ब्लॉग में खोजें

Tuesday 22 March 2011

मौत के सामने खड़े हैं उत्तर प्रदेश के बुनकर

अनुज शुक्ला-

मार्च के पहले हफ्ते में उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में बुनकर लियाकत अली ने खुदकुशी कर ली। पिछले एक दशक में मुक्त व्यापार की अवधारणा और सरकारी योजनाओं से परेशान होकर बुनकरों ने बड़े पैमाने पर आत्महत्या की है। यह बात पुख्ता होती है कि देश भर में अधिकांश आत्महत्या करने वाले लोग श्रम के जरिए उत्पादन करने वाले परिवारों से संबन्धित हैं। वह चाहे कृषि से जुड़ा उत्पादन हो या श्रम से जुड़ा किसी अन्य प्रकार का उत्पादन। यानी नई व्यवस्था, श्रमिकों को लगातार अभावग्रस्त करते जा रही है। कृषि, असंगठित व्यापार के क्षेत्र में लगे मजदूरों की स्थिति बहुत दयनीय हो चुकी है। मौजूदा आर्थिक नीति के कारण उनके सामने विकल्प भी सिमटते जा रहे हैं।
गैर कृषि क्षेत्र से जुड़े श्रमिकों की आत्महत्या से जो बड़ा सवाल उभरता है वह यह कि क्या आत्महत्या करना ही इनकी नियति है? बावजूद इसके कि सरकार औद्योगिकीकरण को श्रमिकों की बेहतरी, रोजगार की उपलब्धता व चहुंमुखी विकास के लिए आवश्यक मानती है। उत्तर प्रदेश में पूर्वाञ्चल का क्षेत्र दुनिया में कढ़ाई - बुनाई से जुड़ी कसीदेकारी के काम के कारण प्रसिद्ध है। बनारस, भदोही, मऊ, आजमगढ़, जौनपुर और मिर्जापुर के क्षेत्रों की एक बड़ी आबादी जो वर्गीय पदानुक्रम में सबसे नीचे है, दुर्भाग्य से भूमिहीन भी - कालीन, साड़ी और हथकरघा के उत्पादन से जुड़ी हुई हुई है। 2000 में कालीन उत्पादन और इससे जुड़ी समस्याओं की ओर देश के योजना नियंताओं का ध्यान गया। सरकार ने कालीन उत्पादन में आ रही समस्याओं के समायोजन हेतु कई कल्याणकारी योजनाओं को नियोजित किया। इसी क्रम में कालीन उत्पादन को पूर्ण उद्योग का दर्जा प्रदान किया गया। 2010 में बनारस और भदोही के बीचो-बीच एक हैंडीक्रेफ्ट सेज की रूपरेखा भी मूर्त हुई, हालांकि यह 2004-2005 में ही प्रस्तावित थी; उस समय किसानों द्वारा जमीन न दिए जाने के कारण बन नहीं पाई। 2000 से 2010 तक जितनी भी सुधार की पहले की गईं, उसका सतही फायदा इस कारोबार में लगे उद्यमियों, और नई मार्केट नीति से उपजे विचौलियों को तो प्राप्त हुआ लेकिन इसका कोई फायदा उत्पादन के काम में लगे श्रमिकों को नहीं मिला। कार्पेट को उद्योग का दर्जा देने से पहले यहाँ के कार्पेट श्रमिकों को अपने द्वारा तैयार हथकरघा माल का बेहतर मूल्य मिलता था। वे काम करने व विचौलियों से स्वतंत्र थे। लेकिन ओद्योगिक नियंत्रण होने के बाद सबकुछ उद्यमियों द्वारा तय किया जाने लगा। कभी मजदूर जो एक प्रकार से इस उद्योग में कांट्रेक्टर की हैसियत से काम करता था और अपने श्रम का मूल्य खुद तय करता था , नई नीति के कारण कंपनियों और दलालों के चंगुल में जा फंसा। यानी नई नीति से सीधे तौर पर उद्यमियों का तो लाभ बढ़ा है पर इस लाभांश में श्रमिकों की वाजिब हिस्सेदारी नहीं हुई है। उनके हिस्से भुखमरी, बेरोजगारी, कर्ज , आत्महत्या, और बड़े पैमाने पर रोटी के लिए अपनी जमीन से पलायन करना आया। 2001 के बाद से हथकरघा उद्योग में कच्चे माल की विदेशी आगत बढ़ी है। परिणामतः धागों के उत्पादन में 20 % की गिरावट दर्ज की गई है। धागों और सिल्कों को तैयार करने वाला, साड़ियों और कालीनों को तैयार करके बेचने वाला श्रमिक विचौलियों को अपना माल बेचने पर मजबूर हुआ। वैश्विक प्रतिस्पर्धा में उसका टिकना कठिन हो गया। विकल्पों के अभाव और ‘अंतर्गत-उपनिवेशवाद’ के नतीजे ने इस काम में लगे हुए श्रमिकों को आत्महत्या के रास्ते पर धकेला। शोध बताता है कि बेहतरीन सिल्क की साड़ियों के लिए मशहूर, अकेले बनारस में ही आत्महत्या के पूरे मामलों में 30% आत्महत्याएँ बुनकरों से संबंधित होती है। अगर पूर्वाञ्चल के पूरे हिस्से को इसमें जोड़ा जाय तो कृषि क्षेत्र से जुड़ी आत्महत्याओं के बरअक्स एक दूसरी स्याह तस्वीर बनती दिखाई पड़ेगी। गैर सरकारी रिपोर्टों का हवाला है कि तकरीबन पचास हजार श्रमिक इन क्षेत्रों को छोड़कर गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और देश के अन्य हिस्सों में बुनकरी के काम के लिए पलायन कर रहे हैं । यह महज संयोग नहीं है कि इन क्षेत्रों में अधिकांश आत्महत्या के या फिर पलायन के मामले, किसी न किसी रूप में बुनकरों के परिवार से ही जुड़े होते हैं। अलबत्ता आत्महत्या को दर्ज करने की पुलिसिया तकनीक में इसपर दूसरा मुलम्मा चढ़ा दिया जाता है। यह मूल मुद्दों की शिनाख्त न करने देने एवं तस्वीर को और धुंधला करने का सरकारी कुचक्र है। भारत की तमाम राज्य सरकारें अभी इस भयावह सच्चाई को मानने के लिए तैयार नहीं दिखती कि बड़े पैमाने पर औद्योगिक मजदूर एवं असंगठित व्यापार के क्षेत्र से जुड़े खोमचे वाले, फेरीवाले भी आत्महत्या के रास्ते का चुनाव कर रहे हैं। उदारीकरण के दौर के बाद किसान आत्महत्याओं के साथ - साथ ही अन्य उत्पादनों से जुड़े मजदूरों ने व्यापक पैमाने पर आत्महत्या की है। क्या मजदूरों की आत्महत्या की बात को खारिज कर दिया जाएगा या फिर आत्महत्या के मामलों में वृद्धि को देखते हुए ठोस पहल की शुरूआत होगी, जिससे मजदूरों की भलाई हो सके?
Anuj4media@gmail.com

1 comment: