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Friday 27 May 2011

किसे वकील करें, किससे मुंसिफ़ी चाहें

अनुज शुक्ला -
बने हैं अहले हवस, मुद्दई भी मुंसिफ़ भी / किसे वकील करें किससे मुंसिफ़ी चाहे,
गाजियाबाद के भट्ठा परसौल में लगी आग बढ़ती ही जा रही है। इससे जुड़ी रोज निकल रही सूचनाएं राजनीति के पारे को बढ़ाने वाली साबित हो रही हैं। वैसे भट्ठा परसौल की घटना के वक्त यह आशंका व्यक्त की गई थी कि ग्रेटरनोएडा की यह जगह देश में दूसरा नंदीग्राम और सिंगूर साबित होगी। कारण भी साफ है। 2012 के विधानसभा चुनाव को देखते हुए मायावती सरकार में अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के असंतोष को देखते हुए प्रदेश के विपक्षी दल इस सुनहरे मौके को चूकना नहीं चाहते। हालांकि लड़ाई की मूल जड़ विकास बनाम विस्थापन के पुराने जुमले से जुड़ी हुई है लेकिन जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं उनका विस्थापन से कुछ लेना-देना नहीं है बल्कि इसमें उनकी भविष्य के राजनीति की जय-पराजय लगी हुई है।
पिछले चार सालों के माया राज में भट्ठा परसौल, कोई नई जगह नहीं है जहां के किसान सरकार के लोकतान्त्रिक (पुलिसिया) दमन का शिकार हुए हैं, गोरखपुर से लेकर गाजियाबाद तक माया-राज में लगभग हर महीने सरकार का किसानों के प्रति दमनात्मक रवैया साबित होता आया है। भट्ठा-परसौल की घटना से पाँच महीने पहले इलाहाबाद के करछना एवं शंकरगढ़ में भी साल भर से पावरप्लांट के लिए अधिग्रहित की जा रही ज़मीनों के खिलाफ किसानों के सब्र का बांध टूट पड़ा था। करछना में पुलिस की फायरिंग और पिटाई के कारण एक किसान की मौत हो गई थी और दर्जनों किसान घायल हुए थे। कई किसान नेताओं के ऊपर फर्जी मुक़दमे दर्ज किए गए। गंगा एक्सप्रेसवे को लेकर पूर्वाञ्चल के कई हिस्सों में किसान आंदोलनकारी आंदोलनरत हैं उनकी सुध लेने वाला कोई राहुल गांधी और भाजपा नहीं है। जाहिर है वहां वह मसाला ही नहीं है जो आमतौर पर संसदीय राजनीति के लिए जरूरी है।
भट्ठा-परसौल में सवाल, मूल मसलों से हट कर हद दर्जे की राजनीति तक पहुँच चुके हैं। इसी सिलसिले में राहुल गांधी ने भट्ठा-परसौल के किसानों के प्रतिनिधि मण्डल को लेकर प्रधानमंत्री से मुलाक़ात की और पूरे हालात से प्रधानमंत्री को अवगत करवाया। उनके द्वारा दिया गया बयान कि एक्सप्रेसवे कई किसानों की लाशों पर बनवाया जा रहा है। जबकि सवालों के जवाब देने की बजाय इसे दूसरी दिशा में धकेलने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। भट्ठा-परसौल पर राहुल गांधी, कांग्रेस और भाजपा की दिलचस्पी काबिलेगौर है सपा और रालोद पर तो बात करनी ही बेमानी होगी। राहुल और कांग्रेस जिनके घड़ियाली आसूं थमने का नाम नहीं ले रहे हैं उनसे यह सवाल पूछना चाहिए कि क्या कांग्रेस का रवैया कांग्रेस शासित राज्यों में संदेह से परे है, अरुणाञ्चल प्रदेश की बिजली की हाइड्रो परियोजना एवं महाराष्ट्र के जैतापुरा की परमाणु परियोजना, जिसके कारण बड़े पैमाने पर लोग प्रभावित हुए हैं ; अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलनरत लोगों के प्रति यहां की सरकारें क्यों दमानात्मक है क्या यहां राहुल का हस्तक्षेप करना सकारात्मक कदम नहीं होता? या फिर यहां के लोगों की पीड़ा ही दस-जनपद के दरबार तक पहुंचने में कामयाब नहीं हुई। महाराष्ट्र में जैतापुरा के अलावा भी एमआईडीसी के बैनर के नीचे समूचे राज्य में विकास के लिए जरूरी बताए जा रहे अधिग्रहण का नंगा नाच चल रहा है। यहां विकास रिसने का सिद्धान्त फेल हो चुका है। विदर्भ में किसानों के विस्थापन की कीमत पर जो छोटे-छोटे बांध बनाए गए हैं या बनाए जा रहे हैं उसमें रोके गए पानी का उपयोग न तो गांवों में पेयजल की समस्या के लिए किया जा रहा है और न ही खेतों की सिचाई के लिए ही पानी उपलब्ध है। बल्कि इसे शहरों में आपूर्तित किया जा रहा है। जाहिर है गांवों की दशा को सुधारने के नाम पर चलाए गए तमाम प्रयास सिर्फ गांवों को बतौर ‘आंतरिक उपनिवेश’ तैयार करने वाले साबित हो रहे हैं।
दूसरी ओर भट्ठा-परसौल में भाजपा का किसान प्रेम जो पुनः जागृत हुआ है, उससे भी यह पूछना चाहिए कि क्या वह नैतिक रूप से इसके लिए हकदार है ? मौजूदा दौर में हो रहे अधिग्रहणों के लिए जितना उदारवाद ज़िम्मेवार है, मनमोहन सिंह की नीतियां ज़िम्मेवार हैं उतनी ही जिम्मेवारी इसे गति प्रदान करने वाली वाजपेई के नेतृत्व वाले भाजपा सरकार की भी थी। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और गुजरात जैसे भाजपा शासित राज्यों में अधिग्रहण और किसानों की आत्महत्याओं ने एक बार फिर से भाजपा की कलई खोल दी है। अकेले छतीसगढ़ में 2009 के साल में 1811 किसानों ने आत्महत्या की थी। भाजपा के शासन में अधिग्रहण की दास्तान, दमन और निरंकुशता से तो पूरी दुनिया भली-भांति वाकिफ हो ही चुकी है। जाहिर है अधिग्रहण के सवाल पर दोनों दलों की ‘टेक्टिस’ जनविरोधी ही रही है। यानी इन दलों ने हमेशा ही खेती-किसानी से जुड़े मुद्दों को निगमों के दबाववश नजरअंदाज ही किया है। फिर कैसे यह मान लिया जाय कि ग्रेटर नोएडा के भट्ठा-परसौल को लेकर राहुल गांधी और भाजपा ईमानदार हैं और राजनीति नहीं कर रहीं हैं, बावजूद इसके कि किसानों की हत्याओं के लिए मायावती को कभी माफ नहीं किया जा सकता? अगर वाकई कांग्रेस और भाजपा किसानों के लिए कुछ करना चाहती हैं तो इस काले कानून की समीक्षा करें और संशोधन करके इसमें किसानों के व्यापक हितों की गुंजाइश पैदा करें।
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