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Saturday 31 August 2013

रोकी भी जा सकती थी दाभोलकर की हत्या

-अनुज शुक्ला
मंगलवार, 20 अगस्त को पुणे, महाराष्ट्र में दाभोलकर की हत्या चेतना झकझोरने वाली घटना है। इस दुस्साहसिक घटना ने वर्षों से दकियानूसी परंपरा के खिलाफ मुहिम चलाने वाले और उसे कानूनी जामा पहनाने के लिए संघर्षरत डॉ. नरेंद्र दाभोलकर को हमसे छीन लिया। यह हत्या सुरक्षा की दृष्टि से मुंबई के साथ काफी महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाले पुणे में हुई। राज्य के मुख्यमंत्री ने इसे राजनीतिक हत्या की भी संज्ञा दी। बहरहाल राज्य की सबसे संवेदनशील और सतर्क जगह में हुई यह जघन्य हत्या, हत्या के उपरांत सरकार की कई सकारात्मक कोशिशों के बावजूद उसके नकारेपन को छुपा नहीं पा रही है। एक बार फिर राज्य की प्रगतिशील चेतना सकते में है। इसलिए नहीं कि समाज के सार्वभौमिक हित के लिए संघर्षरत एक कार्यकर्ता को जान गंवानी पड़ी बल्कि इसलिए भी कि महाराष्ट्र की कांग्रेस-राकांपा सरकार, जाने-अनजाने लगातार प्रतिक्रियावादी ताकतों को ऐसी दुस्साहसिक घटनाओं को करने की छूट प्रदान कर रही है। दाभोलकर के बारे में जान लेना जरूरी है कि उन्होंने अपने जीवन के चार दशक देशभर में एक अनूठे आंदोलन को खड़ा करने, उसे वैचारिक और विधिक स्वरूप प्रदान करने में खर्च कर दिया। उन्होंने यह सब एक खिलाड़ी और चमकदार चिकित्सकीय करियर की कीमत पर किया। वे एक चिकित्सक के साथ ही अंतर्राराष्ट्रीय स्तर के मल्ल भी थे। अभी तक महाराष्ट्र के बाहर बहुत कम लोगों को मालूम था कि देश में अन्ध श्रद्धा निर्मूलन समिति के रूप में ऐसा कोई संगठन है जो धर्म के नाम पर आडंबर, भूतप्रेत की व्याधा दूर करने के बहाने अमानवीय यंत्रणा से मुक्त कराने, फर्जी चमत्कारों से बाबागीरी का गोरखधंधा करने वालों, अतिन्द्रीय शक्तियों का फर्जी कमाल दिखाकर गरीब, भोली-भाली जनता को मूर्ख बनाने वालों की समानांतर व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की चुनौती दी। उन्होंने एक वैज्ञानिक समाज की रचना के लिए 1982 में पूरी तरह से इस अभियान में खुद को खपा दिया। चार दशकों से जादू-टोना से जनता को गुमराह करने से बचाने के क्रम में “साधना” नामक पत्रिका का संपादन किया। इसके लिए 1989 में अंधा श्रद्धा निर्मूलन समिति के रूप में एक संगठन की स्थापना भी की। चार दशकों तक चले अभियान में कई मर्तबा प्रतिक्रियावादियों के निशाने पर रहे। अंनिस के सहारे पूरे राज्य के स्कूल, गली-कूचों तक पहुँचकर विभिन्न प्रयोगों के माध्यम से चमत्कारों की पोल खोली। इसके लिए 11 पुस्तकें भी लिखी। यहाँ यह बात साफ कर देना चाहिए कि दाभोलकर ने कभी भी श्रद्धा और आस्था का विरोध नहीं किया। 2011 में जब यह बिल महाराष्ट्र विधानसभा के शीत सत्र में रखा जाना प्रस्तावित था उस वक्त उन्होंने इन पंक्तियों से लेखक से बातचीत में कहा था कि “वे किसी धर्म या आस्था का विरोध नहीं करते बल्कि उनके निशाने धर्म या आस्था के नाम पर खड़ा की जाने वाली अवैज्ञानिकता और कुप्रथाएँ हैं। जिस अभियान के लिए वे संकल्पित थे; उस अभियान का एक चरण महाराष्ट्र के राज्यपाल के. शंकर नारायण के अध्यादेश पर हस्ताक्षर के साथ लगभग पूरा होने की कगार पर है। पता नहीं क्यों इस स्थिति में दाभोलकर की हत्या को लेकर सवाल उठता है कि अगर राज्य सरकार जादू-टोना विधेयक को लेकर पहले ऐसी मुस्तैदी दिखाती तो शायद इस घटना को रोका जा सकता था। उल्लेखनीय है कि जो सरकार पिछले 10 साल से बिल पारित होने के बावजूद कोई न कोई बहाना बनाकर अध्यादेश बनाने से बचती रही, वही सरकार दाभोलकर की हत्या के बाद उपजे जनाक्रोश की तुष्टि के लिए अचानक अंधश्रद्धा कानून पर अध्यादेश पास करवाने को संकल्पित हो गई। सरकार यह पहले भी कर सकती थी लेकिन ऐसा किया नहीं गया। विधानसभा में बेहद मामूली संख्याबलों वाले दो दलों भाजपा और शिवसेना ने ही इस बिल का विरोध किया। विधानसभा के बाहर भी बिल का विरोध केवल उन्हीं संगठनों ने किया जिनकी राज्य के समाजों में कभी कोई हैसियत नहीं रही। जादू-टोना विरोधी विधेयक पर पहले हीला-हवाली करती रही सरकार अचानक दाभोलकर की हत्या के बाद अध्यादेश बनाने राजी हो गई। यानि दाभोलकर की हत्या के बाद उठे जन-असंतोष की तुष्टि के लिए सरकार यह अवसर गँवाना नहीं चाहती। ऐसा सोचना स्वाभाविक है क्योंकि काला जादू टोना विरोधी बिल का प्रस्ताव 1995 में महाराष्ट्र विधान परिषद में पारित कर दिया गया था। 1997 में 27 के मुकाबले 7 मतों से मंजूर हो जाने के बावजूद बिल पर अध्यादेश नहीं बन पाया। इसके बाद एक बार फिर 2005, 2006 और 2011 में अध्यादेश बनाने इस प्रस्ताव को बहस के लिए रखा तो गया लेकिन मंत्रिमंडलीय मंजूरी नहीं दी गई। हर बार कभी “सनातन संस्था” तो कभी वारकरियों द्वारा विरोध और मामूली आक्षेपों के दबाव में इसे टाला जाता रहा। यह बिल पूरे देशभर में अनूठा था। पिछले सत्रह सालों से महाराष्ट्र विधानसभा का हर सत्र शुरू होने से पूर्व तक इस बिल को लेकर सरगर्मी बनी रहती है लेकिन जैसे ही सत्र समाप्त हुआ यह हमेशा ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता रहा। दिलचस्प है कि इसी कांग्रेस सरकार ने 2003 में “जादू-टोना” के खिलाफ कानून लाने वाली देश की पहली सरकार होने का दावा सरकारी उपलब्धियों वाले विज्ञापनों में किया था। क्या यह सोचना गलत होगा कि दाभोलकर की हत्या के पीछे प्रतिक्रियावादी शक्तियों का जितना हाथ रहा, उसमें राज्य की कांग्रेस-राकांपा सरकार की हीला-हवाली भी कम जिम्मेदार नहीं।

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