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Tuesday 16 March 2010

बाबरी विध्वंस, तथ्यों की लिपा-पोती : सीतला प्रसाद सिंह


प्रेस काउन्सिल आँफ़ इंडिया के सदस्य और सहकारी अखबार ’जनमोर्चा ’ के संपादक वरिष्ठ पत्रकार और समाजसेवी शीतला प्रसाद सिंह द्वारा 15 मार्च को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में दिए गए विशेष व्याख्यान के अंश पर आधारित
राम मंदिर आंदोलन और बाबरी विध्वंस के मामले को लेकर दुनियां के सामने अयोध्या के घटनाक्रम की प्रस्तुति, भ्रांतियों और तथ्यों की लिपा-पोती की गयी हैं. मीडिया के लिए बाबरी विध्वंस एक ब्रांडनुमा खबर थीं जिसका व्यापार सुविधानुसार मीडिया जगत ने किया. १९९२ में जब बाबरी का विध्वंस हुआ तो दिल्ली के हमारे मित्र विनोद दुआ का फ़ोन आया कि ; एक प्रकाशक जी चाहते हैं कि आप अयोध्या आंदोलन के अपने अनुभवों को एक किताब की शक्ल दे, यह किताब एक महीने में छपनी है. आपको क्या रायल्टी चाहिए यह आप तय कर सकते हैं. उसी समय प्रकासक महोदय का भी फ़ोन आया, उन्होने भी विनोद दुआ द्वारा पूर्व में कही बातों को दोहराया.
मुझे लगा कि लिखना तो कमाने का बढि़या माध्यम है. क्या इसका उपयोग करना उचित है ? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक जिस विश्वास के साथ अयोध्या मसले पर मुझसे बाते की, उन बातोम को खोल दिया जाए तो सब नंगे हो जाए, क्या ये उचित होगा ? अयोध्या के बारे में मैं भी इस आग्रह की श्रेणी में हूं कि वह तथ्य जो सही है, उन्हे पवित्र मानकर प्रस्तुत करना चाहिए. मुझे वह क्षण याद है जब प्रधानमंत्री नरसिंह राव के सचिव खानेकर का फ़ोन आया था कि वो बात करना चाहते है तो मैने इनकार कर दिया था. यह इसलिए था क्योंकि उनकी दिशा विध्वंस मसले पर संधिग्ध थी. राव साहब का निरंतर फ़ोन आ रहा था, वह फ़ोन १२.३० पर आया था जिसमें पुछा गया था कि अयोध्या में केद्रीय सेना पहुंची की नहीं. मैंने बताया नहीं वापस चली गयीं.
मैं बराबर वहां के ताजा हालात पर नजर रखे हुए था. खबर हुई कि कल्याण सिंह त्यागपत्र देने जा रहे हैं. मैने तब जितेन्द्र प्रसाद से बात की. उन्होने कहा कि कल्याण सिंह बहुत बदमाशी की हैं हम उन्हें बर्खास्त करेंगे. बर्खास्त करने का मतलब मै समझता था. इसकी प्रक्रिया में काफ़ी समय लगता है, तकरिबन ३.३० घंण्टे, इतना समय पर्याप्त था छः दिसंबर के लिए.
इस बार देश की नंबर दो पार्टी भाजपा के अध्यक्ष ने पार्टी लाईन से हट कर एक बयान दिया जो काफ़ी महत्त्वपूर्ण हैं. उन्होने कहा कि अयोध्या में मंस्जिद हम बनवाएंगे बस आप मंदिर में अड़ंगा न डाले. इस बयान पर हरिद्वार के संतों और जन्म भूमि न्यास के नेताओं ने कटु आलोचना की, सिद्धांत को सिरे से खारिज कर दिया. दरअसल नितिन गडकरी के इस बयान के कई कारण हैं और यह एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हैं. समय की मजबूरी क्या-क्या हो सकती हैं ? कुछ तथ्य हैं.दिसंबर में जब मंस्जिद टूटी तो तीन जनवरी १९९३ को भारत सरकार एक आर्डिनेंस लाती है जो अप्रैल में अधिनियम में परिवर्तित हो जाती है. अधिनियम में कहा गया है कि अयोध्या के सांप्रदायिक विवाद को हल करने के लिए, विवादित स्थल के आस-पास की १७७ एकड़ जमीन अधिग्रहित की जाएगी जिसका उद्देश्य वहां, मंदिर, मंस्जिद, पुस्तकालय, संग्रहालय और पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की स्थापना की जाएगी. अदालतों द्वारा हिंदुओं को जो विशेष अधिकार दिए गए थे, वह समाप्त कर दिए गए.चंकि यह स्वामित्त्व का मामला है. जब तक इसका निर्धारण नहीं हो जाता तब तक इसे हल नहीं किया जा सकता.
स्वामित्त्व संबंधी विवाद का मुख्य तत्त्व यह है कि सेन्ट्रल सुन्नी वक्फ़ बोर्ड ने, १९६१ में एक मुकदमा दर्ज किया था कि हम इसके स्वामी हैं . हिंदुओं के मामले में स्वामित्त्व का मामला कहीं नहीं है. १९८५ में निर्मोही अखाड़ा ने इस पर अदालत में मामला बनाया. मुकदमें का फ़ैसला दो से तीन महीने में संभाव्य है और स्थिति किसी साधु और संस्था पर निर्भर नहीं होगा.
प्रस्तुति- अनुज शुक्ला
लेखक इस ब्लाँग के माडरेटर है, उनसे anuj4media@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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