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Friday 31 December 2010

महाराष्ट्र राज्य में कुपोषण का कोढ़

अनुज शुक्ला -
महाराष्ट्र की गणना भारत के चंद विकसित राज्यों में की जाती है और माना जाता है कि यह राज्य तेजी के साथ मानवीय सुधार की आवश्यक जरूरतों को पूरा कर रहा है। लेकिन महाराष्ट्र का दूसरा पक्ष भी है। यहां मुंबई, पुणे, ठाणे और नागपूर का महानगरीय उत्स तो है ही जिसकी रंगिनियां देश-दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करती हैं, साथ ही सर्वाधिक किसान आत्महत्याओं वाले विदर्भ के कई जिलों के साथ विपन्नता को भोगने के लिए शापित कोंकण का क्षेत्र भी। सांप्रदायिक राजनीति की धारा, कर्ज, किसान आत्महत्या, विस्थापन, और घोटालों के शोर के बीच कई आवाज़े महाराष्ट्र की हद से बाहर नहीं निकाल पाती। लोगों के जेहन में महाराष्ट्र का नाम आने पर चका-चौंध मुंबई और पुणे का कभी न थमने वाला महानगरीय उल्लास ही नजर आता है।
बहरहाल, दिसंबर के पहले पखवाड़े में दुनिया के आधुनिकतम और संपन्न कहे जाने वाले शहर मुंबई में बाल कुपोषण से 16 बच्चों के मरने की खबर निकलती है। मीडिया की रिपोर्टों ने यह भी खुलासा किया कि मुंबई की मलिन बस्तियों में रहने वाले 40-50 फीसदी बच्चों में बाल कुपोषण के लक्षण विद्यमान है। कुपोषण की घटनाएं, मुंबई या महाराष्ट्र के लिए नई बात नहीं। 1993 में विदर्भ के मेलघाट में कुपोषण के कारण होने वाली मौतों ने इस पहलू पर मीडिया के माध्यम से देश का ध्यान अपनी ओर खींचा था। यह तत्कालीन राजनीति के बहस के केंद्र में थी। सरकारी आंकणों को आधार बनाकर विदर्भ के इस पिछड़े क्षेत्र मेलघाट को ले तो वहां 1993 से लेकर अब तक 337 बच्चे कुपोषण के कारण मर चुके हैं। ऐसा नहीं कि कुपोषण की घटनाएं पिछड़े क्षेत्रों के लिए ही चिंता का सबब हैं, इसकी चपेट में राज्य के मुंबई, अहमद नगर, नागपूर, पुणे और नासिक जैसे बड़े शहर भी हैं।
गौरतलब है कि जिस राज्य में लवासा जैसी आधुनिकतम सुख सुविधा युक्त कृतिम शहर बसाया जा रहा है वहां बाल कुपोषण से होने वाली मौतों से निपटने के लिए कोई ठोस उपाय नहीं है। आखिर एक विकसित राज्य कुपोषण के कोढ़ को मिटाने में क्यों नाकाम रहा? सवाल बहुत मामूली है। और ऐसा नहीं की इसका जवाब मौजूद नहीं। बात करने की है, नागरिक और समाज के प्रति लोकतान्त्रिक उत्तरदायित्व के निर्वहन की है। विकसित समाज की परिभाषा में औद्योगिकीकरण और तकनीकी विकास के साथ ही स्वास्थ्य और परिवार कल्याण की बुनियादी जरूरत पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। यह एक लोकतान्त्रिक सरकार की अपने नागरिकों के प्रति विधिक ज़िम्मेदारी है। 2004 में सुशील कुमार शिंदे के शासन में बाल कुपोषण के कारण मौतों का सिलसिला बढ़ा था। तब सरकार ने मामले की जांच और कारणों का पता लगाने के लिए अभय बंग कमेटी का गठन किया । इस ‘चाइल्ड मोरटेलिटी एवुलेशन कमेटी’ ने अपनी 55 पन्ने की जांच रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसमे चौंकाने वाले तथ्यों का रहस्योद्घाटन हुआ। कमेटी ने माना कि राज्य में सालाना - ग्रामीण क्षेत्रों में 82000, आदिवासी क्षेत्रों में 23500, और शहरों की मलिन बस्तियों में 56000 बच्चे असमय काल के गाल में समा जाते हैं। इसमें अस्सी प्रतिशत मौतें बाल कुपोषण और कुछ डायरिया और निमोनिया जैसे मामूली रोगों के इन्फेक्सन के कारण होती है।
कागजी रूप से देंखे तो स्वास्थ्य मंत्रालय ने बाल कुपोषण से बचाव के लिए अंतरक्षेत्रीय कार्यकलाप, नव जन्मजात और बीमार बच्चों के लिए सामुदायिक स्तरीय परिचर्या, प्रदान करना और बीमार बच्चों के लिए सांस्थानिक परिचर्या प्रदान करने हेतु कई योजनाओं पर अमल किया गया है। स्वक्ष पेयजल, साफ सफाई और पोषण की व्यवस्था की सुलभता पर बल दिया गया । हाशिये के लोगों के नाम पर नागरिक स्वास्थ्य और परिवार कल्याण के लिए बजट में लगातार इजाफा किया जा रहा है फिर भी कुपोषण या इन्फेक्शन के कारण होने वाली मौत की घटनाएं थमने का नाम क्यों नहीं ले रही हैं। क्या राज्य में परिवार कल्याण और स्वास्थ्य के लिए सरकारी योजनाओं का ठीक ढंग से समायोजन किया जा रहा है?
राज्य के अधिकांश हिस्सों में अभी तक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की ठीक-ठाक व्यवस्था नहीं की गई है। जहां प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं भी वहां डाक्टर ही मौजूद नहीं है। या तो डॉक्टर सरकारी सेवाएं देने की बजाय निजी प्रेक्टीस में मशगूल हैं। विदर्भ, कोंकण या राज्य के अन्य दूर - दराज इलाकों की हालत कुछ ज्यादा ही नाजुक है। जबकि राईट टू फूड और राईट टू हेल्थ के नारे के बीच परिवार कल्याण और स्वास्थ्य का हवाला देते हुए 2004-05 में केंद्र की सरकार ने स्वास्थ्य बजट को आठ हजार करोड़ से बढ़ा कर इक्कीस हजार करोड़ रूपये कर दिया था। इस मद के अंतर्गत महाराष्ट्र को एक मोटी रकम मिलती है। आखिर इन सरकारी कवायदों का फायदा ही क्या, जब आम आदमी तक इनका लाभ ही नहीं पहुँच रहा । सरकार की गैर ज़िम्मेदारी और स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के कारण बड़े पैमाने पर मौतें बढ़ी हैं। मुंबई जैसे शहर में बाल कुपोषण के कारण होने वाली मौत सरकारी मशीनरी की अक्षमता की ओर इशारा करती हैं। एक रईश शहर पर उपहास भी।
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Saturday 23 October 2010

जलता कश्मीर, बेफिक्र दिल्ली



हाल-फिलहाल कश्मीर में जो कुछ देखने को मिल रहा वह चौकाने वाला है। सरकार, विपक्ष और मीडिया सभी की भूमिकाओं पर सवालिया निशान लगा है। साल भर पहले सोफिया प्रकरण पर सरकारी भूमिका के बाद ऐसा लगने लगा था कि वहाँ कोई बड़ी घटना होने वाली है। कई विश्लेषकों ने राय जाहिर की थी ‘जिस तरीके से मामले को गोल मोल किया जा रहा है –भविष्य में स्थिति के बदतर होने में प्रभावी होगी’। आम कश्मीरियों का विश्वास दिल्ली पर से घटता गया और गुस्सा घाटी के पूरे अवाम पर हावी होता गया ।
किसी भी आंदोलन के पीछे कोई फौरी कारण कारगर हो सकता है पर उसकी पृष्ठभूमि में वे तमाम मुद्दे प्रमुख होते हैं जो जनता को सीधे अपील करते हैं। मौजूदा आंदोलन जिसे दिल्ली एक आन्दोलन स्वीकार करने की मनःस्थिति में नहीं दिखता के पीछे भी कई कारण प्रभावी रहे, जो वहाँ की वादियों में पिछले छ दशक से गूंज रही है। दिल्ली इसे अपना अटूट हिस्सा मानती आई है, पर क्या वाकई कश्मीर भारत का हिस्सा है? अगर है तो वहाँ 1958 का विशेष सशस्त्र बल अधिनियम क्यों? जो घाटी के अवाम को उसके लोकतान्त्रिक अधिकारों से दूर करती है, जिसकी आड़ में वहाँ मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ाई गयीं, जिसके कारण आम कश्मीरी आज पहचान के संकट से जूझ रहा है । इस अधिनियम की आड़ में कश्मीर में लगातार पैशाचिकता का अंधा कारोबार किया गया। हकीकत यह है कि आजादी के साठ साल बीत जाने के बावजूद एक कश्मीरी न तो भारतीय बन पाया और न ही कश्मीरी। वह पाकिस्तानी, आतंकी और मुजाहिद के रूप में प्रचार पाता रहा, जिसे दिल्ली की सियासत करने वाले दल और मीडिया प्रचारित करते रहें।
उस विश्वास का आधार कहाँ है जिसके बल पर नेहरू 1953 में ताल ठोककर कश्मीर में जनमत करवाने की चुनौती देते रहें थे। इन साठ सालों में वहाँ कौन सी हवा चली जिससे कश्मीर जलता ही गया और दिल्ली बेफिक्र रही। अबकी कश्मीर की सड़कों पर मूलभूत नागरिक अधिकार की मांग करने वाले कश्मीरियों के सवाल के जवाब मे बराबर प्रचारित किया जाता रहा कि यह भीड़ पाकिस्तान के इशारे पर नाच रही है, दिल्ली और स्थानीय प्रशासन अपनी खामी ढूढ़ने के बजाय इसे अलगाववादियों और विदेशी साजिश का हिस्सा मानता रहा। उन्हें इतना अंदाजा भी नहीं हुआ कि यह अवाम जो सड़क पर उतरी है इसके पीछे राजनीतिक दलों की सोच की अपेक्षा आम अवाम की दुश्वारियां ज्यादा काम कर रहीं हैं।
दिन सरकता रहा और लोग मरते रहें। दिल्ली उमर अब्दुल्ला के सहारे बेफिक्र बैठी रही। उमर जिन्हें कश्मीर पर ज्यादा विश्वास रहा और जो कश्मीरी राजनीति को अपनी पैतृक संपत्ति मान बैठे हैं। अगर उमर ने शुरूआत में ही, राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया होता तो शायद बात आगे नहीं बढ़ती। किंतु कश्मीर के राजनीति पर नियंत्रण को लेकर उन्होने वहाँ की अवाम, हुर्रियत और पीडीपी से ठोस और सीधी वार्ता की पहल नहीं की। इन्हें तवज्जो न देने के पीछे शायद उनका यह डर हो सकता है कि कहीं घात लगाकर बैठी महबूबा मुफ्ती इस अवसर का इस्तेमाल न कर लें। पूरे मामले में उमर का रवैया दिल्ली के साथ ऐसा बना रहा कि हुर्रियत या मुफ्ती की भूमिका नगण्य रहे ताकि दिल्ली पर उनका राजनीतिक दबदबा बना रहे। कमोबेश स्थानीय कांग्रेसी स्थिति भी यही रही जिसमें अन्य पक्षों की भूमिका को शून्य कर दिया जाय । कश्मीर में इन लोगों को इतनी भयावहता का अंदाजा नहीं था। जैसे-जैसे मामला बिगड़ता गया और दिल्ली का उमर से विश्वास जाता रहा अन्य विकल्पों में संभावना तलाश की गयी।
अब सर्वदलीय बैठक और डेलीगेशन के माध्यम से डैमेज कंट्रोल का प्रयास किया जा रहा है। कश्मीर की मौजूदा हिंसा के इस लंबे सत्र में 20 सितंबर को डेलीगेशन में मीरवाइज़ का यह बयान महत्त्वपूर्ण है कि ‘भारत सरकार एक तरफ हमसे बातचीत करना चाहती है, वही दूसरी ओर हमें घरों में नजरबंद किया गया है’ वाकई कैसे अंदाजा लगाया जाए कि यह विश्वासपूर्ण माहौल में ठोस बातचीत का आधार होगा। गेंद अब दिल्ली के पाले में है और उसे ही तय करना है कि कश्मीर में लोकतन्त्र कितना मजबूत होगा और एक आम कश्मीरी क्या वाकई भारतीय बन पाने में सफल होगा।
अनुज शुक्ला
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Thursday 21 October 2010

चोर-चोर मौसेरे भाई वाली कहावत दोनों पार्टियों के लिए सटीक साबित हो रही है

रत्नेश कुमार मिश्र
बिहार में चुनावी सावन आ गया है। सभी राजनीतिक दल अपने-अपने वोटबैंक के साजिश में लगे हुए हैं। आत्मप्रशंसा, आरोप प्रत्यारोप और झठे तुष्टीकरण की एक लहर सी आ गई है।इस बीच अखबारों में खबर आई कि एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने नीतीश सरकार को आड़े हाथों लिया। जाहिर है कि बिहार में विधान सभा चुनाव को देखते हुए कांग्रेस अपने चुनावी एजेण्डे के निर्धारण में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहती। ऐसे में बिहार में केंद्र सरकार द्वारा दी गई धनराशि का हिसाब मांगना जायज है, इसके अलावा कांग्रेस के पास कोई चारा नहीं है। अब देखना यह है कि नीतीश सरकार कौन सी सियासी चाल चलती है। चोर-चोर मौसेरे भाई वाली कहावत दोनों पार्टियों के लिए सटीक साबित हो रही है। केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस और उसके घटक दल भी दूध के धुले हुए तो कदापि नहीं है। पहले आईपीएल फिर मनरेगा और अब राष्ट्रमण्डल जैसे भ्रष्टाचार के गहरे दलदल में फंसी यूपीए सरकार देश में विकास के अपने मनमाफिक कसीदे पढ़ रही है। धन की लूट खसोट में कौन अव्वल रहा इस नतीजे पर पहुंचना जरा मुश्किल है। विकास और प्रगति के नाम पर चुनावी अखाड़ों में ताल ठोंकने वाली राजनीतिक पार्टियों को यह बात कब समझ में आएगी कि इस मुहावरे में अब दम नहीं रहा। देश की जनता मंहगाई और बेरोजगारी की चपेट में है। गरीबी और भुखमरी की स्थितियाँ दिनों-दिन बढ़ती जा रही हैं। भ्रष्टाचार के पैमाने में लगातार वृद्धि हो रही है। 2005 में अपनी ईमानदार छवि के चलते सत्ता में आए नीतीश कुमार हजारों करोड़ गटक लिए और डकार तक नहीं ली। बिहार पांच साल पहले जहां खड़ा था वही अब भी है। हां यह जरूर हुआ कि सत्ता प्रतिष्ठान के कुछ चाटुकार पूंजीपतियों का विकास अवश्य हुआ। लिहाजा कांग्रेस और नीतीश सरकार दोनों एक ही धरातल पर खड़े हैं। अभी कुछ ही दिनों पहले जब सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिया कि सरकारी गोदामों में खुले आसमान के नीचे अनाज को सड़ने से अच्छा होगा कि उसे देश की भूखी, गरीब जनता में मुफ्त बांट दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश पर प्रतिक्रिया देते हुए कृषिमंत्री शरद पवार ने कहा कि इस पर अमल संभव नहीं है। जिस देश में दुनिया की अधिकतम भूख और कुपोषण की शिकार जनता निवास कर रही हो, वहाँ खाद्यान का सड़ जाना कितना बड़ा नैतिक अपराध है, शायद इसका एहसास कांग्रेस को नहीं है। वोटबैंक की गुणागणित में तल्लीन श्रीमती सोनिया गांधी और यूपीए सरकार अबतक मंहगाई का विकल्प सोचने में नाकामयाब रही है उनके विकास और प्रगति के राष्ट्रमण्डल में हजारों करोड़ो के वारे - न्यारे हो गए। ऐसे में देखना यह है कि नीतीश कुमार एक बार फिर अपनी कुर्सी बचाने में कामयाब होते है या नहीं। बिहार की जनता को यह तय करना होगा कि इन सियासी दलों की लोकलुभावनी घोषणाओं के बीच अगले पांच सालों के लिए अपना भविष्य किसके हाथ सौंपती है। बिहार भूंखा है उसे रोटी चाहिए, नौजवान बेरोजगार हैं उन्हें रोजगार चाहिए। रानेताओं द्वारा खाए, पचाए और अघाए माल के दस्तावेजों की जांच सख्ती से होना चाहिए, इसे चुनाव का मुद्दा या यू कहें कि जनता का मुद्दा नहीं बनाना चाहिए। सियासी डलों को जनता की वास्तविक जरूरतों पर राजनीति के बजाय वोटबैंक की साजिश ही दिखाई देती है। इधर केंद्र में प्रमुख विपक्षी की भूमिका निभाने वाली और बिहार में नीतीश के साथ मिल कर चुनाव लड़ने वाले भाजपा ने सीधे कांग्रेस पर निशाना साधा है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी इस बात की मांग को लेकर अडिग है कि राष्ट्रमण्डल खेलों में हुए करोड़ों रूपए के घोटाले की संसदीय समिति के द्वारा जांच होनी चाहिए। गडकरी का इशारा सीधे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तरफ है। पास किए गए रूपयों की विभिन्न मदों में खर्च की जांच ठीक ढंग से हुए बिना उन्होंने हस्ताक्षर कैसे किए । विदित है कि अभी कुछ ही दिनों पहले भाजपा के ही एक बड़े नेता और गुजरात के वर्तमान मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ नीतीश कुमार की तस्वीर को अखबारों में विज्ञापित करने पर नीतीश कुमार ने कड़ी आपत्ति जाहीर की थी। लेकिन साथ-साथ चुनाव लड़ने में कोई आपत्ति नहीं है। नीतीश कांग्रेस और भाजपा पैतरे बाजी के अतिरिक्त लालू और पासवान जैसे दिग्गज भी अपनी कोर-कसर नहीं छोड़ने वाले हैं। इन राजनीतिक चुहलबाजियों के बीच जनता का फैसला आना बाकी है।

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Wednesday 1 September 2010

दैनिक जागरण अति सतर्कता से क्यों घबरा रहा?


दैनिक जागरण ने 31 अगस्त 2010 को अपने संपादकीय ‘अति सर्तकता’ में ‘चिंता’ जताई है कि बाबरी मस्जिद पर जैसे-जैसे फैसला आने का समय नजदीक आ रहा है वैसे-वैसे प्रदेश में प्रशासनिक स्तर पर सक्रियता क्यों बढ़ाई जा रही है। यहां यह सवाल उठता है कि बानबे की बजरंगी करतूतों से डरा हुआ समाज जब फिर से संघ गिरोह द्वारा खुलेआम इस धमकी से कि यदि फैसला उनके खिलाफ जाता है तो फिर से सड़क पर उतरेंगे, डरा हुआ है और उसके मन में बानबे की विभीषिका फिर से जिंदा हो उठी है ऐसे में हर अमन पंसद नागरिक इस बार एक चौकस व्यवस्था चाहता है। तब देश के सबसे ज्यादा लोगों के बीच पढ़ा जाने वाला अखबार बहुसंख्क जनता की इस चिंता को क्यों नजरंदाज कर रहा है। दैनिक जागरण को आम लोगों की तरह यह क्यों नहीं लगता कि अगर बानबे में तत्कालीन कल्याण सरकार ने चाक चौबंध व्यवस्था की होती तो बाबरी मस्जिद के विध्वंस जैसी बड़ी आतंकवादी घटना न हो पाती और न ही इतने लोग मारे गए होते।
दरअसल मामला समझदारी या मूर्खता का नहीं है। सवाल इस अखबार की इस देश के लोकतंत्र और उसके धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रति संवेदनशीलता का है। जिस पर यह अखबार हमेशा कमजोर दिखा है। दरअसल उसकी यह कमजोरी ही थी कि उसने बानबे में संघ के पक्ष में ‘सरयू लाल हुयी’ टाइप की अफवाह फैलाने वाली खबरें लिखीं और संघियों को उत्पात करने के लिए प्ररित किया। जब प्रशासन से जुड़े हुए अधिकारी संघी गिरोहों में शामिल होकर, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की सुरक्षा की जिम्मेदारी से पीछे हटकर कारसेवकों को खुलेआम मदद पहुंचा रहे थे तब इस अखबार ने इतनी बड़ी प्रशासनिक विफलता को कभी खबर का हिस्सा नहीं बनाया। शायद तब उसे ये सरकारी अधिकारी अपना ‘राजधर्म’ निभाने वाले लगे हों। जबकि वहीं दूसरे अखबारों ने प्रशासनिक अधिकारियों के सांप्रदायिक रवैये के खिलाफ खबरें लिखीं। आज जबकि संघ पस्त है और प्रज्ञा-पुरोहित जैसे इनके गुर्गों को पुलिस पकड़ रही है और बाकी मारे-मारे, भागे-भागे फिर रहे हैं और सफाई देते-देते बेहाल हैं, तब शायद दैनिक जागरण चाक चौबंद व्यवस्था पर सवाल उठाकर बजरंगियों को फिर से तैयार रहने के लिए माहौल बना रहा है। शायद दैनिक जागरण बानबे के संघी प्रशासनिक अधिकारियों की तरह, जब बजरंगियों ने ‘ये अंदर की बात है, पुलिस हमारे साथ है’ का उद्घोष करके पुलिस के अपने साथ होने का प्रमाण दिया था, जैसे खुली संघी पक्षधरता वाले पुलिस को न पाकर परेशान है।

संपादकीय के अंत में अखबार ने कहा है कि इस मसले का हल राजनीतिक दलों की आपसी बातचीत से हो सकता था लेकिन किसी ने इस पर ईमानदारी से पहल नहीं की। दरअसल, दैनिक जागरण यहां संघ परिवार के इस तर्क को ही शब्द दे रहा है कि मसले का हल कोर्ट के बाहर राजनीतिक स्तर पर हो यानी संसद में कानूून बनाकर। दूसरे शब्दों में जागरण बहुसंख्यकवाद में तब्दील हो चुके इस राजनीतिक व्यवस्था में इस मुद्दे का हल बहुसंख्यकों के पक्ष में तर्क के बजाय आस्था के बहाने करना चाहता है।

द्वारा जारी-
शाहनवाज आलम, विजय प्रताप, राजीव यादव, शाह आलम, ऋषि सिंह, अवनीश राय, राघवेंद्र प्रताप सिंह, अरुण उरांव, विवके मिश्रा, देवाशीष प्रसून, अंशु माला सिंह, शालिनी बाजपेई, महेश यादव, संदीप दूबे, तारिक शफीक, नवीन कुमार, प्रबुद्ध गौतम, शिवदास, लक्ष्मण प्रसाद, हरेराम मिश्रा, मसीहुद्दीन संजरी, राकेश, रवि राव।
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) की दिल्ली और यूपी ईकाई द्वारा जारी।
संपर्क सूत्र उत्तर प्रदेश - 09415254919, 009452800752
संपर्क सूत्र दिल्ली - 09873672153, 09015898445, 09910638355, 09313129941
- नई पीढ़ी से साभार

Monday 19 July 2010

प्रभाष जोशी की परंपरा क्या है?


अंबरीश कुमार
आज पंद्रह जुलाई को हमारे संपादक प्रभाष जोशी का जन्मदिन है जिनकी परंपरा का निर्वाह करते हुए आज भी जनसत्ता के हम पत्रकार राज्य सत्ता की अंधेरगर्दी के खिलाफ डटे हुए है .पिछली बार अपने जन्मदिन पर होने वाले कार्यक्रम में उन्होंने दिल्ली आने को कहा पर नही आ पाया .इस बार उनकी परम्परा की मार्केटिंग करने वालों ने हम जैसे तमाम पत्रकारों को पूछा भी नही जो तमाम लोगो के पलायन के बाद इस अखबार को छोड़ नहीं पा रहे है क्योकि जीवन का एक बड़ा हिस्सा इस अखबार के लिए समर्पित किया है .प्रभाष परंपरा के तहत न कोई श्रीश चन्द्र मिश्र ,सुशील कुमार सिंह, सुरेंद्र किशोर,कुमार आनंद ,देवप्रिय अवस्थी ,सत्य प्रकाश त्रिपाठी ,शम्भू नाथ शुक्ल ,उमेश जोशी , मनोहर नायक ,मंगलेश डबराल,अरविन्द उप्रेती ,पारुल शर्मा ,अनिल बंसल ,हरिशंकर व्यास ,संजय सिंह ,अमित प्रकाश सिंह आदि को याद कर रहा है और न ही जय प्रकाश साही को .जनसत्ता की बुनियादी टीम के पत्रकार आलोक तोमर का आज ही कैंसर से इलाज शुरू हुआ और वे कई घंटे अस्पताल में कीमो कराते रहे पर प्रभाष जोशी की इस नई परंपरा के कोई झंडाबरदार इस पत्रकार को देखने तक नही पंहुचे . मुझे याद है जब आलोक तोमर के विवाह का भोज दिल्ली में हुआ था तो दिल्ली का मीडिया उमड़ पड़ा था .और अब जिन रामनाथ गोयनका के नाम पुरस्कार पाकर लोग धन्य महसूस करे है, वे खुद आलोक तोमर और सुप्रिया राय को आशीर्वाद देने आये और घंटों रहे .पर आज आलोक तोमर के पास कोई नही था .अपवाद भाभी उषा जोशी रही जिहोने आलोक की सुध ली .
मुझे तभी याद आया कि प्रभाष जोशी निधन से ठीक एक दिन पहले लखनऊ में एक कार्यक्रम के बाद मुझसे मिलने सिर्फ इसलिए आये क्योकि मेरी तबियत खराब थी .करीब ढाई घंटा साथ रहे और एयरपोर्ट जाने से पहले जब पैर छूने झुका तो कंधे पर हाथ रखकर बोले -पंडित सेहत का ध्यान रखो बहुत कुछ करना है .यह प्रभाष जोशी परंपरा थी .मुझे याद आया जब जयप्रकाश नारायण के सहयोगी शोभाकांत जी के कहने पर मै रामनाथ गोयनका से मिला और उन्होंने प्रभाष जोशी से मिलने भेजा था .१९८७ की बात है प्रभाष जोशी के कार्यालय सचिव राम बाबु से मैंने बताया - रामनाथ गोयनका जी ने भेजा है प्रभाष जी से मिलना चाहता हूँ .राम बाबू ने प्रभाष जोशी से बात कर कहा - तीन महीने तक मिलने का कोई समय नही है .यह संपादक प्रभाष जोशी ही हो सकते थे जो अपने मालिकों से भी अलग सम्बन्ध रखते थे .वे ही प्रभाष जी सीढी चढ़ कर मिलने आए थे .अगर आज वे रहते तो आलोक तोमर की क्या ऐसी अनदेखी होती जिसे वे अपने पुत्र की तरह मानते थे .
आज प्रभाष परंपरा के वाहक वे बहादुर पत्रकार भी है जो धंधे में मालिक का काम होने के बाद मिठाई का डिब्बा लेकर माफिया डीपी यादव की चौखट पर शीश नवाते है और वे पत्रकार भी है जो एक्सप्रेस प्रबंधन से साजिश कर प्रभाष जोशी को संपादक पद हटवाते है .वे भी है जो १९९५ के दौर में प्रभाष जोशी को पानी पी पी कर कोसते थे और हमारे खिलाफ एक संघी संपादक के निर्देश पर चुनाव भी लड़े और हारे भी . जिन ताकतों को हमने कई बार हराया वे सभी अब प्रभाष परम्परा वाले हो गए है . न्यास में बाकि धंधेबाज लोगों की की सूची देखकर उत्तर प्रदेश के किसी पुराने पत्रकार से बात कर ले ट्रांसफर पोस्टिंग से करोड़ों का वारा न्यारा करने वालो का भी पता चल जायेगा . भाजपा के दो पूर्व अध्यक्ष भी प्रभाष परम्परा वाली टीम में है . बाबरी ध्वंश के बाद प्रभाष जोशी ने जिन कट्टरपंथी ताकतों से मुकाबला किया आज उन्ही ताकतों का जमावड़ा उनकी परंपरा के नाम पर उनकी साख ख़त्म करने पर आमादा है .चंद्रशेखर जी के ट्रस्ट पर कब्ज़ा करने वाले अब प्रभाष जोशी के साथ भी वही व्यवहार करना चाहते है .
तभी तो पत्रकार कृष्ण मोहन सिंह ने पूछा - ये ओझा और गाड़िया किस प्रभाष परम्परा से आते है .इसपर मेरा जवाब था - गनीमत है उन रिश्तेदार पुलिस अफसरों को नहीं रखा जो विवाद होने के बाद फर्जी मुकदमा दर्ज करने से लेकर चार्जशीट तक लगवाते है .कुल मिलकर नैतिकता का लबादा ओढ़कर अपनी मार्केटिंग के लिए प्रभाष जोशी परंपरा का यह ढोंग अपन के गले नही उतरने वाला .इलाहाबाद में जो ये कर चुके है उससे वहा के छात्र पहले से ही आहत है .इलाहाबाद में ही पत्रकारिता के छात्रों के संघर्ष का नेतृत्व करते हुए प्रभाष जोशी ने कहा था -अगर सर कटाने की नौबत आई तो प्रभाष जोशी सबसे आगे होगा .
प्रभाष जोशी को सही मायने भी तभी याद किया जा सकता है जब दिल्ली से लेकर दूर दराज के इलाकों में मीडिया को बाजार की ताकत से मुक्त करते हुए वैकल्पिक मीडिया के लिए ठोस और नया प्रयास हो .भाषा के नए प्रयोग की दिशा में पहल हो और प्रभाष जोशी के अधूरे काम को पूरा किया जाए.पर यह सब काम उस गिरोहबंदी और खेमेबंदी से नही होने वाला जिसकी शुरुवात दिल्ली में कुछ पेशेवर लोगो ने की है की है . प्रभाष जोशी देश के अकेले पत्रकार थे जिन्होंने देश के कोने कोने में काम करने वाले पत्रकारों से सम्बन्ध बनाया और निभाया .


(इस पोस्ट के लेखक अंबरीश कुमार, उन विरले पत्रकारों में शामिल हैं जिन्हें प्रभाष जोशी के साथ काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। यह लेख ’नई पीढी’ ब्लाग से लिया गया है।)

Saturday 19 June 2010

पंजाब के बच्चों के बालों में यूरेनियम

मीनाक्षी अरोड़ा-
16 जून 2010 फरीदकोट। फरीदकोट के मंदबुद्धि संस्थान “बाबा फ़रीद केन्द्र” के 149 बच्चों के बालों के नमूनों में यूरेनियम सहित अन्य सभी हेवी मेटल, सुरक्षित मानकों से बहुत अधिक पाये गये हैं। यह निष्कर्ष जर्मनी की प्रख्यात लेबोरेटरी माइक्रोट्रेस मिनरल लैब द्वारा पंजाब के बच्चों के बालों के नमूनों के गहन परीक्षण के पश्चात सामने आया है। मस्तिष्क की विभिन्न गम्भीर बीमारियों से ग्रस्त लगभग 80% बच्चों के बालों में घातक रेडियोएक्टिव पदार्थ यूरेनियम की पुष्टि हुई है और इसका कारण भूजल और पेयजल में यूरेनियम का होना माना जा रहा है।

रविवार, 13 जून 2010 को फ़रीदकोट में एक प्रेस वार्ता में जर्मनी की प्रख्यात लेबोरेटरी माइक्रोट्रेस मिनरल लैब की रिपोर्ट रखी गई। प्रेस वार्ता बाबा फ़रीद केन्द्र की ओर से बुलाई गयी थी। प्रेस वार्ता में यह बात बताई गई कि समूचे क्षेत्र के पानी के नमूनों में यूरेनियम की मात्रा मानक स्तर (Maximum Permissible Counts) से काफ़ी अधिक है। पंजाब के कई क्षेत्रों, विशेषकर मालवा इलाके में भूजल और पेयजल में यूरेनियम पाये जाने की पुष्टि हो गई है। इस खतरनाक “भारी धातु” (Heavy Metal) के कारण पंजाब में छोटे-छोटे बच्चों को दिमागी सिकुड़न और अन्य विभिन्न तरह की जानलेवा बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है।

खेती विरासत मिशन के कार्यकारी अध्यक्ष डॉ एमएस आजाद और फ़रीदकोट स्थित केन्द्र के प्रभारी प्रीतपाल सिंह ने बताया कि दक्षिण अफ़्रीका के विख्यात टॉक्सिकोलॉजिस्ट डॉ कैरीन स्मिट ने इन बच्चों के बालों के नमूनों को परीक्षण के लिये मार्च 2009 में जर्मनी की प्रयोगशाला में भेजा था। अधिकतर प्रभावित बच्चे पंजाब के दक्षिणी मालवा इलाके के जिलों भटिण्डा, फ़रीदकोट, मोगा, मुक्तसर, फ़िरोज़पुर, संगरूर, मनसा और श्रीनगर के हैं। बाबा फ़रीद केन्द्र में सैकड़ों की संख्या में शारीरिक और मानसिक रोगों से पीड़ित बच्चों का इलाज चल रहा है। स्मिट का कहना है कि “बालों के नमूनों के इन खतरनाक परिणामों से वैज्ञानिकों को भी हैरानी है, हम समझ रहे थे कि यह प्रदूषण आर्सेनिक धातु का होगा, लेकिन “सेरेब्रल पाल्सी” और “अविकसित दिमाग” से ग्रस्त बच्चों के पेथोलोजिकल परिणामों में उच्च स्तर का यूरेनियम पाया गया है…जो कि बेहद चौंकाने वाला है।” “किसी एक तत्व की विषाक्तता इतनी हानिकारक नहीं होती लेकिन जब भारी धातुएं यूरेनियम के साथ मिल जाती हैं तो उनका विषैलापन कई गुणा बढ़ जाता है।“ चूंकि पंजाब में यूरेनियम की उपस्थिति का कोई इतिहास नहीं रहा है, इसलिये परीक्षणकर्ता सिर्फ़ हेवी मेटल के कारण होने वाली असमय मौतों और बीमारी के लक्षणों की तरफ़ ध्यान केन्द्रित किये हुए थे।

देश के सबसे समृद्ध राज्यों में से एक पंजाब बड़े खतरनाक ढंग से एनवायरनमेंट क्राइसिस की तरफ बढ़ रहा है। इस रिपोर्ट से एक बार पुनः पंजाब के पानी में जानलेवा धातुओं, यूरेनियम, आर्सेनिक, नाईट्रेट सहित कीटनाशकों की बहस तेज हो गई है।

कुछ दिनों पहले पंजाब के हवा-पानी में यूरेनियम होने की बात हिंदी इंडिया वाटर पोर्टल ने की थी, अब उसकी पुनः पुष्टि हो गई है, जब जर्मनी की लैब से परीक्षण के नतीजे सामने आ गए हैं। खेती विरासत मिशन के कार्यकारी निदेशक उमेंद्र दत्त का भी मानना है, “लंबे समय तक पंजाब रसायनों की विषाक्तता के कारण सुर्खियों में रहा है लेकिन अब बालों के नमूनों में यूरेनियम का उच्च स्तर का संकेत वास्तव में खतरनाक हैं।”

पंजाब में खेती और अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लालच में खेतों में ऐसे कई रसायनों और उर्वरकों का प्रयोग किया जा रहा है, जो कई देशों में काफ़ी पहले प्रतिबन्धित किये जा चुके हैं। यूरेनियम और हेवी मेटल के कारण उत्पन्न होने वाली बीमारियों को ऐसे रसायन और भी भड़का देते हैं, क्योंकि बच्चों में साँस लेने में तकलीफ़ होना, अपचन और नर्वस सिस्टम सम्बन्धी बीमारियाँ तो पंजाब में काफ़ी पहले से आम हो चली हैं। जबकि महिलाओं और पुरुषों में नपुंसकता, बाँझपन, अनियमित मासिक धर्म, समय से पहले जन्म, अचानक गर्भपात जैसी समस्याएं भी बढ़ती जा रही हैं। (इंडिया वाटर पोर्टल)
साभार- नईआजादी

Sunday 13 June 2010

त्रासदी के बाद का सच आना बाकी

अदालती ट्रायल के बाद अब मीडिया और पब्लिक ट्रायल की बारी है। भोपाल गैस कांड पर २४ साल बाद अदालत द्वारा दिए गए मामूली फ़ैसले ने हमारी व्यवस्था की कलई, खोल कर के रख दी। न्यायिक व्यवस्था के साथ कार्यपालिका और विधायिका भी संदेह की जद में आ गए हैं। हम मात्र इस फ़ैसले पर असंतोष व्यक्त नहीं कर सकते क्योकि इस फ़ैसले के पीछे बड़े साजिशकर्त्ता है जिनके उपर उतनी बात नहीं की जा रही है जितनी आवश्यक है। एक रणनीति के तहत कांग्रेस के अंदर सिर्फ़ राजनीतिक वनवास झेल रहे अर्जुन सिंह को निशाना बनाया जा रहा है। दरअसल इस पूरे मामले में अर्जुन सिंह के अलावा भी कयी दिग्गज शख्शियतें है जिनका दामन यूनियन कार्बाईड हादसे के कारण दागदार है। कांग्रेस के अलावा भाजपा की पूरे मामले पर रहस्यमय हथकंडा काबिलेगौर है।
वे क्या कारण थे कि तत्कालिन मुख्य न्यायधीश(सर्वोच्च न्यायालय) अहमदी ने इस मामले पर कम से कम सजा का प्रावधान किया। अहमदी की भूमिका पर भी सवाल उठाना चाहिए। भोपाल मामले में अर्जुन सिंह राजीव गांधी के बाद राजग सरकार और अहमदी कम जिम्मेदार नहीं। कबिलेगौर है कि अहमदी एडरसन की कंपनी के चैरिटी ट्रस्ट के सदस्य हैं। और इन्ही अहमदी की वजह से अदालत दोषियों को कम से कम सजा देने को वाध्य हुई। अहमदी की संदेहास्पद भूमिका कयी तथ्यों पर से पर्दा उठाने के लिए काफ़ी है।
भाजपा इस मामले पर चाहकर भी कोई लीड लेने की स्थिति में नहीं है कारण साफ़ है भाजपा ने भी एंडरसन एंड कंपनी को बचाव के सारे रास्ते मुहैया करवाए। राजग के शासनकाल में इसकी पटकथा लिखी गयी। कोई न्याय करे या न करे पर देश की सबसे बड़ी जनता की अदालत में इस मामले पर न्याय किया जाएगा। आज सभी एक स्वर में दोषियों को कठोर सजा देने के साथ ही मामले को प्रभावित करने वाले कारकों को उजागर करने की बात कर रहे हैं। भोपाल गैस कांड के पीडितों के प्रति यही सच्ची सहानुभूति होगी।

Tuesday 20 April 2010

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता यूनिवर्सिटी में परीक्षा घोटाला





(मंगलवार /20 अप्रैल 2010 )

परीक्षा घोटाले को लेकर अब देश में पत्रकारिता की शिक्षा मुहैया कराने में अपना अलग मुकाम रखनेवाली माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता यूनिवर्सिटी भी अछूती नहीं रही . दैनिक भास्कर डाट कॉम पर छपी खबर के मुताबिक इस यूनिवर्सिटी में फर्जी तरीके से परीक्षा परिणाम तैयार किया जा रहें थे . यहां परीक्षा विभाग के कुछ कर्मचारी न केवल उत्तर-पुस्तिकाओं में फेरबदल करवाकर फेल छात्रों को पास करवा रहे थे बल्कि सालों से अंकसूचियों में नंबर बढ़वाने का खेल भी कर रहे थे।बाद में इस गोरखधंधे से हो रही कमाई के बंदरबांट को लेकर कर्मचारियों के बीच विवाद हुआ तो मामला विश्वविद्यालय प्रशासन तक जा पहुंचा। जांच के बाद जब मामले की पुष्टि हो गई तो विश्वविद्यालय प्रशासन ने गुपचुप तरीके से 6 कर्मचारियों की सेवा समाप्त कर इस प्रकरण पर पर्दा डाल दिया।

इस मामले को लेकर जब तत्कालीन परीक्षा नियंत्रक जे.आर. झणाने ने जाँच शुरू की कई कर्मचारियों के नाम सामने आए। पकड़े गए कर्मचारियों में से भृत्य मनीष सेन और भरत सिंह ने अपनी गलती मानते हुए अपने साथ ग्यासउद्दीन अहमद, प्रमोद गजभिए और प्रसन्न दंडपाल के भी शामिल होने की बात कही। इनमें से तीन कर्मचारियों ने आरोपों को नकारा। परीक्षा शाखा की जांच में सामने आया कि मूल उत्तर-पुस्तिकाओं के पेज निकालकर उसमें पास छात्रों की कॉपी के पेज लगा दिए जाते थे।

अपनी जाँच रिपोर्ट में यूनिवर्सिटी ने 6 कर्मचारियों की सेवा समाप्त कर दी। इनमें से कुछ कर्मचारियों ने विवि की इस कार्रवाई को शासन को शिकायत कर चुनौती दी थी। इसके बाद इस मामले में विवि प्रशासन ने फिर से जांच कराने का फैसला लिया। पूरे मामले में कार्रवाई को बिलकुल गोपनीय रखा जाकर मामले पर परदा डाला जा रहा है। हालांकि अब मामले की शिकायत कुलपति प्रोफेसर वीके कुठियाला के पास भी पहुंची है। वे खुद भी इस मामले की अंदरूनी पड़ताल किसी अन्य विवि के जांच अधिकारी से करवाने की बात कह रहे हैं।

इस घोटाले को लेकर दैनिक भास्कर ने कुलपति वी. के. कुठियाला से सीधी बात की तो उन्होंने बताया की वे इस मामले की जाँच करवा रहें हैं . हालाँकि उन्होंने कहा यह प्रकरण मेरे यहां नियुक्त होने के पहले का है, कार्रवाई की जा रही है।

आगे इस प्रकरण में क्या हुआ है?

प्रकरण की गोपनीय जांच किसी अन्य विश्वविद्यालय के अधिकारी से करवा रहे हैं। जो जांच रिपोर्ट आएगी, उस पर कार्रवाई की जाएगी।
हालाँकि जब कुलपति कुठियाला से यह पूछा की

इसमें से एक कर्मचारी रजिस्ट्रार के निवास पर रसोइया बन गया है?

तो उन्होंने कहा इस बारें में उन्हें �इसकी जानकारी मुझे नहीं है।

इस सम्बन्ध में दैनिक भास्कर ने यूनिवर्सिटी के रजिस्टार से भी बात की .

परीक्षा विभाग से कर्मचारियों को क्यों निकाला गया है?
�अक्टूबर 09 में कुछ छात्रों की उत्तर-पुस्तिकाओं में गड़बड़ की जांच तत्कालीन रेक्टर ओपी दुबे ने परीक्षा नियंत्रक झणाने से जांच करवाने के बाद 6 कर्मचारियों को निकाला था। प्रकरण की नए सिरे से जांच कुलपति कार्यालय से करवाई जा रही है। कुछ कर्मचारियों ने छात्रों से पैसे लिए जाना स्वीकार भी किया है।

यह काम काफी पहले से हो रहा था?

�मैं तो उस समय यहां आया ही था। झणाने मेडम, जो कि परीक्षा नियंत्रक थीं, ने मामले की जांच करवाई थी।

इनमें से एक भृत्य आपके निवास पर रसोइया है?

�उसे सुधरने का एक मौका दिया था, जिसे कल ही हटा रहे हैं।

(साभार - भास्कर )

Sunday 18 April 2010

सवाल फ़िर उठे हैं

मैंने पिछ्ले पंद्रह दिनों में इसे छापने के लिए तीन समाचार पत्रों को भेजा. ये वे समाचार पत्र है जो जन सरोकारों की दुहाई देते फ़िरते है. यहा असहमति को कितना जगह दिया जाता है, मेरी समझ में आ गया.पहले विनायक सेन, सीमा आजाद और अब अरूंधति को लेकर सत्ता का नजरिया साफ़ दिखता है इस मुहिम को आगे बढाने का जिम्मा मीडिया ने अपने उपर ले लिया है. खैर यह सरकार असहमति के स्वर को सुनने की आदी नहीं रही है इसे तो सिर्फ़ और सिर्फ़ बारूद की आवाज सुनाई देती है........ मीडिया को भी .......
अनुज शुक्ला -
सवाल फ़िर उठे हैं, दंतेवाड़ा में नक्सल विद्रोहीयों ने बड़ी तादाद में अर्द्ध-सैनिक बल के जवानों की हत्या कर दी। हत्या से एक दिन पहले, गृहमंत्री पी.चिदंबरम ने बयान दिया था कि ’नक्सली डरपोक हैं’। आपरेशन ग्रीन हंट के बाद लगातार राज-सत्ता, नक्सलियों को उकसाने का प्रयास कर रही है। यह सरकार की उस बड़ी मुहिम का हिस्सा है, जिसमें वह नक्सली समस्या के खिलाफ़, व्यापक जन-समर्थन का आधार तैयार कर रही है। जिसका उपयोग करके सत्ता के पहरेदारों की कारगुजारियों को जायज ठहराया जा सके और तमाम बड़े सवाल जो नक्सल समस्या की जड़ से निकल कर सामने आए हैं उन पर पर्दा डाला जा सके।
दरअसल हाल के कुछ महीनों में, हत्या-प्रतिहत्या का जो दौर सामने आ रहा है उसके कई निहितार्थ हैं। ’ग्रीन बेल्ट’ की अमूल्य खनिज संपदा का दोहन, इन घटनाओं की मूल जड़ है। पिछ्ले पांच वर्षों में भारत में अरबपतियों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अरबपतियों की संपत्ति का कुल हिस्सा देश की सकल घरेलु उत्पाद (25%) के बराबर है जो मात्र १०० उद्योगपतियों की घोषित संपत्ति है। अधिकांश उद्यमी वे लोग हैं जो किसी न किसी रूप से नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में वन-संपदा के दोहन का व्यवसाय कर रहे हैं। २००८-२००९ के वित्त वर्ष में लगभग ९०% की वृद्धि दर से इनकी कमाई का इजाफ़ा दर्ज हुआ। इसमें सरकार की औद्योगिक नीति का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। वेदांता जैसी क्म्पनियों को सस्ते दरों पर खनिज क्षेत्र लीज पर दिया गया। इस संदर्भ पर मीडिया ने सरकार को सवालों के दायरे में खड़ा किया। चिदंबरम के वित्तमंत्री से गृहंमंत्री बनने तक के सफ़र पर भी सवालिया निशान लगे। एक तबके का मानना था कि यह सबकुछ कार्पोरेट घरानों के इशारे पर हुआ (इसका विस्तार से जिक्र अरूंधति राय ने अपने लेख ’धरती सुलग रही है’ में किया है।) सरकार जिस लाल गलियारे की बात करती आयी है उस क्षेत्र में औद्योगिक समूहों को आदिवासियों के जबरदस्त लोकतांत्रिक प्रतिरोध (नक्सल आंदोलन नहीं) का सामना करना पड़ा है। कई मर्तबा भ्रष्टाचार की बातें भी सामने आयीं, उद्योगपतियों के इसारे पर- पालिटिक्स, माफ़िया और पुलिस के गठजोड़ ने मिलकर इन इलाकों में आदिवासियों के खिलाफ़ जबरदस्ती की। वहा इतना सब कुछ होता रहा, इसकी सूचना कभी बाहर नहीं निकली। यह तभी संभव हुआ जब बड़ी वारदाते हुईं। मीडिया में आयी सूचनाएं भी एकपक्षीय दबाव से मुक्त नहीं मानी जा सकती।
खनिज दोहन की कमाई का एक बड़ा हिस्सा देशी और विदेशी कंपनियों के खाते में दर्ज होता है, सरकार को मामूली राजश्व की प्राप्ति होती है। अब सवाल उठता है कि औद्योगिक विकाश के नाम पर विस्थापन का दंश झेल रहे आदिवासियों के हिस्से क्या आया? गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा, विस्थापन और उत्पीड़न का दर्द। यहीं से भावनात्मक अलगावाद की शुरूआत उन्हें प्रतिशोध के हद तक ले जाती है। ऐसी आशा क्यों की जाती है कि सिर्फ़ आदिवासी ही विकास के इस अमेरिकी माडल की कीमत चुकाएं? जंगलों में रह रहे आदिवासियों के परंपरागत व्यवसाय खत्म होते जा रहे हैं, वे इस विकाश के कारण तेजी से बेरोजगार हुए हैं। जो अजिविका का साधन हुआ करता था आज वह दूसरों के कब्जे में है। स्थिति को सुधारने के ठोस प्रयास नहीं हुए। वैकल्पिक रोजगार के साधन भी मुहैया नहीं करवाए गए और जिम्मेदार सरकार के मुखिया यह घोषणा करते रहे कि ’जो हमारे साथ नहीं वह नक्सलियों के साथ है’ से मनःस्थिति को समझा जा सकता है।
नक्सलियों का नरसंहार के लिए चिदंबरम जी के पास आपरेशन ग्रीन हंट का फ़ार्मूला तो है पर उनकी बदहाल स्थिति सुधारने का एजेण्डा नहीं। देश में न्याय पूर्ण व्यवस्था के निर्माण के लिए प्रासंगिक हो गया है कि लोग आगे आकर खनिज संपदा के लूट में शामिल छ्द्म नेताओं और कार्पोरेटीय गठजोड़ के षडयंत्र को उजागर करे।
Anuj4media@gmail.com

Thursday 15 April 2010

आनंदवन का आनंद और व्रण

महाराष्ट्र की धरती पर अपने कर्मो से समाज को नयी दिशा और सोच देने वाले महापुरुषों की कमी नही है पर हमारी पढाई के तरीके हमें किताबी अनुभव से ज्यादा कुछ नही दे पाते। कारण चाहे जो भी पर ऐसा ही है। अपने किताबी अनुभव का वास्तविक अनुभव में बदलने की चाह में हम एक ऐसे व्यक्तित्व से जुडी जगह जाने का कार्यक्रम बनाया। इसके लिए चुना समाज से बाहर कर दिये गये कुष्ठ रोगियों के लिए अपना जीवन देने वाले बाबा आमटे के आश्रम 'आनंदवन' को। वहां जाने के लिए हम पॉच लोग सुबह की पैसेंजर से निकले। केवल दो घण्टे में हम वर्धा से वरोरा पहुॅच गये। वरोरा स्टेशन से आनंदवन तकरीबन 20 से 25 मिनट का पैदल रास्ता है। जैसे-जैसे हम आनंद वन की ओर जा रहे थे वैसे-वैसे स्कूल और कॉलेज में 'आनंदवन' के बारे में सुने गये ढेर सारे किस्से याद आ रहे थे। बाबा आमटे ने .......... को 6 कुष्ठ राेिगयों, एक अपाहिज गाय, पत्नी और अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ एक काली और पथरीली जमीन पर 'आनंदवन' बसाया था। ये आश्रम सच में आनंद का बगीचा है। अब तक सिर्फ सुना था कि आनंदवन में बाबा ने कुष्ठरोगियों की सेवा किस प्रकार कि और उन्हें किस प्रकार स्वावलंबन का पाठ पढाया। आनंदवन के बारे में और भी बहुत सुना पढ़ा था। वहॉ का ऑक्रेस्ट्रा 'स्वरावनंदनवन' की चर्चा तो पूरी दुनियॉ में है। उसे देखा/सुना भी है। तब से लेकर मन में एक चाहत थी कि आनंदवन देखूॅ और आनंदवन को करीब से महसूस करुॅ। लगभग 20 मिनट बाद हम आनंदवन में थे। हम मानों एक अलग दुनियॉ में आ गये थे। यहॉ कि स्वच्छता और हरियाली की नैसर्गिक सजावट देखकर हमें लग ही नही रहा था कि हम महाराष्ट्र के ही किसी हिस्से में हैं।
यहां हम सबसे पहले एक बडे से हाल में पहुॅचे जहॉ प्लास्टिक और रबर की बेकार चीजों से नई और आकर्षक वस्तुओं के निर्माण का कार्य चल रहा था। इसे देखकर बाज़ारी गिफ्ट का बेकार से लग रहे थे। दोनों हाथों से विकलांग एक लड़की अपने पैरों से ग्रिटिंग कार्ड बना रही थी। सारा काम अपने पैरों से ही करती ये लडकी आत्मनिर्भरता की जीती जागती मिसाल सी लगी। पैरों से छुट्टे गिनकर वापस करते हुए उसे देखकर प्रभावित हुए बगैर नही रहा जा सकता। हम आगे बिछौने और चद्दर बनाने वाले उन कुष्ठ रोगियों के पास पहुॅचे जहां पर कुष्ठ रोगी हाथकरघा से सुंदर सुंदर बिछौने और चद्दरें तैयार कर रहे थे। बाबा के पढ़ाये स्वावलंबन के पाठ ने कुष्ठ रोगियों को पूरी तरह से आत्मनिर्भर बना दिया है। वहॉ से हम इस काली और पथरीली जमीन पर आनंद का वन बसाने वाले बाबा की समाधिस्थल पर आ गये।ं यहां कई महत्वपूर्ण उक्तियॉ और प्रेरक कविताएॅ पढ़ने को मिली। हम बाबा की समाधि के पास बैठे-बैठे बाबा को याद कर रहे थे। बाबा की स्मृति में डूबे हूए हम वहॉ से तालाब की ओर निकले जहॉ प्राणी संग्रहालय है। यहॉ कई तरह के जीवों का बसेरा है।
अब तक दोपहर हो चुकी थी और खाना खाने का साथियों का आग्रह भी जोर पकडने लगा था। दोपहर का खाना खाने के बाद हम प्रदर्शनी में गये। यहाँ कई किताबें हमें देखने को मिली जिसमें बाबा का जीवन वण्र् ान किया गया है। मराठी, हिंदी और अंग्रेजी के साहित्यकारों द्वारा बाबा के जीवन वर्णन की किताबें भी उपलब्ध है। आनंदवन की लकडियों से बनायी हुयी हस्तकला कृतियॉ भी वहॉ पर प्रर्दशित की गयी है। वहॉ पर कपडे झोले आदि वस्तुएॅ बिक्री के लिए रखी गयी थी। ये सब चीजें आश्रम में रहने वाले कुष्ठरोगियों ने ही बनायी हैं। प्रदर्शनी से बाहर निकलने के बाद हम बाबा की जीवन संगिनी 'साधना ताई' से मिलने पहुॅचे। उनसे मिलना हमारे जीवन का अद्भुत अनुभव था। साधना ताई के साथ हमें ऐसा लगा जैसे हम आश्रम के बरसों पुराने वासी हो। उनकी बोलने की शैली से हम प्रभावित हुए। हमारा प्रभावित होना सहज था क्योंकि हम ऐसी शख्ससियत से मिल रहे थे जिनसे जुडी प्रत्येक चीज समाजसेवा में लगी थी। उन्होने बाबा से जुडी कई घटनाएॅ हमें सुनायी। बात चीज में उन्होने बताया कि बाबा को झूठ बोलने वालों से शख्त नफरत थी और झूठों का साथ देने वालों से तो वो उनसे भी ज्यादा नफरत करते थे। बाबा अपने हाथों से कुष्ठरोगियों को नहलाते और उनके कपडे धोते थे। बेहद प्रेरणादायक बातचीत के बाद हम आश्रम में स्थित कुष्ठ रोगियों के अस्पताल पहुॅचे। वहॉ पर इलाज के लिए भर्ती एक 28 साल के एक तरुण रोगी ने बताया कि 'यहां पर हमें बहुत अच्छी तरह से संभाला जाता है। ये सब बाबा की कृपा है। बाबा ने वो कर दिखाया जो सरकार ने नही किया। आज हमें इतनी तकलीफ नही है क्योंकि अब समाज भी हमें अच्छी नज़र से देखने लगा है। यहां से इलाज कराने के बाद शादी करने का विचार है। आज तक बहुत से रिश्ते आये लेकिन किसी को धोखा देना अच्छी बात नही है। आनंदवन में रहकर बाबा के मूल्यों का पालन ही कर रहा हॅू।' बातचीत में बाबा के आदर्शों और मूल्यों की झलक मिल रही थी। 13 साल के संदीप ने अपना एक पैर कुष्ठ रोग के कारण दो माह पहले ही खो दिया था। चेहरे पर मासूमियत छलकती इस बच्चे के आत्मविश्वास भरी बातों ने हमें आश्चर्यचकित कर दिया। उसने कहा कि 'घर से आई बाबा और ताई मिलने आते हैं। मैं रोज डुप्लीकेट पैर लगाकर स्कूल जाता हॅॅू। वहां अपने दोस्तों के साथ खेलता भी हॅू।' संदीप को सचिन और शक्तिमान बहुत अच्छे लगते हैं। क्रिकेट खेलना बहुत पसंद है पर पैरों की वजह से खेलना भी बद हो गया है।
I sought my soul , my soul I could not see.
I sought my god , my god eluded me .
I sought my friend , I found all the three.
साधना ताई, वहां की धरती और आश्रम में रह रहे कुष्ठ रोगियों से मिलकर ऐसा लग रहा था कि समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए दृढ इच्छाशक्ति की भावना सबसे जरुरी होती है। आनंदवन से बाहर निकलते समय बाबा आमटे की भावना और उनके आश्रम की अमिट छाप मन पर पड चुकी थी।

16 April 2010, वर्धा/ निलेश बापूसाहेब झालटे

तो फिर किसान आत्महत्या क्यों न करें?

राकेश कुमार -
सरकार गरीब किसानों की दशा सुधारने के लिए कितनी भी योजनाएं चला दे लेकिन उनकी स्थिति में सुधार नहीं आने वाला। क्योंकि कमीशनखोर भ्रष्ट अधिकारी गरीब किशानों की सभी योजनाओं की क्रीम-मलाई सबकुछ बीचरास्ते में ही डकार जा रहे हैं। सरकार इन कमीशनखोर अधिकारियों व कर्मचारियों पर लगाम लगाने के लिए समितियां भले ही बना रखी है लेकिन वे समितियां इनके लिए सायद छुईमुई से अधिक नहीं हैं। कमीशनखोर अधिकारियों का एक नया दस्ता उत्तर प्रदेश के जिला जौनपुर, मुंगरा बादशाहपुर स्थित एसबीआई बैंक में सामने आया है। बैंक के अधिकारी व कर्मचारी अपने एजेंटो के माध्यम से गरीब किसानों से धनउगाही करने का बाकायदा अभियान चला रखा है। इन कमीशनखोर धनपिपासु अधिकारियों का नया शिकार हुए हैं गॉव आदेपुर के सरजू प्रसाद हरिजन और उनकी पत्नी प्रतापी देवी। बैंक के कर्मचारी व अधिकारी अपनी निजी जेब भरने के लिए कमीशनखोरी में ऊपरी अधिकारियों सहित सरकार को भी बदनाम कर रहे हैं।



सरजू प्रसाद के ऊपर हुए अन्याय की वजह से कई दिन से मानशिक रूप से बीमार चल रहे हैं। सरजू और उनकी पत्नी के नाम से कुल ज़मीन का लगभग 88 हजार रुपये के आस-पास पूरी किस्त बनी है। दोनों के नाम से पहली किस्त के तौर पर 46 हजार रुपये पास किये गये जिसमें से बैंक के धनपिपासुओं ने 6 हजार रुपये बतौर कमीशन सीधे डकैती कर ली। उन्होंने बताया कि ’किसान क्रेडिट कार्ड’ बनवाने के लिए जब बैंक गया तो अधिकारियों ने कहा कि फला-फला कागज़ाद ले आओ काम हो जायेगा। 65 वर्षीय अनपढ़ सरजू 22 किलोमीटर तहसील, में चक्कर लगााते रहे लेकिन तहसील के कर्मचारी उन्हें आज आओ, कल आओ, ऐसा करते रहे लिहाजा तहसील में भी कागज़ादों के लिए अफसरशाही दक्षिना देना पड़ा। उसके बाद उनके जमीन की नकल मिल सका और इतीन मसक्कत के बाद किसी तरह तहसील से कागज़ाद निकालवाकर बैंक में जमा कर दिया। इसके बाद बैंक कर्मियों ने जोंक की तरह उनका खून चूसना शुरु कर दिया।



बैंक के साहबों ने तो उनकी कमर ही नहीं तोड़ दी बल्कि मानसिक रूप् से विक्षिप्त भी बना दिया है। सरजू से पहले तो बतौर कार्ड फीस कहकर एक हज़ार रुपया जमा करने को बोले। जानकरी के मुताबिक किशान क्रेडिट कार्ड बनाने में मुश्किल से 100 रूÛ खर्च लगता है। सरजू ने जानना चाहा तो बैंक के एक कर्मचारी ने तमाम प्रकार की फीसे गिना डाला। जो सरजू को याद भी नहीं है। सरजू किसी परिचित से एक हजार रुपये कर्ज लेकर किसी तरह तथाकथित फीस जमा किया। हद तो तब पार हो गयी जब सरकारी ऋण देते समय बैंककमियों ने पूरे पैसे का 10 फीसदी कमीशन देने का खुला आदेश कर दिया। अधिकारी का तुगलकी फरमान सुनकर सरजू ऋण लेने से मना करने लगे और बैंक से बाहर निकल गये। इसके बाद बैंक के दलालों व कर्मचारियों ने ऐसा चक्रव्यूह रचा कि सरजू उनके चंगुल में फंस ही गये। पीछे से एक साहब ने तो कहा कि सरकारी कर्ज लेने चले हैं साले कमीशन नहीं देंगे। इन सालों को नहीं पता कि हमें ऊपर साहबों से लेकर सरकार तक पहुंचाना पड़ता है। कर्ज देने के लिए अधिकारियों ने उनका मानशिक और भावनात्मक रुप से शोषण भी किया।



सरजू को ऋण लेने के लिए मजबूर कर दिया। क्योंकि अधिकारियों के पास ऋण देने के अलावा कोई और दूसरा रास्ता नहीं बचा था। इसलिए बैंक के सभी मुख्य स्टॉफर उनके पीछे मधुमक्खी की तरह चिपके रहे तब तक जब तक वे कर्ज ले नहीं लिए। क्योंकि ऋण देने की सारी कार्यवाईयां पूरी हो गयी थीं सिर्फ सरजू और उनकी पत्नी के खाते में पैसा ट्रांसफर होना बाकी रहा गया था। और उनके पास कैंसिल करने का कोई ठोस विकल्प नहीं था। क्षेत्र के किशान नेता आरÛ केÛ गौतम का कहना है केन्द्र व राज्य के सभी अधिकारी व कर्मचारी मज़दूरों व किशानों के हाथों से उनकी रोटी सीधे छीन रहे हैं। क्षेत्र में यह कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है। इन अधिकारियों की नियति से ही विदर्भ और बुन्देलखण्ड जैसे क्षेत्रों में हजारों किशानों की मौतें हुई हैं। ये अधिकारी और कर्मचारी मध्ययुगीन सामंतों की जगह नये सरकारी सामंत पैदा हो गये हैं। आदेपुर गॉव के ही मातादीन बिन्द ने बताया, ‘किशान क्रेडिड कार्ड’ पर कर्ज लेने के लिए पिछले दो महीने से आस-पास के सभी बैंकों में एक नहीें दो-तीन चक्कर लगा चुके हैं लेकिन बगैर कमीशन कहीं पर कर्ज नहीं मिल रहा है। कुछ छोटे मोटे नेताओं को भी लेकिन किसी आधिकारी पर कोई असर हीं नहीं हैं। जिस किसी बैंक में जाते हैं सीधे फरमान आता है कि दस फीसदी कमीशन लगेगा। इससे कम पर कोई बात करने को तैयार ही नहीं है। वे थक, हार कर बैठ चुके हैं। उनके परिवार का सहारा मात्र खेती ही जिा पिछले दो तीन साल से सूखा-बाढ़ की चपेट सवे चौपट हो गयी थी। जिससे उनके परिवार की अर्थिक स्थिति दयनीय हो चली है। बच्चों को पढ़ा लिखा भी नहीं पा रहे है। उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि इस माली स्थिति में वे आज की महगाई में अपने खेतों को हरा-भरा कर सके।

Monday 5 April 2010

खबर का असर

शाहनवाज आलम-
उस रात जब हम लोगों ने न्यूज चैनलों पर पाकिस्तानी राष्ट्पति जरदारी के बयान वाली हेडलाइन ‘पाकिस्तान 26/11 की घटनाओं को भविष्य में रोकने की गारंटी नहीं दे सकता क्योंकि वह खुद भी आतंकवाद से अपने सुरक्षा की गारंटी नहीं कर पाया है’ देखी तभी अंदाजा हो गया कि कल के अखबारों में यह खबर कैसे परोसी जाएगी। हमारे अनुमान के मुताबिक लगभग सभी अखबारों ने ‘मुबई जैसे हमलों को दुबारा न होने की गारंटी नहीं दे सकते- जरदारी’ को ही मुख्य शीर्षक बनाया और जरदारी के बयान के पीछे के तर्क को लगभग सभी अखबारों ने डायल्यूट कर दिया।
पत्रकारिता की सैद्धांतिक कसौटी पर परखें तो आधी अधूरी और तोड़ मरोड़ कर लिखे गए इस बयान का असर यह हुआ कि दूसरे दिन जहां अखबारों ने पाकिस्तान को लानत भेजते हुए संपादकीय लिखे और सरकार को किसी भी कीमत पर पाकिस्तान से वार्ता न करने की नसीहत दी। वहीं मुख्य विपक्षी दल ने सरकार को पाकिस्तान के प्रति वोट बैंक के लिए नर्मी दिखाने का आरोप लगाया। परिणाम स्वरुप सरकार ने भी मीडिया और विपक्ष के दबाव में पाकिस्तान से फिलहाल वार्ता न करने का बयान दे दिया। इस तरह मीडिया ने अपनी कलाबाजी से एक ऐसा अनावश्यक मुद्दा खड़ा कर दिया जिस पर दो-तीन दिन तक खूब हो-हल्ला हुआ। यहां यह समझा जा सकता है कि अगर जरदारी के बयान से छेड़-छाड़ न हुयी होती तो दोनों देशों में बात-चीत को लेकर एक सकारात्मक माहौल बन सकता था।
दरअसल पाकिस्तान विरोध हमारे दौर की कारपोरेट मीडिया का एक ऐसा पसंदीदा विषय है जिसमें सतही और उग्र राष्ट्वादी मध्य वर्ग को तृप्त करने वाले सभी मसाले जैसे राष्ट्वाद, बंदूक, संस्कृति और रोमांच अन्तर्निहित हैं। जो किसी भी अखबार या चैनल की प्रसार संख्या और टीआरपी बढ़वाने की गारंटी तो है ही, उस पर कोई तोड़-मरोड़ या गलत बयानी का आरोप भी राष्ट्विरोधी घोषित होने के डर से नहीं लगा सकता। इसलिए हम रोज अखबारों में कम से कम चार-पांच पाकिस्तान केंद्रित खबरें और वो भी अधिकतर आखिरी रंगीन पेज पर जिसमें फिल्मी दुनिया की खबरें होती हैं, देखते हैं या इसी परिघटना से अचानक कुकुरमुत्ते की तरह उपजे रक्षा और कूटनीतिक विशेषज्ञों के लेख पढ़ते हैं। दूसरी तरफ चैनलों का हाल यह है कि प्राइम टाइम में अगर आप रिमोट घुमाएं तो दर्जनों चैनल ‘पाकिस्तान-पाकिस्तान’ खेलते दिख जाएंगे। एक प्रगतिशील लुक वाले एंकर तो एक दिन, रात को दस बजे पाकिस्तान से वार्ता न करने के दस कारण गिना रहे थे। समझा जा सकता है, अगर कार्यक्रम का समय बारह बजे होता तो शायद कारणों की संख्या बारह होती।
पाकिस्तान के प्रति मीडिया के इस रुख के चलते यह असर हुआ है कि जहां एक ओर खास तौर से हिंदी अखबारों और चैनलों में अपने इस पड़ोसी देश की विदेश नीति, अर्थ नीति और सामाजिक बदलाव पर कोई गंभीर विश्लेषण देख-पढ़ नहीं सकते। वहीं इस मीडिया ने एक ऐसे राष्ट्वाद को प्रचारित प्रसारित किया है जिसके केंद्र में पाकिस्तान विरोध है। जो कुल मिलाकर यही पैमाना रखता है कि अगर आप पाकिस्तान से बात-चीत के समर्थक हैं तो आप राष्ट्विरोधी हैं और उससे लड़ने झगड़ने पर उतारु हैं तो राष्ट्भक्त।
पिछले दिनों आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों के नहीं चुने जाने के मुद्दे पर शाहरुख खान के बयान से उपजे बाल ठाकरे बनाम शाहरुख मामले में भी मीडिया के एक हिस्से को पाकिस्तान विरोधी राष्ट्वाद की अपनी इस कसौटी को आजमाते हुए देखा गया। लेकिन थोड़ा दूसरे अंदाज या यूं कहें कि पिछले दरवाजे से। वो यूं कि जब बाल ठाकरे ने शाहरुख की तुलना कसाब से करते हुए उन्हें पाकिस्तान चले जाने का फरमान सुना दिया। तब कुछ अखबारों ने बाल ठाकरे के खोखले राष्ट्वाद को उजागर करने के लिए यह खबर छापी कि ठाकरे मशहूर पाकिस्तानी खिलाड़ी जावेद मियांदाद का अपने ‘मातोश्री’ में मेजबानी ही नहीं कर चुके हैं बल्कि शारजहां कप के फाइनल में चेतन शर्मा की आखिरी गेंद पर छक्का मारकर भारत को हराने वाले इस खिलाड़ी कि तारीफ भी की थी। ऊपर से देखें तो लग सकता है कि यह खबर ठाकरे परिवार के मौजूदा उत्पाती राजनीति को बेनकाब करती हो। लेकिन इसे बारीकी से परखें तो इस खबर की वैचारिक दिशा और शिव सेना की सोच में कोई फर्क नहीं है। क्या इस खबर में यह संदेश नहीं छुपा है कि पाकिस्तान या पाकिस्तानी लोगों से संबंध रखने वाला राष्ट्भक्त नहीं हो सकता। इस छुपे संदेश और शिव सैनिकों द्वारा खुलेआम चिल्लाकर लगाए जाने वाले ऐसे ही नारों में क्या फर्क है? इस विवाद के पटाक्षेप यानी माई नेम इज खान के सफल रिलीज पर मीडिया के इस भाव वाली टिप्पड़ी कि, कलाकार का कोई मजहब नहीं होता, में भी पाकिस्तान विरोधी राष्ट्वाद की गंध महसूस की जा सकती है। अगर शाहरुख मुसलमान नहीं होते तो क्या उनके लिए भी मजहब से ऊपर उठना जरुरी होता? या वे फिल्म स्टार के बजाय एक आम मुसलमान होते जिनके पाकिस्तानियों से संबंध होते या भारत-पाक वार्ता के समर्थक होते तो क्या तब भी मीडिया उन्हें राष्ट्विरोधी न होने का प्रमाण पत्र देती?
लेखक स्वतंत्र पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता हैं

Wednesday 24 March 2010

प्रभाष जोशी जी होते तो क्या करते?


विवेक मिश्र
1-लाल घेरे में दसवी का छात्र सिरपुरम यादेयाह
२-बांयी तरफ घेरे में कैमरामैन जिसने मौत के मंजर को दृश्य में कैद किया
(ये फोटो छात्र के आत्मदाह के पहले की है आप चाहे तो २१ फरवरी के उस दर्दनाक फोटो को किसी भी समाचारपत्र में देख सकते है )

ज़रा रुकिए !
हम आपको दिखाते है की किस तरह
तेलंगाना राज्य को अलग करने के मुद्दे पर एक छात्र ने किया आत्मदाह
और फिर खेल ,ड्रामा .इंटरटेनमेंट ,कला की सारी विधाए हो जाती हैं शुरू
और जब खास ऐसी घटना घटी हो,
न्यूज़ रूम में हो या शाम को पेज सेट करने वाले कथित बुद्धिजीवी दिमाग हो , सब जगह एक अजीब सी हलचल शुरू हो जाती है ,
अपने कला के जौहर को दिखाते हुए ये दिखा देते है की ये
मानवता की जलती तस्वीर हो या दम तोड़ते ,छटपटाते हुए दृश्यों का खेल ये उसे बखूबी सजा सकते है , जिसे दर्शक और पाठक देखकर या तो आह! भरते है या और ध्यान से देखने लगते है और कार्यक्रम के बाद मिली टी आर पी और बढ़ी हुई सर्कुलेशन , न्यूज़ रूम और न्यूज़ पेपरों का मकसद पूरा कर देती है जो इनका वास्तविक लक्ष्य हो गया है
21 फरवरी 2010 को सभी प्रिंट मीडिया के फ्रंट पेज पर
उस्मानिया विश्वविद्यालय में स्कूल के छात्र ने खुद को आग लगाई (जनसत्ता की हेडिंग )
यह हेडिंग जो मैंने ऊपर लिखा है उसी तरह की हेडिंग तमाम समाचार पत्रों में भी थी
एक अबोध छात्र सिरपुरम यादेयाह ने हैदराबाद में तेलंगाना के समर्थन में खुद को आग लगा लिया और पुलिस खड़ी मुंह ताकती रही मीडिया वालो ने एक हाई स्कूल के एक छात्र को जलते हुए तस्वीरों और दृश्यों में कैद किया जिसको जनसत्ता जैसे समाचार पत्र में एक दर्दनाक फोटो के साथ जगह मिली जिसकी आधारशिला एक ऐसे {पत्रकार प्रभाष जोशी}ने रखी जो आज भी प्रेरणादायक है
सवाल यह है की प्रभाष जोशी जी होते तो क्या करते ?
यह एक इंटरव्यू का अंश जो प्रभाष जी ने मीडिया खबर में दिया था जो शायद यह स्पष्ट कर दे की प्रभाष जोशी जी होते तो क्या करते ?
पत्रकारिता पहले मिशन हुआ करती थी अब प्रोफेशन में बदल रही है इस पर आप क्या कहेंगे ?

प्रभाष जोशी जी - पत्रकारिता प्रोफेशन भी हो जाए तो कोई खराबी नहीं क्योंकि जिस जमाने में पत्रकारिता देश की आजादी के लिए काम करने में लगी थी उस समय चूंकि आजादी एक राष्ट्रीय मिशन था ,इसलिए उसका काम करने वाली पत्रकारिता भी राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक स्वंत्रता प्राप्त करने का मिशन बन गयी ,अब उसमे कम से कम राजनैतिक स्वंत्रता प्राप्त कर ली गयी है,
कुछ हद तक सामाजिक स्वतंत्रता भी प्राप्त कर ली गई है
लेकिन पूरी सामाजिक और आर्थिक आज़ादी नहीं मिल पायी है ,अब उसके लिए अगर आप ठीक से पूरी व्यवसयिकता के साथ काम करे तो पत्रकारिता का ही काम आप करेंगे ,लेकिन यह हुनर का काम सुचना का होगा ,लोकमत बनाने का होगा ,मनोरंजन का होगा
यदि मनोरंजन का होगा तो आप मीडिया का काम कर रहे है
"प्रोफेशनल जर्नलिजम पर जो सबसे बड़ा आरोप लगता है की इसमें मानवीय तत्वों का अभाव होता है जैसा की पिछले कुछ समय पहले एक नामी चैनल के पत्रकारों ने १५ august की पूर्व संध्या पर एक अदद न्यूज़ की चाह में एक व्यक्ति को न केवल जलकर आत्महत्या करने में सहायता की बल्कि उसे उकसाया भी ,
आदमी को जलाकर उसकी खबर बनाना कभी पत्रकारिता नहीं हो सकती, यह तो स्केंडल है ,यह माफिया का काम है
ऐसा हो तो आप कुछ भी कर दे जाकर मर्डर कर दे और कहे यह हमने पत्रकारिता के लिए किया है क्योंकि मुझे मर्डर की कहानी लिखनी थी "

यदि एक पत्रकार ने यह न भी किया हो फिर भी किसी जलते हुए आदमी को कोवर कर रहा हो तो उसे क्या करना चाहिए ?
प्रभाष जोशी जी -पहले उस आदमी को बचाना चाहिए

यह तो उसके प्रोफेशन में अवरोध है ?
प्रभाष जोशी जी -नहीं, वह उसको बचाकर ,उसने क्यों मरने की कोशिश की ,इसकी वजह पता लगाकर उसकी खबर मजे में लिख सकता है
लेखक स्वतन्त्र पत्रकार है संपर्क media.vivek@gmail.com

Friday 19 March 2010

केंद्र सरकार पोस्टमार्टम रिपोर्ट पर अपनी स्थिति स्पष्ट करे - पीयूसीएल

नई-पीढी से -
मानवाधिकार संगठन पीपल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज ने बाटला हाऊस मुठभेड़ कांड पर आई पोस्टमार्टम रिपोर्ट के हवाले से कथित मुठभेड़ कांड की न्यायिक जांच की मांग दोहराई। संगठन प्रभारी मसीहुद्दीन संजरी और तारिक शफीक ने संजरपुर में बैठक कर सूचना कार्यकर्ता अफरोज आलम को प्राप्त पोस्टमार्टम रिपोर्ट के हवाले से कहा कि बाटला हाउस में मारे गए मोहम्मद साजिद और आतिफ अमीन के शरीर पर गंभीर चोटों के निशान प्रमाणित करते हैं कि उन्हें गोली मारने से पहले उनको बर्बर तरीके से मारा पीटा गया था। यह रिपोर्ट पुलिस के उस दावे को खोखला साबित करती है कि पुलिस ने आत्मरक्षार्थ गोली चलाई थी।
पीयूसीएल के प्रदेश संगठन मंत्री शाहनवाज आलम और राजीव यादव ने केंद्र सरकार पर सवाल उठाते हुए कहा कि पुलिस द्वारा की गई हत्या की इतनी महत्वपूर्ण रिपोर्ट आखिर क्यों दबा कर रखी गई थी। अगर आजमगढ़ के लिए सोनिया और राहुल इतने चिंतित हैं तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट पर अपनी स्थिति स्पष्ट करें और इस मामले की न्यायिक जांच करवाएं।

Tuesday 16 March 2010

बाबरी विध्वंस, तथ्यों की लिपा-पोती : सीतला प्रसाद सिंह


प्रेस काउन्सिल आँफ़ इंडिया के सदस्य और सहकारी अखबार ’जनमोर्चा ’ के संपादक वरिष्ठ पत्रकार और समाजसेवी शीतला प्रसाद सिंह द्वारा 15 मार्च को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में दिए गए विशेष व्याख्यान के अंश पर आधारित
राम मंदिर आंदोलन और बाबरी विध्वंस के मामले को लेकर दुनियां के सामने अयोध्या के घटनाक्रम की प्रस्तुति, भ्रांतियों और तथ्यों की लिपा-पोती की गयी हैं. मीडिया के लिए बाबरी विध्वंस एक ब्रांडनुमा खबर थीं जिसका व्यापार सुविधानुसार मीडिया जगत ने किया. १९९२ में जब बाबरी का विध्वंस हुआ तो दिल्ली के हमारे मित्र विनोद दुआ का फ़ोन आया कि ; एक प्रकाशक जी चाहते हैं कि आप अयोध्या आंदोलन के अपने अनुभवों को एक किताब की शक्ल दे, यह किताब एक महीने में छपनी है. आपको क्या रायल्टी चाहिए यह आप तय कर सकते हैं. उसी समय प्रकासक महोदय का भी फ़ोन आया, उन्होने भी विनोद दुआ द्वारा पूर्व में कही बातों को दोहराया.
मुझे लगा कि लिखना तो कमाने का बढि़या माध्यम है. क्या इसका उपयोग करना उचित है ? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक जिस विश्वास के साथ अयोध्या मसले पर मुझसे बाते की, उन बातोम को खोल दिया जाए तो सब नंगे हो जाए, क्या ये उचित होगा ? अयोध्या के बारे में मैं भी इस आग्रह की श्रेणी में हूं कि वह तथ्य जो सही है, उन्हे पवित्र मानकर प्रस्तुत करना चाहिए. मुझे वह क्षण याद है जब प्रधानमंत्री नरसिंह राव के सचिव खानेकर का फ़ोन आया था कि वो बात करना चाहते है तो मैने इनकार कर दिया था. यह इसलिए था क्योंकि उनकी दिशा विध्वंस मसले पर संधिग्ध थी. राव साहब का निरंतर फ़ोन आ रहा था, वह फ़ोन १२.३० पर आया था जिसमें पुछा गया था कि अयोध्या में केद्रीय सेना पहुंची की नहीं. मैंने बताया नहीं वापस चली गयीं.
मैं बराबर वहां के ताजा हालात पर नजर रखे हुए था. खबर हुई कि कल्याण सिंह त्यागपत्र देने जा रहे हैं. मैने तब जितेन्द्र प्रसाद से बात की. उन्होने कहा कि कल्याण सिंह बहुत बदमाशी की हैं हम उन्हें बर्खास्त करेंगे. बर्खास्त करने का मतलब मै समझता था. इसकी प्रक्रिया में काफ़ी समय लगता है, तकरिबन ३.३० घंण्टे, इतना समय पर्याप्त था छः दिसंबर के लिए.
इस बार देश की नंबर दो पार्टी भाजपा के अध्यक्ष ने पार्टी लाईन से हट कर एक बयान दिया जो काफ़ी महत्त्वपूर्ण हैं. उन्होने कहा कि अयोध्या में मंस्जिद हम बनवाएंगे बस आप मंदिर में अड़ंगा न डाले. इस बयान पर हरिद्वार के संतों और जन्म भूमि न्यास के नेताओं ने कटु आलोचना की, सिद्धांत को सिरे से खारिज कर दिया. दरअसल नितिन गडकरी के इस बयान के कई कारण हैं और यह एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हैं. समय की मजबूरी क्या-क्या हो सकती हैं ? कुछ तथ्य हैं.दिसंबर में जब मंस्जिद टूटी तो तीन जनवरी १९९३ को भारत सरकार एक आर्डिनेंस लाती है जो अप्रैल में अधिनियम में परिवर्तित हो जाती है. अधिनियम में कहा गया है कि अयोध्या के सांप्रदायिक विवाद को हल करने के लिए, विवादित स्थल के आस-पास की १७७ एकड़ जमीन अधिग्रहित की जाएगी जिसका उद्देश्य वहां, मंदिर, मंस्जिद, पुस्तकालय, संग्रहालय और पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की स्थापना की जाएगी. अदालतों द्वारा हिंदुओं को जो विशेष अधिकार दिए गए थे, वह समाप्त कर दिए गए.चंकि यह स्वामित्त्व का मामला है. जब तक इसका निर्धारण नहीं हो जाता तब तक इसे हल नहीं किया जा सकता.
स्वामित्त्व संबंधी विवाद का मुख्य तत्त्व यह है कि सेन्ट्रल सुन्नी वक्फ़ बोर्ड ने, १९६१ में एक मुकदमा दर्ज किया था कि हम इसके स्वामी हैं . हिंदुओं के मामले में स्वामित्त्व का मामला कहीं नहीं है. १९८५ में निर्मोही अखाड़ा ने इस पर अदालत में मामला बनाया. मुकदमें का फ़ैसला दो से तीन महीने में संभाव्य है और स्थिति किसी साधु और संस्था पर निर्भर नहीं होगा.
प्रस्तुति- अनुज शुक्ला
लेखक इस ब्लाँग के माडरेटर है, उनसे anuj4media@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

Sunday 14 March 2010

सरकार बुद्धिजीवियों से डरती है

शाहनवाज आलम -
पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने एक आश्चर्यजनक निर्देश सुनाते हुए हैदराबाद के उसमानिया विश्वविद्यालय में तैनात सेना को हटाने से इंकार कर दिया। सर्वोच्च न्यायलय का राज्य सरकार की तरह ही मानना है कि विश्वविद्यालय मंे माओवादियों ने छात्रों के वेश में एडमिशन ले लिया है। इसलिए उनकी गतिविधियों पर नजर रखने के लिए वहां सेना की तैनाती जरुरी है। जबकि दूसरी ओर विश्वविद्यालय के कुलपति का साफ कहना है कि विश्वविद्यालय में कोइ माओवादी नहीं है। और ना ही वहां सेना की जरु़रत है। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्देश आश्चर्यजनक इसलिए है कि, अव्वल तो कानूनी तौर पर ‘माओवादी कौन है या माओवादी साहित्य क्या है’ इसकी कोइ व्याख्या नहीं है। इसलिए ऐसे किसी भी फैसले से पहले कानूनन यह जरुरी था कि माओवादी की व्याख्या होती। बिना इसके अगर कोर्ट ऐसे निर्देश देती है तो इसका मतलब यही है कि कोर्ट माओवादी की पुलिसिया व्याख्या को ही कानूनी जामा पहना रही है। दूसरे, कि अगर कथित माओवादी विचार वाले छात्रों ने वहां ऐडमिशन लिया भी है तो प्रवेश परीक्षा पास करके ही लिया होगा। ऐसे में अगर उनपर नजर रखने के नाम पर वहां सेना लगाइ जाती है तो ये उन छात्रों के मौलिक अधिकार की ‘किसी के साथ उसके विचार के कारण भेद भाव नहीं किया जा सकता’ का भी उल्लंघन है। इस तरह सर्वाेच्च न्यायालय के निर्देश पर संवैधानिक नजरिए से भी सवाल उठते हैं। कोर्ट के इस निर्देश को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमंत्री पी चिदम्बरम के इस बयान से जोड़कर ही समझना होगा जिसमें वे लगातार बुद्धिजीवियों से माओवाद का समर्थन करने से बाज आने की चेतावनी देते रहे हैं। दरअसल भारतीय राज्य और शासक वर्ग माओवाद के खिलाफ भले ही लॉ एण्ड ऑर्डर बहाल करने के नाम पर हमलावर हो लेकिन उसकी आड़ में तेजी से अपनी वैधता खोता जा रहा राज्य अपने अस्तित्व को वैध ठहराने का वैचारिक जंग लड रहा है। और इस लड़ाई में वो बुद्धिजीवी समाज को अपना सबसे बडा दुश्मन समझता है। इसीलिए वो बौद्धिक विचार विमर्शों के विश्वविद्यालय जैसे अड्डों को छावनी में तब्दील करने का लगातार बहाना ढूंढता रहता है। दरअसल, नक्सलवाद और माओवाद की आड़ में विश्वविद्यालयों की संप्रभुता पर हमला नया नहीं है। 60 और 70 के दशक में भी जब यह आंदोलन अपने उरूज पर था तब भी पश्चिम बंगाल के विश्वविद्यायालयों के हजारों छात्रों, शिक्षकों और बुद्धिजीवियों का दमन तत्कालीन सरकार ने इसी तर्क के आड़ में किया था कि ये लोग राज्य व्यवस्था को वैचारिक चुनैती दे रहे हैं। दरअसल हमारे शासक वर्ग का जनता पर शासन करने का नैतिक और वैचारिक आधार इतना कमजोर है कि वह हमेशा उसके दरक जाने के खतरे से डरा रहता है। खास तौर से उन हलकों से उठ रहे सवालों से जिसको वो खुद उठा कर सत्ता तक पहुंचा होता है। मसलन, कांग्रेस अगर अपना ‘हाथ गरीबों के साथ’ होने का भरोसा दे कर सत्ता में पहुंची है तो उसे सबसे ज्यादा डर भी गरीब तबके की तरफ से ही उठने वाले सवालों से लगना स्वाभाविक है। इसलिए वो ऐसे किसी भी आवाज को माओवादी बताकर दमन करने पर उतारु है। कांग्रेस इस तबके से उठ रहे सवालों से तो इतना डरी हुयी है कि बार बार मानवीय चेहरे के साथ विकास की बात दोहराने वाली सरकार ने इस डर से निजात के लिए अपने कथित मानवीय नकाब तक को उतार कर खूंखार जंगली जानवरों का चेहरा ओढ लिया है। ऑपरेशन ग्रे हाउंड;भूरा शिकारी कुत्ताद्ध ऑपरेशन कोबरा, स्कॉर्पियन ;बिच्छूद्ध ग्रीन हन्ट हाउंड ;हरा शिकारद्ध जैसे अभियानों के नामकरण से इसे समझा जा सकता है। ठीक इसी तरह भाजपा भी जो मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिक उन्माद पर सवार हो कर सत्ता में पहुंची थी, ने उन तमाम विचारों को जो उसकी संर्कीणता को चुनौती देती थीं, आतंकवादी और राष्ट्विरोधी घोषित कर दमन करने पर उतारु थी। जिसके तहत चुन-चुन कर उन बुद्धिजीवियों, कलाकारों और उनके संस्थानों पर हमले हुए। मनमोहन सिंह चिदम्बरम की तरह ही तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी ने भी इन बुद्धिजीवीयों से आतंकवादी और राष्ट्विरोधी तत्वों का विरोध कर अपनी राष्ट्भक्ति साबित करने का फरमान जारी कर दिया था। इसलिए अगर सरकारें बुद्धिजीवियों या उनके संस्थानों पर हमलावर होती हैं तो मामला सिर्फ अराजकता की रोकथाम का नहीं बल्कि अपनी वैधता पर उठ रहे सवालों के दमन का है। दरअसल कोइ भी सत्ता चाहे जैसी हो उसके बने रहने के लिए तर्क और विचार सबसे अहम होता है। इसलिए हम देखते हैं कि जहां बुद्धिजीवीयांे की एक जमात का दमन किया जा रहा है तो ठीक उसके साथ-साथ दूसरे तरह के बुद्धिजीवी सरकारी गोबर-माटी से पनपाए भी जा रहे हैं। अखबारोें के सम्पादकीय पन्नों से गम्भीर विश्लेषकों का दुर्लभ होते जाना और उनकी जगह कथित रक्षा विशेषज्ञों का कुकुरमुत्तों की तरह उग आना इसी का नजीर है या इसी तरह विश्वविद्यालयों में अराजकता के नाम पर छात्रसंघों की राजनीति को प्रतिबंधित करना और उसी के समानांतर कागें्रस के राजकुमार का विश्वविद्यालयों के परिसरों में व्याख्यान आयोजित करना। या पूर्ववर्ती भाजपा शासन में बीएचयू के भंग छात्रसंघ भवन में दस दिवसीय आसाराम बापू का रामकथा आयोजित कराना, अपनी-अपनी सत्ता को वैचारिक वैधता देने की ही कोशिशें हैं। बहरहाल, विचारों पर इस दमन का सबसे दुखद पहलू यह है कि ऐसे मुद्दों पर जहां पहले बुद्धिजीवीयों के साथ सत्ता विरोधी राजनीतिक दल और नेता भी खडे़ होते थे वहीं पिछले दो दशकों से पक्ष-विपक्ष में नीतिगत फर्क के लुप्त होते जाने के चलते राज दमन के सामने बुद्धिजीवी अकेले पड़ गए हैं। क्या यह किसी भी स्वस्थ और गतिशील लोकतन्त्र के लिए खतरनाक संकेत नहीं है कि पिछले दो दशकों से बुद्धिजीवीयों के अलावा किसी भी राजनैतिक दल या उसके नेता को अपने सत्ता विरोधी विचारों या वैकल्पिक नीतियों के चलते राज दमन नहीं झेलना पडा। और वह भी तब जब इसी दौरान दो लाख किसानों ने आत्महत्याएं की हों और सत्ता पक्ष के अर्थशास्त्रियों द्वारा ही यह बताया जा रहा हो कि 84 प्रतिशत लोग 20 रुपए रोजाना से भी कम पर जी रहें हैं। जबकि एक समय था जब जनविरोधी नीतियों और सरकारी दमन के खिलाफ बुद्धिजीवीयों और विपक्षी नेताओं से देश भर की जेलें पटी पड़ी रहती थीं। दरअसल पक्ष-विपक्ष में नीतीगत भेद मिटा कर राजनीतिक लोकतंत्र को अपना चाकर बनाना कॉर्पाेरेट पूंजीवाद का पहला लक्ष्य था। जिसमें दो दशक से भी कम समय में वह सफल हो गया। अब दूसरे चरण में उसकी जरुरत इस स्थिति को वैधता दिलाने की है। जिसके लिए उसका विचारों के लोकतंत्र पर हमलावर होना जरुरी है। अगर मनमोहन सिंह और पी चिदम्बरम बुद्धिजीवीयों को बार-बार बाज आने की चेतावनी देते हैं तो वो यूॅं ही नहीं है। वे सचमुच ऐसा कर के दिखाएंगे । क्योंकि उनकी जवाबदेही जनता के बजाए वॉलर्माट, वेदान्ता और मॉन्सैन्टो के प्रति है, और अब तो न्यायपालिका का तराजू भी तेजी से उनके पक्ष में झुकता जा रहा है।
शाहनवाज आलम स्वतंत्र पत्रकार ह

Friday 12 March 2010

अरूण कमल की काव्य भाषा और समांतरता

शशिभूषण सिंह-
काव्यभाषा को विशिष्टत्व प्रदान करने में जिन कारकों का महत्वपूर्ण योगदान होता है, समांतरता उन्हीं में से एक है। समांतरता शैलीविज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण संघटक है। जब दो या दो से अधिक छवियाँ , शब्द ,रूप , वाक्य और प्रोक्ति कविता में पुनरूक्त होते हैं, तब समांतरताएँ होती हैं। किंतु ध्यातव्य है कि सभी पुनरूक्तियाँ , समांतरताएँ नहीं बनती , बल्कि जब ये सार्थक और साभिप्राय होती हैं तभी ये समांतरता बनती हैं अर्थातजब पुनरूक्तियाँ सोद्देश्य और सनियम की जाती हैं, तभी उन पुनरूक्तियों को समांतरता में परिगणित किया जा सकता है।
समकालीन हिंदी काव्यभाषा की गरमाहट उसके जुझारूपन में दिखाई देती है। आम आदमी की पीड़ा, उसके संघर्ष, लोककथा, लोकगीत और साधारणजनों के मुहावरों और ठहाकों ने जितना धार समकालीन काव्यभाषा को दिया है, उतना ही समांतरता ने भी। निराला की कविता ‘जूही की कली’ में समांतरता की उपस्थिति द्रष्टव्य है-

“आई याद बिछुड़न से मिलन की वह बात ,
आई याद चांदनी से धुली हुई आधी रात
आई याद कांता की कंपित कमनीय गात”

उपर्युक्त पंक्तियों में ‘ आई याद ’ क्रियापद की साभिप्राय आवृति पाठक या श्रोता के मन पर विशेष प्रभाव छोड़ती है। निराला के लगभग आधी सदी बाद अरूण कमल की पंक्तियां हैं-

“अभी भी जिंदगी ढूंढती है धुरी
अभी भी जिंदगी ढूंढती है मुक्ति
कहाँ अवकाश कहाँ समाप्ति”
(मुक्ति कविता से)
उपर्युक्त पंक्तियों को पढ़कर सहज ही समझा जा सकता है कि कविता में जो बेचैनी दिखाई देती है ,‘अभी’ की आवृति उसे थोड़ा और सघन बना देती है। समांतरता का ऐसा चमत्कारी दिग्दर्शन अरूण कमल की कविताओं में आद्योपांत दिखाई देता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अरूण कमल की कविता का नाभि केन्द्र है- समांतरता। यहाँ समांतरता के दोनों रूपों (समतामूलक और विरोधी) का दर्शन होता है।
शब्द और रूप स्तर पर समांतरता प्रायः सभी समकालीन कवियो में देखी जा सकती है। किंतु वाक्य और प्रोक्ति स्तर की समांतरता का चमत्कार जो अरूण कमल की काव्यभाषा में है, वह अन्य समकालीन कवियों की काव्यभाषा में दुर्लभ है। वाक्य - स्तरीय समांतरता का एक उदाहरण उनकी ‘होटल’ कविता में दिखाई देती है -

ऐसी ही थाली,
ऐसी ही कटोरी,
ऐसा ही गिलास,
ऐसी ही रोटी,
ऐसा ही पानी
यहाँ वाक्य-संरचना की आवृति में समांतरता है। वाक्य का आवर्तित संरचनात्मक ढांचा द्रष्टव्य है-
सार्वनामिक विशेषण + बलात्मक अव्यय + संज्ञा
ऐसी ही थाली
ऐसी ही कटोरी
ऐसा ही गिलास
ऐसी ही रोटी
इसी प्रकार अरूण कमल की कविताओं में प्रोक्ति - स्तरीय समांतरता भी प्रचुर दिखाई देती है -

“बदबू से फटते जाते इस
टोले के अंदर
खुशबू रचते हाथ
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दुनिया की सारी गंदगी के बीच
दुनिया की सारी खुशबू
रचते रहते हाथ”
(‘खुशबू’ कविता से)

अरूण कमल की कविताओं में(समतामूलक) अर्थ-स्तरीय समांतरता अपेक्षाकृत कम दिखाई पड़ती है किंतु वे कम आकर्षक नहीं हैं -
“सही साइत पर बोला गया शब्द
सही वक्त पर कंधे पर रखा गया हाथ
सही समय पर किसी मोड़ पर इंतजार”
(‘राख’ कविता से)



यहाँ ‘साइत’ और ‘वक्त’ , ‘समय’ के ही दो पर्याय हैं। बड़ी ही कुशलता से कवि ने यहाँ शब्दों की जगह अर्थ की बारंबारता को अध्यारोपित किया है तथा लयात्मकता की क्षति से काव्यभाषा का बचाव भी।
किंतु समतामूलक समांतरता से कहीं ज्यादा आकर्षण (अरूण कमल के यहाँ) विरोधी समांतरता में दिखाई पड़ता है, बल्कि अरूण कमल तो विरोधी समांतरता के कवि ही माने जाते हैं- खासकर प्रोक्ति - स्तरीय विरोधी समांतरता के -


“कितने ही घरों के पुल टूटे
इस पुल को बनाते हुए”
(‘महात्मा गांधी सेतु और मजदूर’ कविता से)
“माताएँ मरे बच्चों को जन्म दे रही हैं
और हिजड़े चैराहों पर थपड़ी बजाते
सोहर गा रहे हैं”
(‘उल्टा जमाना’ कविता से)
विरोधी स्थितियों की भयावहता को चित्रित करने में अरूण कमल का जोड़ नहीं । शैली वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह चित्रण काव्यभाषा में विरोधी समांतरता से ही संभव है। तभी तो अनुप्रयुक्त भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का शैली -विज्ञान समांतरता को काव्य- भाषा के वैशिष्ट्य के उत्कर्षकों में गिनता है।
बात जहाँ तक व्यंजना में कहनी हो वहाँ अरूण कमल की कविता में प्रोक्ति - स्तरीय विरोधी समांतरता दिखाई देती है, किंतु जहाँ बात अविधा में कहनी हो वहाँ इनकी कविता प्रायः अर्थ-स्तरीय विरोधी समांतरता को बुनती हैं। जी.डब्ल्यू एलन इसे ही ^Antithetical Parallism’ कहते हैं। अरूण कमल की कविता में समांतरता का ये दृष्टांत प्रचुर मात्रा में विद्यमान है ”“-
“इस नए बसते इलाके में
जहाँ रोज बन रहें हैं नए-नए मकान
मैं अक्सर रास्ता भूल जाता हूँ
धोखा दे जाते हैं पुराने निशाने”
(‘नए इलाके में’ कविता से)
“दुनिया में इतना दुःख है इतना ज्वर
सुख के लिए चाहिए बस दो रोटी और एक घर
दिन इतना छोटा रातें इतनी लम्बी हिंसक पशुओं भरी”
(‘आत्मकथ्य’ कविता से)

स्पष्ट है कि समांतरता का अनुप्रयोग न केवल काव्यभाषा को सुशोभित करता है, बल्कि उसकी अपील को भी द्विगुणित कर देता है। काव्यभाषा के इस आधुनिक संप्रत्यय की मदद से काव्य-वस्तु का पुनरीक्षण किंचित अभिनव तरीके से किया जा सकता है
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) के साहित्य विभाग में शोधरत हैं।)

Thursday 11 March 2010

एक और सत्याग्रह, काले अंग्रजों के खिलाफ


राकेश कुमार


पहला सत्याग्रह गांधी जी देश की आज़ादी के लिए किये थे तो दूसरा सत्याग्रह गंगा की आज़ादी के लिए जल बिरादरी करने जा रही है। यह सत्याग्रह जल पुरुष राजेन्द्र सिंह के अगुवाई में 12 मार्च से हरिद्वार महाकुम्भ से शुरु हो रहा है। दूसरा सत्याग्रह सफल होगा या नहीं यह तो समय ही बतायेगा। चूंकि गांधी जी उपनिवेशी शासक (गोरे अंग्रेजांे) के खिलाफ किया था जिसमें पूरे देश की जनता शामिल थी। और जल बिरादरी को अपने ही सरकार (काले अंग्रेजो) के खिलाफ करना पड़ रहा है जिसमें महज़ कुछ ही लोग शामिल हैं। गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए संत-सरकार-एजीओ तीनों एक मंच पर एकजुट हो गये हैं। सरकार और पंचायत दोनों इसकी सफलता के लिए आम जनता की सषक्त सहभागिता को आवष्यक बताया। लेकिन आम जनता को इस मुहिम में शामिल करने तथा गंगा का नैसर्गिक स्वरुप बहाल करने को लेकर दोनों के बीच मतभेद रहा। फिलहाल गंगा-यमुना पंचायत ने दिल्ली में तीन दिन के गहन विचार-विमर्श के बाद सरकार को 11 सूत्री सुझाव पत्र सौंपा। सरकार पंचायत के सुझाओं को महत्व दे या न दे लेकिन पंचायत गंगा की आजा़दी का वीणा उठा लिया है। बांधो से जकड़ी जा रही गंगा की आज़ादी के लिए हजारों कार्यकर्ता 12 मार्च को हरिद्वार पहुंचकर, इस सत्याग्रह का आगाज़ करेंगे। तो वहीं जल बिरादरी के कार्यकर्ता देश भर की नदियों में मिलने वाले गंदे पानी के मार्ग को अवरोधित कर इस सत्याग्रह को देशव्यापी नदी सत्याग्रह का रुप देने का प्रयास करेंगे।पंचायत, गंगा की अविरलता में बांधो को अवरोध मानते हुए केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश के समक्ष जब उसके डीकमीशान की बात रखी तो मंत्री महोदय अपने को दूध सा साबित करने की मुहिम में जुट गये। मंत्री साहब के बयान ‘मैं तो प्रधानमंत्री जी को पहले से ही से बोल चुका हूं कि लोहरी नागपाला डैम से यदि लाखों-करोड़ो लोगों की आस्था पर आधात पहुंचता है तो हमें हजार करोड़ रू। के बारे में विशेष नहीं सोचना चाहिए और इस योजना को वापस ले लेना चाहिए। लेकिन वहीं पर जनाब यह भी कहते हैं कि आस्था निर्णय का आधार नहीं हो सकता। इसके साथ-साथ गंगा में मिनिमम फ्लो (काम चलाऊं पानी) कायम रखने की बात कही है। हालांकि पंचायत मिनिमम फ्लो की बात पर आपत्ति दर्ज की लेकिन उनकी विरोधाभाषी बातों में पंचायत के गंडमान्य बहते नज़र आये।मंत्री महोदय ने यह कबूल किया कि गंगा नदी को जिस तरह बांधो से सजाया गया है, उससे हमारी संस्कृति ‘टनल’ की संस्कृति हो गयी है। लोहारी नागपाला डैम के डीकमीषन के सवाल पर मंत्री जी सरकार की तरफ से वकालत करते हुए कहा कि लोहारी नागपाला परियोजना पर करीब एक हज़ार करोड़ रूपया खर्च हो गया है। इसलिए सरकार उस परियोजना को वापस नहीं ले सकती। उनकी बातों पर प्रष्न चिन्ह लगाते हुए दूसरे पक्ष के वकील (पंचाय के अध्यक्ष) स्वामी अविमुक्तेष्वरानन्द ने सरकार के इस दर्द पर मरहम लगाते हुए कहा कि पंचायत सरकार को हज़ारो करोड़ रूपया देने को तैयार है। लेकिन इससे पहले सरकार लिखित रूप से इस बात को सार्वजनिक करे कि गंगा नदी पर किसी प्रकार की परियोजना या डैम नहीं बनायेगी।नदियों को निर्मल बनाने के लिए सरकार द्वारा लगाये जाने वाले भारी-भरकम जल शोधन प्लांट पर पंचायत ने सरकार को आगाह करते हुए कहा कि गंगा मां की सफाई के लिए सरकार कटोरा लेकर विदेषों से भीख न मांगे। रिवर में सिवर मिलाना बंद कर दे, वह अपने आप निर्मल हो जायेगी। मंत्रालय के मुताबिक, ‘गंगा सफाई मिशन’ में लगभग 15 हज़ार करोड़ रूपये का खर्च होने का आंकलन किया गया है। जिसको पूरा करने के लिए सरकार तथाकथित मिषन 2020 निष्चित किया है। जयराम रमेश की उन बातों का पटाक्षेप करते हुए पंचात के अध्यक्ष नदियों की बर्बादी का ठीकरा सरकार के सिर फोड़ते हुए कहा कि हमारे देश की नदियां निर्मल और अविरल हैं लेकिन पहले सरकार उसे अवरोधित व गंदा करती है, फिर उसकी सफाई के नाम पर लम्बा बजट पास करती है... बावजूद नदियां दिन ब दिन मरती जा रही हैं।नदियों की अविरलता को वापस लाने को लेकर पंचायत भी स्पष्ट नहीं हो सकी। एक तरफ जहां इस अभियान की सफलता के लिए जनता की सहभागिता को आवष्यक मानती है तो वहीं दूसरी तरफ गंगा-यमुना से किसानों को पानी न दिये जाने की वकालत भी करती है। पंचायत के इस निर्णय पर न केवल पंचायत के कुछ लोगों ने असहमति जतायी बल्कि मंत्री साहब भी दो शब्दों में कि ‘जल का बटवारा राज्यों का विषय है इसमें केन्द्र सरकार कुछ नहीं कर सकती, कहकर चलते बने। ऐसे में पंचायत और सरकार द्वारा इस मुद्दे पर जन आंदोलन खड़ा करने का सपना भी शायद अधूरा रह जायेगा। यहां पर सवाल यह उठता है कि आखिर सरकार और पंचायत (एनजीओ) दोनों गंगा को निर्मल और अविरल बनाने के लिये धन-बल के साथ तैयार है लेकिन जब दोनो इसके रास्ते को लेकर इतने भ्रमित हैं कि तीन दिन के राष्ट्रीय विचार-विमर्श के बाद भी स्पष्ट रास्ते नहीं ढूढ़ सकी। यहां पर यह भी स्पष्ट कर दें कि गंगा पर उत्तरकाशी से लेकर बिहार तक एक से बढ़कर एक बांध बने हुए हैं। तो समझ सकते हैं कि गंगा की अविरलता वापस कैसे आयेगी। इस पर गम्भीरता से सोचना पडे़गा। यहां पर यह भी प्रश्न उठता है कि क्या सरकार इस बार भी भारी-भरकम बजट पास कर जनता की आस्था पर मरहम लगाकर लीपा-पोती की ताक मे तो नहीं है। क्या कांग्रेस सरकार भाजपा के एक और चुनावी एजेंडे को हाइजैक करने की फिराख्त में है।पन्चायत ने गंगा की धार्मिक और सांस्कृतिक महत्ता को रेखांकित करते हुए गंगा की अधिसूचना में ‘धार्मिक और आध्यात्मिक’ शब्द जोड़ने की बात सरकार के समक्ष रखी है। गंगा को पर्यावरणीय प्रवाह देने, प्रदूषण मुक्त करने, खनन वर्जित करने, रीवर और सीवर को अलग करने, ‘गंगा घाटी विकास प्राधिकरण’ के अध्यक्ष को मुख्य सेवक और अन्य सदस्यों को सेवक का नाम दिये जाने तथा गंगा के उद्गम से लेकर 135 किमी तक उसकी नैसर्गिक धारा प्रवाह में बदलाव न करने जैसे कहीं अहम सुझाव रखा है। जबकि सकरकार पहले ही लगभग 50 किमी की दूरी पर लोहारी नागपाला डैम करीब आधा तैयार हो चुका है, जिसे सरकार किसी भी हालत में निरस्त करने को तैयार नहीं है। यहां पर प्रश्न उठता है कि गंगोत्री से निकली गंगा की निर्मल धारा को गंगा सागर तक पहुंचाने का कथित सपना पंचायत और सरकार आखिर कैसे पूरा करेगी। इस पर गंम्भीरता से विचार करने की जरुरत है।यह बता देना मौजूं होगा कि गंगा-यमुना की अविरलता और निर्मलता के लिए 1985 में राजीव गांधी सरकार ने काम शुरु किया था। जिसमें करीब एक हज़ार करोड़ रूपया गंगा में फूलो की तरह अर्पित कर दिया गया लेकिन गंगा-यमुना दिन ब दिन प्रदूषित होती रही। आज आलम यह है कि यमुना (दिल्ली में) के किनारे जानवर व पक्षी पानी के लिए इधर-उधर भटकते हैं। यह बात अलग है उस सिवर रूपी यमुना में सुबह-शाम कबाड़ी जीविका के लिए गस्त लगाते हैं। लेकिन मंत्री साहब यह कहने से नहीं थकते कि यदि गंगा-यमुना एक्शन प्लान एक नहीं लाया गया होता तो आज इन नदियों की हालात क्या होती जिसे हम ब्यान नहीं कर सकते। जनाब इस असफलता का कारण सिरे से राज्य सरकारों और औद्योगिक क्षेत्रों के सिर मढ़कर अपने को तार-तार करने की कोशिश की। कांग्रेस सरकार अब एक बार फिर 15 हज़ार करोड़ रूपया खर्च करने का प्रोपोगेंडा तैयार करने में जी जान से लग गई है। जिसका भी परिणाम आने वाले समय में सामने होगा।


राकेश कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं और जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) से जुड़े हैं.संपर्क - rakeshvdrth@gmail.com

Monday 8 March 2010

स्त्री आवाज के सौ साल और वर्तमान स्थिति


अनुज-
राहुल गांधी की कृपा से कलावती लखपति बन चुकी है साथ ही महिला आंदोलन की तमाम महिला प्रवक्ताओं ने सूती साड़ी पर रीबाँक की सैण्डल पहनना शुरू कर दिया है. आज के महिला आंदोलन की दिशा पर सवाल किए जाने चाहिए जो आंदोलन के नाम पर अप्रासंगिक लगता है. स्त्री स्वतंत्रता पर एक नए सिरे से बहस की आवश्यकता है, स्त्री आंदोलन को लेकर एक भ्रम की स्थिति बरकरार है.. आज से सौ साल पहले मत के अधिकार को लेकर, सुरू हुआ आंदोलन का वर्तमान प्रतिसाद, स्त्री-उन्मुक्तता ही महिला आंदोलन के मुख्य घटक के रूप में उभरा है. सिनेमाई पर्दे पर नाचती गाती स्त्रीयां या महनगरों के आलिशान पबों मे सिगरेट के धुएं को उड़ाती स्त्रियों को स्त्री-संघर्ष के चेहरे के रूप में प्रचारित किया तो क्या यह उचित है? तमाम सेमिनारों की बहसों (स्त्री से जुड़े हुए) में अंततोगत्त्वा मुख्य मुद्दा, स्त्री की प्रसव-पीड़ा बन जाता है. कहीं भी ’महराजिन बुवा’ या कुल्मा देवी या फ़िर प्रग्या देवी की चर्चा नहीं की जाती है. परंपरा ग्रस्त दायरे में इनके द्वारा जो संघर्ष किया गया है और किया भी जा रहा है वह स्त्रीत्व की स्वावलंबी सत्ता के लिए आवश्यक है. निरक्षर महराजिन बुआ और उच्च शिक्षित प्रग्या देवी ने पितृ सत्ता वादी हिंदु व्यवस्था, को उसके गढ़ों( इलाहाबाद एवं बनारस) में चुनौती दी.
स्त्री-संगठनों को अपनी उर्जा को जंतर-मंतर पर जाया करने की बजाए, गांवों और कस्बों और छोटे शहरों की ओर रूख करना चाहिए जहां इसकी ज्यादा जरूरत है. इन्हे उन ग्रामीण महिला मजदूरों के हकों-हुकूक की भी बात करना चाहिए जिन्हे आज भी मजदूरी का भुगतान लैंगिक आधार पर किया जाता है.

Monday 15 February 2010

मुंबई में मैच नहीं


अनुज शुक्ल
रोज नए-नए विवाद खड़ा करना ठाकरे परिवार की आदतों में शुमार हो चुकी है. राहुल गांधी और शाहरूख खान संबंधित मामले पर इन मराठी माणुसों की खिचाई पूरे देश में चर्चा का विषय है. विश्लेषकों ने तो यहां तक कह दिया कि ठाकरे परिवार का जलवा महाराष्ट्र में तेजी से घट रहा है, इसी खीझ बस आए दिन ठाकरे परिवार कुछ न कुछ नया करता रहता है. ताजा प्रकरण क्रिकेट को लेकर है. भारत में क्रिकेटीय राष्ट्रवाद के जरिए तमाम लोग अपनी राजनीतिक रोटियों को सेकना चाहते है. अर्शा पहले इसका इस्तेमाल शिवसेना कर चुकी है, जब उसने पाकिस्तान से मैच का विरोध करते हुए बेब्रोन की पिच को रातों-रात खोद दिया था. हाशिए पर जा रही पार्टी के लिए कोई मुद्दा बचा नही. राज ठाकरे ने मराठी-माणुस का मुद्दा पहले हथिया कर, हालिया विधान सभा चुनाव में शिव सेना को हार के गर्त में ढकेला. सबसे बड़ी बात जो उभर कर सामने आ रही है वह यह की ठाकरे परिवार के लिए मुख्य मुद्दा क्या है? लोग पशो-पेश में है कि कभी ये लोग मराठी मुद्दे को तूल देकर मरने मारने पर उतर आते है तो कभी इनके लिए हिंदुत्त्व मुद्दा बन जाता है. अबकी ठाकरे परिवार राष्ट्रवादी भावनाओं से ओत-प्रोत है.
आस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम का भारत दौरा संभावित है. आस्ट्रेलिया में पिछ्ले दिनों भारतीयों पर लगातार हमले हुए. बाल ठाकरे का मानना है कि भारत को आस्ट्रेलिया के साथ क्रिकेट नहीं खेलना चाहिए. वे कम से कम मुंबई में मैच नहीं होने देने का संकल्प कर चुके हैं. इस आशय से संबंधित एक सी.डी. कैसेट बाल ठाकरे के हवाले से जारी किया गया. सबसे बड़ी बात तो यह है कि अभी तक जो ठाकरे परिवार और उनका संगठन उत्तर भारतीयों के साथ मुंबई में करता आया है वही आस्ट्रेलियाईयों ने भी वहा भारतीय छात्रों के साथ किया. इसमे तो उन्हे आस्ट्रेलियाइयों को शाबासी देनी चाहिए. वहां मार खाने वाले और मरने वाले दोनों भारतीय(अधिकांशतया महाराष्ट्र के बाहर के छात्र) ही थे. किस कसौटी पर मुंबई में किया गया कृत्य जायज है? जबकी मेलबाँर्न में किए गए उसी कृत्य को नाजायज ठहरा रहे हैं. दरअसल मुद्दों के अभाव में और जनाधार का तेजी से गिरना ठाकरे परिवार की चिंता का विषय है. हाल-फ़िलहाल उनके बड़बोले-पन ने उनकी काफ़ी हुज्ज्त करवाई है. उनकी राजनैतिक साख को बट्टा लगा है अबकी इसे क्रिकेटीय राष्ट्रवाद के जरिए सुधारने का प्रयत्न कर रहे है. ठाकरे जी अबकी कुछ मिलने वाला नही है, अभी समय है राजनीतिक जमीन बनाने का . पर यह उल-जुलूल की हरकतों से नहीं बल्कि ठोस सामाजिक मुद्दों से ही संभव है.

प्रेम का विज्ञान


अमितेश्वर-
प्यार मानवीय शारीरिक संरचना की अंदरूनी कहानी है, निश्चित ही इसका संबंध दिल से नही है. प्रेम में डूबे लगभग सभी युवक-युवतियां यह कहते पाए जाते है कि वे एक दूसरे को दिल दे चुके हैं. प्यार की पूरी प्रक्रिया मे दिल का कोई लेना-देना नहीं है. दिल की वेदना या रोमांस कवियों की कल्पना का परिणाम है.
science के अनुसार दिल का काम शरीर की धमनियों में दौड़ते खून को शुद्ध करना है और इसका प्यार की भावना पर कोई नियंत्रण नही होता. प्रेम का scientific आधार है इसे साइकाँलजी आफ़ लव कह सकते है. मस्तिष्क में एक जगह का नाम है हाइपोथेलमस. इसमें दो न्यूरोट्रांसमीटर होते है, endomorphin और morphin. ये दोनो ट्रांसमीटर किसी भी विपरीत लिंग को देखते ही क्रियाशील हो जाते है. मनोविश्लेषकों का मानना है कि प्यार हो जाना इसी क्रियाशीलता का परिणाम होता है. ठीक इसीप्रकार एक और ट्रांसमीटर स्थाई प्रेम के लिए जिम्मेदार होता है जिसका नाम Cerotonin है. इसके द्वारा मनुष्य के मस्तिष्क में दूसरे के लिए स्थाई प्रेम के भाव जन्मने लगते है. मनुष्य के शरीर में एक रसायन पाया जाता है जिसे endorphin कहते है. यह सच्चे और समर्पित प्रेम का कारक होता है.
विश्लेषक प्यार को पांच रूपों में विभाजित करते हैं
रोस-यह शारीरिक भूख जैसी प्रेम की अवस्था है
ल्यूडस- इस अवस्था में दो प्रेमी एक-दूसरे से प्यार करने लगते है, लेकिन उनमे गंभीरता का अभाव रहता है. इसमे प्रेमी एक दूसरे को आकर्षित करने के लिए बनावती तौर-तरीके आजमाते है और स्वयं को स्मार्ट साबित करने की कोशिश करते है
उगापे - एक-दूसरे से जुदा न होने और एक-दूसरे के बिना मर जाने की कसम खाने लगते है
मेनीयक-यह वह अवस्था है जिसमें प्रेमियों को अगर जुदा कर दिया जाय तो वे आत्महत्या कर सकते हैं
प्रेग्मा-सही मायने में प्यार होने की अवस्था प्रेग्मा ही है. इसमें दोनों प्रेमी एक दूसरे की भावनाओं की कद्र करते है. ये एक-दूसरे की भावनाओं को अच्छी तरह समझते है. प्रेग्मा में शर्म और उत्साह के लिए जगह नहीं होती.