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Thursday 26 September 2019

इन एक्टर्स की निकल पड़ेगी, साल की सबसे बेहतरीन वेब सीरीज है द फैमिली मैन

अनुज शुक्ला/मुंबई. इस साल सितंबर तक कई वेब सीरीज आ चुकी हैं, कई कतार में भी हैं। लेकिन इस साल सबसे ज्यादा इंतजार रहा सैक्रेड गेम्स के दूसरे सीजन का।

कुल मिलाकर देखें तो सितंबर में अब तक कोई एक ऐसी वेब सीरीज नहीं आ पाई है जिसे हर वर्ग का दर्शक पसंद करे। इस साल मास ऑडियंस के लिए कोई इंगेजिंग वेब सीरीज देखने को नहीं मिली। हालांकि इसी मेड इन हैवेन, लैला और सैक्रेड गेम्स का डूसरा सीजन काफी वजनदार और शानदार रहा। मगर ये अपनी बनावट में एक ख़ास दर्शक वर्ग तक ही संवाद कर पाईं। एक तरह से दीपा मेहता के क्रिएशन में लैला भारत में एक प्रयोग की तरह भी था जो वक्त से बहुत आगे जाकर सामाजिक - राजनीतिक पहलुओं पर बात कर रही थी। वहीं सैक्रेड गेम्स 2 अपनी दार्शनिक गूढ़ताओ की वज़ह से आम दर्शक से बेहतर संवाद करने में नाकाम रही।

लेकिन सितंबर में एक अच्छी बात ये हुई कि अमेज़न प्राइम पर द फैमिली मैन आ गई। ये मनोज बाजपेई का डिजिटल डेब्यू भी है। ये सीरीज इस साल आई बेहतरीन सीरीज के मुकाबले अपने कथानक और प्रस्तुति में हिंदी पट्टी के व्यापक दर्शक वर्ग तक संवाद करने और अपने कंटेंट के साथ उन्हें इंगेज करने में समर्थ है।

द फैमिली मैन की कहानी एनआईए के अफसर श्रीकांत तिवारी उसके परिवार, उसकी टीम उसके संस्थान के ऑपरेशन्स के इर्द गिर्द है। कुल मिलाकर ऐसे समझिए कि मुंबई में ए
क आतंकी ब्लास्ट के बाद श्रीकांत को इस्लामिक स्टेट, आईएसआई और पाकिस्तान की सेना से जुड़ी बड़ी लीड मिलती है। आतंकी भारत में एक बड़ा मिशन प्लान कर रहे हैं। श्रीकांत और उसकी टीम उस मिशन को डिकोड करने में जुटी है। इस बीच श्रीकांत की अपनी लाइफ में भी तमाम चीजें हैं जहां उसे जूझना पड़ रहा है। बच्चों की अपनी जरूरतें, पत्नी की अपनी चिंताएं और भविष्य को लेकर श्रीकांत का अपना डर। पत्नी सुचित्रा (प्रियमणि) को लेकर उसके दिमाग के एक कोने में शक भी है। सीरीज में यही सब बहुत ही शानदार ढंग से दिखाया गया है। कैसे श्रीकांत तिवारी पत्नी से झूठ बोलकर जानलेवा ऑपरेशन्स में शामिल होता रहता है। कैसे वो मिशन से जुड़े एक पहलू को खोजता, गलतियां करता साजिश को डिकोड कर लेता है। सीरीज में गुजरात दंगों के बाद का बंटवारा, कश्मीर के हालात, मोब लिंचिंग जैसे घृणास्पद अपराध से लेकर खातों में 15 लाख देने के राजनीतिक वादों तक का दिलचस्प जिक्र है।

सीरीज में एक दो सीन बेहद शानदार बन पड़े हैं जो आपको कसकर जकड़ कर रखते हैं। कुछ दृश्यों की अर्थवत्ता बहुत व्यापक और कमाल की है। सीरीज कैसी है इसे इन दो सीक्वेंस से समझ सकते हैं। एक - जब श्रीकांत के घर में कोई नहीं रहता तब उसका छोटा बेटा अथर्व पिता की गन पा जाता है। वो जितनी देर गन के साथ खेलता है, ऑडियंस की सांसे थम जाती हैं। तमाम ख्याल दिमाग में नाचने लगते हैं और लगता है कि अगले ही पल अथर्व गन से खुद को शूट कर लेगा। कमाल का सीक्वेंस बन पड़ा है ये। इसके लिए निर्देशक और चाइल्ड आर्टिस्ट अथर्व सिन्हा की जमकर तारीफ की जानी चाहिए।

ऐसे ही एक दूसरे सीक्वेंस का जिक्र करना भी जरूरी है जब लोनावाला में काम के सिलसिले में गई श्रीकांत की पत्नी सुचित्रा को अपने कलीग अरविंद (शरद केलकर) के साथ होटल के एक कमरे में रात गुजारनी पड़ती है। इस सीक्वेंस को इतना खूबसूरत फिल्माया गया है कि आप सीरीज खत्म कर यह तय नहीं कर पाते कि होटल के उस कमरे में आखिर हुआ क्या?

श्रीकांत और किशोर हो रही उसकी बेटी धृति, छोटे बेटे अथर्व के साथ बातचीत वाले कई सीक्वेंस बहुत मजेदार है। पति -पत्नी की नोक झोक और श्रीकांत का अपने कलीग जेके तलपड़े (शरीब हाशमी) के साथ बातचीत वाले तमाम दृश्य बेजोड़ है।

गालियों को छोड़ दें तो ये एक घरेलू वेब सीरीज है जिसे परिवार एक साथ बैठ कर देख सकता है। वैसे भी इसमें उतनी ही गालियां हैं जितनी हम सड़कों पर अक्सर सुनते ही रहते हैं। गालियों का अपना एक समाजशास्त्र है तो बच्चों को उनका मतलब मालूम होना चाहिए।

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि ये सीरीज बेहद ही शानदार है और इसमें सबकुछ अच्छा ही अच्छा है। द फैमिली मैन की सबसे अच्छी बातों में उसकी कहानी, संवाद, तमाम एक्टर्स की अदायगी है। कहानी में हुक भी बहुत लाजवाब हैं जो आगे देखने के लिए उकसाते हैं। खामियों की बात करें तो कश्मीर और वहां के हालात को बहुत सतही तौर पर छूने की कोशिश की गई है। और होता यह है कि कश्मीर पर सीरीज में कोई स्थापना साफ नहीं होती। समझ ही नहीं आता कि आखिर कहना क्या चाहते थे। सीरीज में कई किरदारों की कास्टिंग भी अखरती है। स्क्रीन पर कई कलाकार नकली नजर आते हैं, जो इस सीरीज को औसत बना देते हैं। उनके हाव- भाव, उनका लुक, उनकी संवाद अदायगी सतही है। मिडिल ईस्ट और कश्मीर के टेररिस्ट भी हिंदी पट्टी की शैली में गालियां देते सुनाई देते हैं। मेजर समीर (दर्शन कुमार) किसी भी लिहाज से पाकिस्तानी सेना के अफसर नहीं लगते। फैजान लगता ही नहीं कि वो आईसिस का इतना खूंखार आतंकी है। साजिद के किरदार में शहाब अली प्रभाव छोड़ने में नाकाम रहे जबकि उनका किरदार कई परतों में था, महत्वपूर्ण था, बहुत गुंजाइश थी उसमें।

फैमिली मैन के लिए याद किए जाएंगे नीरज माधव, शरीब हाशमी

मूसा के किरदार में नीरज माधव, जेके तलपड़े के किरदार में शरीब हाशमी, सुचित्रा के किरदार में प्रियामणि, अथर्व के किरदार में मास्टर वेदांत सिन्हा, धृति के किरदार में
महक ठाकुर लंबे वक्त तक याद किए जाएंगे। नीरज माधव, शबीर और मास्टर वेदांत सिन्हा की तो निकलने वाली है। बाकी मनोज बाजपेई की एक्टिंग तो सीरीज की जान है ही। अन्य कलाकारों का काम भी अपनी जगह ठीक - ठाक है।

क्रिएशन, निर्देशन और स्टोरी के लिए कृष्णा डीके और राज की जमकर तारीफ होनी चाहिए।

आप भी देख सकते हैं, मजा आएगा।

नेटफ्लिक्स के जंगल में रक्खोश भी है, मौका मिले तो देखें क्यों जरूरी है ये फिल्म

अनुज शुक्ला/मुंबई

रक्खोश। नेटफ्लिक्स के जंगल में फिल्में ढूढ़ते ढूंढ़ते यूं ही मिल गई थी। वैसे ही जैसे सरेराह चलते- चलते कोई यूं ही मिल जाता है। नाम कुछ अजीबोगरीब किस्म का है और पोस्टर पर संजय मिश्रा का चेहरा। यह भी लिखा नजर आया कि ये भारत की पहली POV फिल्म है। लगा चलो जब मिला है तो देख लेते हैं।

ये एक डार्क हॉरर ड्रामा है। इसे first person perspective शूट किया गया है। यानी आपको पूरी फिल्म एक व्यक्ति के जरिए दिखाई जाती है। एक तरह से वो व्यक्ति, वो नैरेटर या कैमरा ही कह लें; फिल्म का असली हीरो है। फिल्म की कहानी दो टाइम लाइन पर है जो एक जगह आपस में मिल जाती हैं। कहानी कुमार जॉन (संजय मिश्रा) और बिरसा (नमित दास) की है। कहानी एक मेंटल हॉस्पिटल और उसमें भर्ती विक्षिप्त लोगों की है।

रक्खोश  दरअसल एक सुपर नेचुरल पावर है जो अस्पताल में हर दिन एक पेशेंट को मार देती है। कुमार और बिरसा मिलकर उसे ढूंढ़ रहे हैं। वो कैसे ढूंढते हैं, क्या करते हैं इस दौरान और इससे पहले अस्पताल में क्या चल रहा होता है इसके लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी। रक्खोस में मेंटल हॉस्पिटल की खराब हालत, घरों में कैसे मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों के साथ दुरव्यवहार होता है देख सकते हैं। फिल्म की स्क्रिप्ट बहुत चुस्त दुरुस्त है। अंत तक कहानी में दिलचस्पी बनी रहती है।

लेकिन सबसे ज्यादा तारीफ करनी चाहिए फिल्म के कैमरा वर्क, सिनेमेटोग्राफी और एडिटिंग की। फिल्म के कई विजुअल देखते ही रहने को प्रेरित करता है। जब आप फिल्म में कैमरा एंगल और रियलिस्टिक बैक्राउंड वाले फ्रेम देखेंगे तो वाह वाह कर उठेंगे। कई सीक्वेंस एक्सट्रीम रियलिज्म लिए हुए बहुत डरावने बन पड़े हैं। फिल्म में कई चीजें सतही भी हैं। सुपरनैचुरल पावर से जुड़े कई सवाल अंत तक बिना जवाब के रह जाते हैं।

वैसे संजय मिश्रा के साथ नमित दास, तनिष्ठा चटर्जी और प्रियंका बोस जैसे एक्टर्स का काम कमाल का है। फिल्म में कई चीजें अच्छी हैं और कुछ लाजवाब चीजों के लिए खराब चीजें नजरअंदाज करने में कोई बुराई नहीं है। अभिजीत कोकटे और श्रीविनय सलियन के निर्देशन, अलग तरह की फिल्म मेकिंग में बनी रक्खोश को देख सकते हैं। डार्क, हॉरर और साइको ड्रामा देखने का शौक है तो कहने ही क्या। नेटफ्लिक्स को शुक्रिया बोलिए और इसे देख लीजिए।

अनुज शुक्ला

Wednesday 25 September 2019

गिरते-उठते मनोज बाजपेई: खुश हूं कि शूल का ड्यूटी मैन अब फैमिली मैन है

अनुज शुक्ला/मुंबई। मनोज बाजपेईसे पहली मुलाकात सत्या के जरिए हुई। भीखू म्हात्रे। एक फैमिली मैन गैंगस्टर। बंदूक और बीवी को बेइंतहा प्यार करने वाला लगभग पागल इंसान। लेकिन भीखू के अंदर जो भलमनसाहत थी उसने लोगों को अपने से जोड़ लिया। मैं भी जुड़ गया और मनोज को बेइंतहा प्यार करने लगा। सत्या जब भी याद करता हूं तो मनोज, सौरभ शुक्ला, शेफाली शाह और मकरंद देशपांडे के आलावा दूसरे किरदार ज्यादा याद नहीं आते।

सत्या के लिए उर्मिला मातोंडकर भी याद नहीं आती। सत्या में जब भीखू की मौत हुई तो उसी तरह का दुख हुआ, जैसे शोले में जय (अमिताभ बच्चन) की मौत पर हुआ था। शोले का वो सीन दिल दिमाग पर कुछ ऐसे चढ़ा कि उतरता ही नहीं। पॉकेट में बुलेट ढूंढ़ना और एक ही बुलेट पाने पर जय उंगलियों में लेकर उसे  जिस तरह निहारता है, भुलाए ही नहीं भूलता। दम तोड़ता जय बदहवास भाग कर आई राधा को जिस तरह देखता है, उसे देखकर सख्त कलेजे भी बर्फ की माफिक पिघल जाए।

शोले किसी शादी में देख पाया था और कई दिन, महीनों तक इस सीन को यादकर दुखी रहा। आखिर जय को क्यों मार दिया? जय फिर जिंदा नहीं हो सकता क्या? ऐसा ही दुख आनन्द की मौत को लेकर भी कई दिन तक रहा। आनन्द के आखिरी कुछ सीन देखते हुए गला रह रह कर भर जाता। कई बार भरता, सांस खींचने में दिक्कत होती और आखिरकार मैं भरभरा पड़ा था। हर बच्चे बूढ़े नौजवान महिलाएं जो आनंद देख रही थीं उनका हाल भी वैसा ही था। हर देखने वाली आंखों के कोर में आंसू थे। हालांकि हर शख्स अपनी स्थिति छुपाता रहता कि उसकी ये हालत कोई देख तो नहीं रहा।

भीखू म्हात्रे की मौत भी कई दिन तक दिल को कचोटती रही। बार बार आखिरी सांसे गिन रहा, तड़पता, दम तोड़ता फैमिली मैन गैंगस्टर का चेहरा सामने आ जाता और बार बार प्यारी म्हात्रे ( शेफाली शाह ) का रोता चेहरा दिख जाता। दिल पता नहीं क्यों वो सीन सोचकर गम से जार जार हो जाता। मैं आज भी सोचता हूं - सपनों में मिलती है... पर हंसता खिलखिलाता "लड़बहेर" पगला सा भीखू मर कैसे सकता है?

मनोज सत्या से पहले द्रोहकाल और बैंडिट क्वीन में छोटी मोटी भूमिकाओं में दिख चुके थे। अच्छी याद बैंडिट क्वीन को लेकर ही है। सुना खूब था, लेकिन देखने को नहीं मिला। बच्चों को मनाही थी। तब हमारे गांव में फिल्मों के लिए सामूहिक चंदे पर जो वीडियो आता था, उसमें ऐसी फिल्मों को चलाने की मनाही थी। लेकिन सत्या के वक्त दसवीं की पढ़ाई के लिए मुझे इलाहाबाद भेज दिया गया था। यहां मेरे साथ जो सबसे अच्छी चीज हुई वो सिनेमा देखने की आजादी थी, मैं पॉकेट मनी बचाता। अवतार, लक्ष्मी या मानसरोवर जैसे सस्ते टॉकीज में फिल्म के आने का इंतजार करता। हफ्ते में तीन चार फिल्में देख ही लेता।

इससे पहले सिनेमा हॉल दीदी के यहां जाने पर रिश्तेदारों की सरपरस्ती में देख पाया था। और अपने यहां के कस्बे गुंजन वीडियो हॉल में चोरी छिपे कभी - कभार फिल्म देखने को मिलता। गांव कस्बों में तब बच्चों के बहुत गार्जियन होते, यह डर भी लगा रहता कि कोई देखकर घर में शिकायत न कर दे। अब हमारे गांव कस्बे बदल गए हैं। दुनिया भाड़ में जाए, अब कोई किसी की परवाह नहीं करता।

इलाहाबाद ने ऐसी आजादी दी कि हर फिल्म देखता। लगभग रोज देखता। कॉलेज पहुंचने तक पॉकेट मनी बढ़ गई और आदत ऐसी बनी कि संगीत, गौतम, दर्पण या पायल, झंकार में एक दिन में दो - दो तीन - तीन फिल्में देख लेता। कम्प्यूटर भी मिल गया और इस वजह से सिनेमा देखने की आदत बेहिसाब खराब हुई। पर बैंडिट क्वीन भी देख ही लिया। मुझे याद नहीं कि मैंने अपनी कोई परीक्षा रातभर बिना फिल्म देखे दी हो। सत्या के बाद मनोज बाजपेई, अमिताभ आमिर शाहरुख अजय और गोविंदा की लिस्ट में शुमार हो गए।

शूल के समर प्रताप सिंह ने मनोज बाजपेई का और बड़ा दीवाना बना दिया।

शूल के बाद आजतक आजतक ऐसा मनोज बाजपेई की कोई फिल्म देखने से रह गई हो। कौन, अश्क, दिल पे मत ले यार, रोड, जुबैदा, पिंजर फिल्मों को सिनेमा हॉल में जाकर देखा। इनमें कुछ बेहद खराब फिल्में भी थीं। मैंने सबको देखा, क्योंकि मुझे फिल्में देखनी थी, सो सबको देखा। उस दौरान यह भी पढ़ा कि मनोज इंडस्ट्री के दूसरे अमिताभ बच्चन हैं।

मैं मनोज बाजपेई की फिल्मों का इंतजार करता, लेकिन उनके आने का सिलसिला वैसा नहीं था जैसा गोविंदा शाहरुख खान सलमान और तमाम दूसरे सितारों की फिल्मों का था। एक समय तो मनोज की फिल्में आनी बंद ही हो गईं। और इसकी वजह राजनीति और गैंग्स ऑफ वासेपुर आने के बाद मनोज के कुछ इंटरव्यूज में सामने आई। पता चला कि मनोज को हल्के फुल्के रोल ऑफर हो रहे थे, एक जैसे रोल ऑफर हो रहे थे जिसकी वज़ह से उन्होंने कई फिल्में छोड़ दी। राजनीति से पहले तक हमने मनोज को बहुत मिस किया।

भला हो रामगोपाल वर्मा, अनुराग कश्यप और आज की टेक्नोलॉजी का, जिसकी वजह से अब तक फिल्मों को देखने दिखाने का तरीका बदल गया है। मनोज बाजपेई की फिल्मों का सिलसिला फिर निकल पड़ा है। इस वापसी और सिलसिले के लिए मनोज को महीनों की गुमनामी झेलनी पड़ी, बी ग्रेड फिल्में करनी पड़ी, अय्यारी और सत्यमेव जयते जैसे बहुत सारे समझौते भी करने पड़े। लेकिन इसी सिलसिले में अलीगढ़, गली गुलियां भी गर्व करने के लिए है।

अब मुझे या मेरे जैसों के लिए खुशी की बात यह है कि मनोज बाजपेई का काम हमारी अपनी पॉकेट में भी आ रहा है। अमेज़न प्राइम की वेब सीरीज द फैमिली मैन से मनोज का पदार्पण डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी हो गया है। स्वाभाविक है कि मैंने देख भी लिया। मैंने देखा कि शूल का ड्यूटीमैन कम फैमिली मैन समर प्रताप सिंह, श्रीकांत तिवारी के रूप में अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं हटा है। कभी समर और आज का श्रीकांत तिवारी आम ईमानदार भारतीय की तरह पारिवारिक सामंजस्य बिठाते हुए अपने कर्तव्यों से जूझ रहा है।

श्रीकांत तिवारी तुम प्यार करने लायक इंसान हो। मैं तुम्हें समझ सकता हूं। शायद तुम्हें प्यार करने की यह भी एक वजह है द फैमिली मैन।

लिखना और भी बहुत कुछ चाहता हूं। मोबाइल पर उंगलियां जवाब दे रही हैं। बाकी फिर कभी। लव यू श्रीकांत तिवारी, द फैमिली मैन।

अनुज शुक्ला

Saturday 12 January 2019

विपक्षी जान चुके हैं मोदी शाह की गणित, अखिलेश माया ने उसे ही बना लिया हथियार

राजनीति तमाम तरह की संभावनाओं के लिए मशहूर है. यह खुद को एक ऐसे मोड़ पर दोहराता है जिसकी कल्पना नहीं होती है. कई बार यह जैसा दिखता है, होता इसके बिलकुल उलट है. लोकसभा चुनाव 2019 के लिए ये सब फिलहाल उत्तर प्रदेश में हो रहे राजनीतिक बदलाव में देखा जा सकता है. यूपी में एक तरह से अमित शाह जिस सोशल इंजीनियरिंग और गणित के जरिए बेजोड़ सफलता रचकर इतिहास बनाते आए अब वहीं चीजें उनके लिए मुश्किलें लेकर आ रही हैं. यूपी में अखिलेश यादव और मायावती में गठबंधन हो चुका है.

दोनों दल मिलकर चुनाव लड़ेंगे. महागठबंधन की बातें सामने आ रही थीं और इसमें कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल के शामिल होने की बात की जा रही थी. लेकिन अब यह तय हो गया है कि कांग्रेस अब इस महागठबंधन का हिस्सा नहीं होगी. रालोद सीटों की वाजिब हिस्सेदारी न मिलने की वजह से नाराज है. संभवत: बाहर भी रहे.

तो क्या सच में लोकसभा चुनाव 2019 के लिए यह सिर्फ सपा और बसपा का गठबंधन होगा? अगर मुझसे पूछा जाए तो मैं कहूंगा "नहीं". कांग्रेस महागठबंधन में न शामिल होकर भी गठबंधन का ही "हिस्सा" है. आप पूछ रहे होंगे कैसे ? और क्यों ऐसा है.https://youtu.be/XXO_Otze1ak

इस गठबंधन को लेकर जो सामने दिख रहा है उसके पीछे भी एक तस्वीर है. दरअसल, यूपी में कांग्रेस की ऐसी हैसियत नहीं है कि वो गठबंधन में शामिल होकर तमाम सीटों पर गठबंधन के साझीदार के रूप में सपा बसपा को लाभ पहुंचा पाए. हालांकि गणित के लिहाज से गठबंधन से बाहर रहकर कांग्रेस तमाम सीटों पर सपा बसपा को लाभ पहुँचाने की स्थिति में रहेगी. कैसे

दरअसल, कांग्रेस गठबंधन से बाहर रहकर कांग्रेस सभी सीटों पर चुनाव लड़ेगी. हकीकत में कांग्रेस जीत सकने वाली सीटों के अलावा अन्य सीटों पर ऐसे उम्मीदवार देगी जो बीजेपी और उसके अलायंस को वोटों के लिहाज से नुकसान पहुंचाएं. इससे सीधे सीधे सपा बसपा और बसपा के अलायंस को फायदा मिलेगा.

कांग्रेस, सपा और बसपा में जो डील हुई है पर दिख नहीं रही है उसके मुताबिक सपा और बसपा कांग्रेस की जीत सकने वाली सीटों पर ऐसे ही उम्मीदवार देंगे. यूपी में बीजेपी की पिछली जीत वोटों के कई हिस्सों में बंट जाने की वजह से हुई थी. बीजेपी का अपना वोट सुरक्षित था लेकिन विपक्षी वोटों में बिखराव था.

अब जमीन पर बीजेपी के खिलाफ वोटों के बिखराव का काम कांग्रेस के उम्मीदवारों से की जाने की तैयारी है. जाहिर सी बात है कि बीजेपी को हुए नुकसान का फायदा किसे मिलेगा?

सपा बसपा और कांग्रेस ने फूलपुर और गोरखपुर के उपचुनाव में इसी फ़ॉर्मूले को आजमा कर सफलता हासिल कर चुकी हैं. फूलपुर में सपा ने उम्मीदवार दिया था, बसपा ने सपा का समर्थन किया था और कांग्रेस ने मनीष मिश्रा के रूप में ब्राह्मण उम्मीदवार मैदान में उतारा था. मनीष मिश्रा को 19 हजार से ज्यादा वोट मिले थे. कांग्रेस ने गोरखपुर में सुर्हिता चटर्जी को मैदान में उतारा था.

आने वाले दिनों में यूपी की सियासत देखना दिलचस्प होगा.