाओं का खुलासा होता है। यानी हिन्दुत्व की सांप्रदायिक राजनीति के अलावा दलितों और पिछड़ों के भाजपाईकरण का भी प्रयास होगा। अपनी इसी राजनीति के सहारे उमा भारती ने मध्यप्रदेश में कांग्रेस को जोरदार तरीके से हराया था। प्रदेश के सभी दल यह मान कर चल रहे हैं कि सबका मुक़ाबला मायावती से ही होना है, लिहाजा भाजपा के लिए उमा का महिला होना, उग्र हिन्दुत्व की छवि, पिछड़ी जाति से आना; कई ऐसे मूलभूत गुण है जिनके कारण पार्टी पुनः उमा-राग गाने को विवश हुई है। देखना यह है कि भाजपा उत्तर प्रदेश में अपने मंसूबों को लेकर कितना सफल होती है।


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